[राजीव सातव]। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते दिनों फिर यह कहा कि उनकी सरकार किसानों की आय बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध है और इसीलिए बजट में कृषि क्षेत्र को दोगुनी रकम का प्रावधान किया गया है। उनके अनुसार यह राशि दो लाख 12 हजार करोड़ रुपये हैं, लेकिन हकीकत यह है कि किसानों की आत्महत्या का सिलसिला कायम है। अन्नदाता रह-रह कर सड़कों पर भी उतर रहे हैं। इस मुश्किल समय में भी सरकारी उदासीनता साफ दिख रही है। एक आंकड़े के अनुसार देश में हर दिन करीब 35 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। वर्ष 2014-15 में 12360 किसानों ने आत्महत्या की। 2015- 16 में यह संख्या 12602 हो गई। 2016-17 में 11458 और 2017-18 में 14000। किसानों की आत्महत्या रोकने के लिए ठोस कदम उठाना तो दूर रहा, मोदी सरकार किसानों का कर्ज माफ करने के लिए तैयार नहीं। किसानों की चीख जुमले की राजनीति में गुम होती जा रही है। मौजूदा सरकार के विपरीत कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार ने हमेशा किसानों के हितों को सर्वोपरि रखा।

स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही भारत को एक कमजोर कृषि क्षेत्र विरासत में प्राप्त हुआ था। खेती के समक्ष कई तरह की चुनौतियां थीं। उनसे निपटने के लिए प्रभावी और कुशल नीति की जरुरत थी। फलत: तत्कालीन नीति-निर्माताओं ने प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-56) के साथ कृषि क्षेत्र पर विशेष ध्यान देना शुरू किया। इसके बाद लगभग प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में कृषि क्षेत्र के विकास के लिए कुछ न कुछ प्रावधान अवश्य किए गए। 1960 के दशक में हरित क्रांति के साथ कृषि क्षेत्र में एक नए युग का सूत्रपात हुआ, जिसने न केवल भारतीय कृषि को आत्मनिर्भर बनाया, बल्कि भारत को एक खाद्यान्न निर्यातक देश के रूप में भी स्थापित किया। कांग्रेस सरकार के शासनकाल में कृषि नीतियों के स्तर पर भी कई उपाय किए गए। इसके साथ ही किसानों को आत्मनिर्भर बनाने की भी पहल की गई, किंतु मोदी सरकार की किसान विरोधी नीतियों के कारण आज अन्नदाता सड़क पर उतरकर आंदोलन करने को मजबूर हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने बीते आम चुनाव के समय किसानों से जो वादे किए थे उन्हें पूरा करने में उनकी सरकार लगातार नाकाम हो रही है। अगर आंकड़ों के आधार पर बात करें तो मोदी सरकार के अब तक के कार्यकाल यानी 2014 से 2018 के बीच कृषि वृद्धि दर कांग्रेस काल यानी 2004 से 2014 के 4.2 प्रतिशत के मुकाबले घटकर 1.9 प्रतिशत पर आ चुकी है।

मोदी सरकार का वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का वादा भी एक जुमला साबित हो रहा है, क्योंकि इसके लिए आवश्यक कंपाउंड वार्षिक ग्रोथ रेट (सीएजीआर) 10.4 प्रतिशत होनी चाहिए जबकि यह 2.5 प्रतिशत ही है। रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण मजदूरी की वृद्धि में भारी कमी आई है। यह 2014 मे जहां 38 प्रतिशत थी वहीं 2018 में यह शून्य प्रतिशत पर आ गई है। मनरेगा के कार्य दिवसों में भी काफी गिरावट दर्ज की गई है। 2014 में यह 45 दिन था जबकि 2018 में यह 16.3 पर आ गया। मनरेगा में मजदूरी के भुगतान की स्थिति भी ठीक नहीं। अप्रैल 2018 तक करीब 99 प्रतिशत मजदूरी का भुगतान नहीं किया गया है। चुनाव से पूर्व प्रधानमंत्री ने वादा किया था कि न्यूनतम समर्थन मूल्य लागत में 50 प्रतिशत मुनाफा जोड़कर निर्धारित किया जाएगा, लेकिन खरीफ सत्र की किसी भी फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य में यह वादा पूरा नहीं किया गया। चुनाव से पहले महाराष्ट्र में भाजपा सरकार ने 89 लाख किसानों का कर्ज माफ करने का वादा किया था किंतु आधार से जुड़े 30 लाख किसानों का भी कर्ज माफ नहीं किया गया। कर्ज माफी के नाम पर उत्तर प्रदेश में 11700 किसानों के एक रुपये से लेकर 500 रुपये तक के कर्जे माफ किए गए।

वैसे तो सभी किसान संकट में हैं, लेकिन गन्ना किसानों की स्थिति कहीं अधिक दयनीय है। नरेंद्र मोदी ने वादा किया था कि उनकी सरकार बनने के बाद 14 दिन के अंदर गन्ना किसानों के बकाये का भुगतान किया जाएगा, किंतु वास्तविकता इसके विपरीत है। गन्ना किसानों की बकाया राशि करीब 20000 करोड़ रुपये तक पहुंच गई है। प्रधानमंत्री के वादे के 11 महीने बाद उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों की बकाया राशि12224 करोड़ रुपये तक पहुंच गई है। मोदी सरकार किसानों के साथ आर्थिक एवं सामाजिक आधार पर कैसे धोखाधड़ी कर रही है, इसका सटीक उदाहरण फसल बीमा योजना है। जितना प्रीमियम इसमें जमा किया गया उससे काफी कम आर्थिक सहायता गरीब किसानों को प्राप्त हुई। 2016 में खरीफ और 2016- 17 में रबी की फसल के दौरान 20478 करोड़ रुपये का प्रीमियम जमा हुआ। इसमें से किसानों को केवल 5650 करोड़ रुपये का लाभ मिला और कंपनियों ने इससे 14828 करोड़ रुपये का लाभ कमाया। एक विडंबना यह भी है कि जीएसटी के दायरे में ट्रैक्टर और कृषि से संबंधित अन्य उपकरण भी शामिल हैं। कृषि निर्यात की जगह आयात बढ़ गया है। वर्ष 2013-14 में कुल 43.23 अरब डॉलर का निर्यात हुआ और 15.03 अरब डॉलर का आयात। वर्ष 2014-15 में 39.06 अरब डॉलर का निर्यात हुआ और 20.62 अरब डॉलर का आयात। 2015-16 में निर्यात घट कर 32.79 अरब डॉलर रह गया और आयात बढ़कर 22.06 अरब डॉलर का हो गया। 2016-17 में निर्यात का आंकड़ा 33.87 अरब डॉलर का और आयात का 25.09 अरब डॉलर हो गया। आखिर इसे देखते हुए यह कैसे कहा जा सकता है कि खेती की हालत सुधर रही है?

किसानों की आत्महत्या के मामले लगातार सामने आने के बाद भी सरकार यह मानने को तैयार नहीं कि किसान आत्महत्या कर रहे हैं। सरकार की उपेक्षा के चलते किसान और खेती, दोनों अपनी अहमियत तेजी के साथ खो रहे हैं। किसानों की उन समस्याओं पर गंभीरता से ध्यान दिए जाने की जरूरत है जिनके चलते अन्नदाता आत्महत्या को मजबूर हैं। सरकार जन-धन योजना के जरिये वित्तीय समावेशन के लिए अपनी पीठ थपथपा रही है। वह मुद्रा योजना, स्टार्ट अप योजना का भी जिक्र कर रही है, लेकिन उसके पास इस सवाल का जवाब नहीं कि किसानों की कर्ज आपूर्ति के लिए कोई बड़ी योजना क्यों नहीं है? समझना कठिन है कि आखिर यह सरकार किसानों को सस्ते एवं सरल कर्ज की सुविधा उपलब्ध कराने की कोई ठोस पहल क्यों नहीं कर रही है? चूंकि अधिकांश किसानों की सरकारी वित्तीय संस्थाओं तक पहुंच नहीं है इसलिए वे साहूकारों के मोटे ब्याज वाले कर्ज के जाल में फंस रहे हैं।

(लेखक कांग्रेस के लोकसभा सदस्य हैं)