नई दिल्ली [ संजय गुप्त ]। पुणे के पास भीमा-कोरेगांव नामक स्थान पर दो सौ साल पहले हुए एक युद्ध की याद पर आयोजित समारोह इस वर्ष इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बना, क्योंकि प्रति वर्ष एक जनवरी को आयोजित होने वाले इस समारोह में शामिल होने जा रहे दलितों के साथ कुछ लोगों ने मारपीट की। इस दौरान वाहनों में आगजनी के साथ जो हिंसा हुई उसमें एक युवक की जान भी चली गई। दो सौ साल पहले यह युद्ध अंग्रेजों की सेना और पेशवाओं के बीच हुआ था। इस युद्ध में दलित और विशेष रूप से महार जाति के लोग अंग्रेजों की सेना का हिस्सा थे। इस युद्ध में पेशवाओं को हार मिली और उनके शासन का अंत हुआ। महाराष्ट्र के दलित इस युद्ध का स्मरण दशकों से करते चले आ रहे हैं, लेकिन इस बार भीमा-कोरेगांव में कहीं अधिक संख्या में भीड़ जुटी।

पुणे में एक जनवरी को दलित नेताओं के भड़काऊ भाषण

एक जनवरी को इस आयोजन के पहले पुणे में एक और कार्यक्रम हुआ, जिसमें गुजरात के दलित नेता जिग्नेश मेवाणी, उमर खालिद समेत अन्य अनेक लोगों ने हिस्सा लिया। माना जाता है कि इस कार्यक्रम के दौरान जो भड़काऊ भाषण हुए उसके दुष्परिणाम स्वरूप ही भीमा-कोरेगांव में हिंसा भड़की। एक अन्य कारण यह बताया जा रहा है कि भीमा-कोरेगांव के पास दलितों और मराठाओं के बीच एक विवाद के चलते जो तनाव पैदा हुआ वह इस हिंसा का कारण बना।

भीमा-कोरेगांव में हिंसा के के विरोध में तीन जनवरी को महाराष्ट्र बंद
भीमा-कोरेगांव में हिंसा के जवाब में प्रकाश अंबेडकर और अन्य दलित नेताओं ने तीन जनवरी को महाराष्ट्र बंद का आयोजन किया। बंद के दौरान मुंबई, पुणे और औरंगाबाद समेत महाराष्ट्र के करीब 13 जिलों में उत्पात मचाया गया। एक तरह से भीमा-कोरेगांव में हुई हिंसा का जवाब हिंसक तरीके से ही दिया गया। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने भीमा-कोरेगांव में हुई हिंसा की न्यायिक जांच के आदेश दिए हैं, लेकिन इसके बावजूद कई दलित संगठन इस घटना के बहाने अपनी राजनीति चमकाने में लगे हुए हैं। यही काम अन्य अनेक राजनेता भी करने में लगे हुए हैं। यही कारण है कि आने वाले दिनों में महाराष्ट्र की घटनाओं को लेकर देश के अन्य हिस्सों में भी जातिवादी राजनीति को हवा देने की आशंका बढ़ गई है। इस आशंका के चलते समाज के सभी वर्गों को जाति का सहारा लेकर राजनीति करने वालों और इस क्रम में सामाजिक वैमनस्य बढ़ाने वाले नेताओं से सावधान रहना होगा।

महाराष्ट्र की घटना ने देश के सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचाया

इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि महाराष्ट्र की घटनाओं ने इस राज्य के साथ-साथ देश के अन्य हिस्सों में भी सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचाने का काम किया है। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि सत्तर साल बाद भी देश में जाति आधारित राजनीति का सिलसिला कायम है। जाति आधारित राजनीति विभाजनकारी राजनीति के अलावा और कुछ नहीं।

जाति के आधार पर सामाजिक विभाजन की राजनीति

हमारे देश में कभी जाति के आधार पर सामाजिक विभाजन की राजनीति की जाती है तो कभी संप्रदाय के नाम पर की जाने वाली राजनीति के जरिये। यह राजनीति किस तरह झूठ और छल-छद्म पर भी आधारित है, इसका प्रमाण कुछ दलों की ओर से भाजपा पर यह ठप्पा लगाए जाने से मिलता है कि वह अगड़ों की पार्टी है। सच्चाई यह है कि सबसे ज्यादा दलित-आदिवासी सांसद-विधायक भाजपा में ही हैं।

 जाति एवं संप्रदाय की आड़ में की जाने वाली राजनीति

जातीय विभाजन अथवा वैमनस्य से ग्रस्त कोई भी समाज आगे नहीं बढ़ सकता। हालांकि इससे सभी परिचित हैं कि जाति एवं संप्रदाय की आड़ में की जाने वाली राजनीति किस तरह समाज और देश को कमजोर करने का काम करती है, लेकिन इसके बावजूद रह-रहकर ऐसी राजनीति देखने को मिलती है। कई बार तो यह राजनीति सामाजिक ढांचे को कहीं अधिक नुकसान पहुंचाती है। फौरी तौर पर इस नुकसान का लाभ भले ही जाति-संप्रदाय की राजनीति करने वालों को मिलता हो, लेकिन अंतत: उनके पीछे खड़े होने वालों को ही नुकसान उठाना पड़ता है। जब भीमा-कोरेगांव की घटना के बाद कोशिश इस बात के लिए होनी चाहिए थी कि दलितों और मराठाओं अथवा दलितों एवं जातीय समूहों के बीच वैमनस्य न बढ़ने पाए तब ठीक इसका उल्टा ही किया गया। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि यह काम संसद में भी होता नजर आया जब नेताओं ने भीमा-कोरेगांव की घटना का जिक्र कर एक-दूसरे पर दोषारोपण किया।

भारतीय समाज को जाति और संप्रदाय में बांटकर उल्लू सीधा करना
भारतीय समाज को जाति और संप्रदाय के बीच बांटकर अपना उल्लू सीधा करने और देश को कमजोर करने का काम नया नहीं है। यह काम अंग्रेजों के समय से ही जारी है। अंग्रेज भारतीय समाज को जातियों के बीच विभाजित कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने में इसलिए सफल हुए, क्योंकि भारतीय समाज जातिवाद से जकड़ा हुआ था। निश्चित रूप से कोई भी देश ऐसा नहीं जहां गरीबी न हो, लेकिन यह भी सच है कि गरीबी जाति-मजहब तक ही केंद्रित नहीं।

वंचित-शोषित एवं पिछड़े तबकों को मुख्यधारा में लाने के विशेष उपाय
भारत में विशेष तौर पर यह देखने को मिल रहा है कि गरीबी को जाति विशेष अथवा संप्रदाय विशेष से जोड़कर देखा जाता है। एक समय ऐसा था जब जाति विशेष के लोग गरीबी से कहीं ज्यादा ग्रस्त थे, लेकिन पिछले सत्तर वर्षों में स्थितियां बदली हैं। यह ठीक है कि गरीबी और पिछड़ेपन को दूर करने के लिए अभी भी बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है, लेकिन इस आवश्यकता की पूर्ति तभी हो सकती है जब गरीबी को जाति-वर्ग से जोड़कर राजनीति करने से बचा जाए। दुर्भाग्य से फिलहाल ऐसा ही हो रहा है। इस काम में आरक्षण का इस्तेमाल एक हथियार की तरह से किया जा रहा है। एक समय आरक्षण वंचित-शोषित एवं पिछड़े तबकों को मुख्यधारा में लाने का विशेष उपाय था, लेकिन अब वह स्कूलों में दाखिले लेने और सरकारी नौकरियां पाने का जरिया अधिक बन गया है। यही कारण है कि अब कुछ वैसे जातीय समूह भी आरक्षण की मांग करने लगे हैं जो न तो सामाजिक रूप से पिछड़े हैं और न ही शैक्षणिक रूप से। ऐसे जातीय समूह आरक्षण पाने के आधारों को पूरा नहीं करते, लेकिन इनके नेता न केवल खुद को आरक्षण का हकदार बता रहे हैं, बल्कि इसके लिए सड़कों पर उतरने और हिंसा का सहारा भी ले रहे हैं।

नेताओं ने आरक्षण की मांग को लेकर हिंसा का सहारा लिया

यह किसी से छिपा नहीं कि पिछले कुछ वर्षों में जाट, गुर्जर अथवा पाटीदार समाज के नेताओं ने आरक्षण की मांग को लेकर किस तरह हिंसा का सहारा लिया। कायदे से तो देश के राजनीतिक नेतृत्व को आरक्षण हासिल करने के इन तरीकों की निंदा करनी चाहिए, लेकिन देखने में यही आ रहा है कि वोट बैंक की राजनीति के चलते आरक्षण की करीब-करीब हर मांग का कुछ राजनीतिक दल समर्थन करने के लिए आगे आ जाते हैं।

चुनावों के दौरान जातिवादी राजनीति
जातिवादी राजनीति किस तरह फिर से सिर उठाती दिख रही है, इसका एक प्रमाण गुजरात के चुनावों के दौरान तब मिला था जब कांग्रेस ने जाति विशेष की राजनीति करने वाले नेताओं का समर्थन लेने में कोई संकोच नहीं किया। वैसे तो देश में कोई भी दल ऐसा नहीं जो किसी न किसी स्तर पर जातिवाद का सहारा लेकर राजनीति न करता हो, लेकिन समस्या तब बढ़ जाती है जब इसके सहारे चुनावी लाभ लेने की कोशिश में जातीय वैमनस्य फैलाने में भी संकोच नहीं किया जाता।

राजनीतिक पार्टियां जातिवादी राजनीति से दूर रहें

इसमें संदेह है कि दल जातिवादी राजनीति के दुष्परिणामों से चेतेंगे, लेकिन कम से कम समाज को तो यह समझना ही होगा कि जाति के नाम पर की जाने वाली राजनीति और एक जातीय खेमे को दूसरे जातीय खेमे के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश देश को सामाजिक विभाजन और अशांति की ओर ही ले जाएगी और नि:संदेह यह वह रास्ता है जो समाज और देश को अवनति की ओर ले जाएगा।


[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]