कर्ण, दधीचि और राजा हरिश्चंद्र जैसे परम दानी भारत में ही हुए हैं, जिन्होंने दुनिया के सामने दान की मिसाल कायम की । पुराणों में अनेक तरह के दानों का उल्लेख मिलता है, जिनमें अन्नदान, विद्यादान, अभयदान और धनदान को श्रेष्ठ माना गया है। यूं ही नहीं कहा जाता कि एक हाथ से दान करो, तो दूसरे हाथ को पता नहीं चलना चाहिए। नि:स्वार्थ भाव से किया गया दान ही सही मायने में दान कहलाता है। शोधकर्ता माइकल जे. पॉलिन ने एक शोध किया जिसमें उन्होंने पाया कि दूसरों का सहयोग करना स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद है। समाज से अलग-थलग रहने वाले और तनाव में जीने वाले लोग जल्दी ही शारीरिक रुग्णता के शिकार होने लगते हैं, जबकि दूसरों की मदद करने से हमें लंबी उम्र की प्राप्ति होती है। वेदों और पुराणों में कहा गया है कि दान देने से हममें परिग्रह करने की प्रवृत्ति नहीं आती। मन में उदारता का भाव रहने से विचारों में शुद्धता आती है। मोह और लालच नहीं रहता। दान करने से हम न सिर्फ दूसरों का भला करते हैं, बल्कि अपने व्यक्तित्व को भी निखारते हैं। जब हम दान बिना किसी स्वार्थ के करते हैं तो उस सुख का अनुभव हमें आत्मसंतुष्टि देता है। शास्त्रों में दान का विशेष महत्व बताया गया है। इस पुण्य कार्य से समाज में समानता का भाव बना रहता है और जरूरतमंद व्यक्ति को भी जीवन के लिए उपयोगी चीजें प्राप्त हो जाती हैं। जरूरतमंद के घर जाकर दिया दान उत्तम होता है।

गोदान को श्रेष्ठ माना गया है। यदि आप गोदान नहीं कर सकते हैं तो किसी रोगी की सेवा करना भी गोदान के समान पुण्य देने वाले होते हैं। कहा गया है कि मनुष्य को अपने अर्जित किए हुए धन का दसवां भाग किसी शुभ कार्य में लगाना चाहिए। इसमें गोशाला में दान, गरीब बच्चों की शिक्षा का प्रबंध या गरीब व्यक्तियों को भोजन खिलाना शामिल है। दान देने के संबंध में सबसे जरूरी बात यह है कि यदि आप किसी दबाव या समाज में दिखावे के लिए दान करते हैं तो आपके इस दान का कोई मतलब नहीं होता। जैसे झूठी वाहवाही के लिए दौलत का प्रदर्शन करने के लिए, मनोकामना पूरी होने के लालच में या फिर ईश्वर के डर से किया गया दान अपना महत्व खो दे देता है। दान इस भावना से किया जाना चाहिए कि हम इस समाज में रहते हुए अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन कर रहे हैं और जो जरूरतमंद हैं वे भी हमारे अपने परिवार का हिस्सा हैं।

[ रेणु जैन]