लखनऊ, सद्गुरु शरण। प्रियंका वाड्रा के हर बार उत्तर प्रदेश आने की दस्तक सुनते ही प्रशासन और खुफिया एजेंसियों के हाथ-पांव फूलने लगते हैं। उन्हें मैडम के गुप्त कार्यक्रम पर गहरी नजर रखनी पड़ती है कि वह कब, कहां जाने की प्लानिंग कर रही हैं। पिछले दिनों लखनऊ में वह अचानक पूर्व पुलिस अधिकारी एसआर दारापुरी के घर जाने के लिए निकल पड़ीं। इस घटना में उनकी सुरक्षा में तैनात महिला पुलिस अधिकारी को जो झेलना पड़ा, उसे देखते हुए पुलिस अधिकारी सचेत हो गए हैं कि मिसेज वाड्रा से दूरी रखकर ही बात करनी है।

अभेद्य सुरक्षा कवच में रहती हैं प्रियंका

लखनऊ के बाद वह एक सुबह अचानक दिल्ली से मुजफ्फरनगर के लिए निकल पड़ीं, यद्यपि प्रशासन द्वारा अतिरिक्त एहतियात बरतने से वहां कोई विवाद खड़ा नहीं हुआ। वर्षों बाद 2019 लोकसभा चुनाव से पहले राजनीति में फिर सक्रिय हुईं प्रियंका के पास बेशक कोई विधायी या संवैधानिक पद नहीं है, इसके बावजूद उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि को देखते हुए वह भी अभेद्य सुरक्षा कवच में रहती हैं। जाहिर है कि उनकी गुरिल्ला राजनीतिक शैली स्थानीय शासन-प्रशासन के साथ उनके निजी सुरक्षा अधिकारियों के लिए भी सरदर्द बनती होगी। कोई नहीं भूल सकता कि सुरक्षा संबंधी चूक के चलते इस परिवार की दो बड़ी हस्तियां जान गंवा चुकी हैं। इस पृष्ठभूमि में इस परिवार के सदस्यों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने सुरक्षा प्राविधानों का उल्लंघन न करें, पर राहुल और प्रियंका अक्सर इसका उल्लंघन करते दिखते हैं। राहुल गांधी द्वारा बीच-बीच में सुरक्षा कवच से बाहर निकलकर कई दिनों के लिए लापता हो जाने पर संसद में भी चिंता व्यक्त की जा चुकी है। प्रियंका भी उसी राह पर दिखती हैं। उनका यह कहना सही है कि मैं (प्रियंका वाड्रा) कहां जाऊंगी, इसके लिए मुझे यूपी सरकार से अनुमति लेने की जरूरत नहीं है।

गुरिल्ला ढंग से क्यों निकलती हैं

बहरहाल, उनकी सुरक्षा का प्रोफाइल देखते हुए घोर अपरिहार्य परिस्थिति के अलावा उन्हें प्रशासन को अपने भ्रमण कार्यक्रम की पूर्व-जानकारी देनी ही चाहिए। लखनऊ और मुजफ्फरनगर की घटनाओं में कोई आकस्मिकता नहीं थी। ऐसे में आमजन के अलावा कांग्रेसी भी नहीं समझ पा रहे कि दीदी (ज्यादातर कांग्रेसी प्रियंका को इसी रिश्ते से संबोधित करते हैं) गुरिल्ला ढंग से क्यों निकलती हैं। इतने बड़े परिवार की सदस्य को ऐसा करने की क्या जरूरत? इसकी असली वजह तो प्रियंका ही जानती होंगी। लोकसभा चुनाव में अपेक्षानुसार छाप छोड़ने में विफल रहने की निराशा इसकी एक वजह हो सकती है जिससे उबरने के लिए वह कई अवसरों पर अति-आक्रामकता धारण कर लेती हैं। जाहिर है, इससे उन्हें मीडिया में अधिक स्पेस मिल जाता है। यदि यह धारणा सही है तो भी सुरक्षा की अनदेखी बेहद खतरनाक है। देश अपने सभी नेताओं को सुरक्षित देखना चाहता है।

आशावादी सपा

पिछले तीन दशकों में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में चौथे नंबर की ही पार्टी रही है, इसके बावजूद जब भी चुनाव आता है, इस पार्टी के बड़े नेता मेहनत करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। यह अलग बात है कि जमकर पसीना बहाने के बावजूद र्टी को कुछ खास हासिल नहीं होता। लोकसभा चुनाव के बाद भी प्रियंका जिस तरह सक्रिय हैं, उससे कांग्रेसी कितने संतुष्ट हैं, पता नहीं, पर उनकी सक्रियता पर सपाई गदगद हैं। उन्हें 2012 विधानसभा चुनाव से पहले का कालखंड याद आ रहा है, जब इसी तरह राहुल गांधी ने पूरे प्रदेश को मथ डाला था। उनके तेवर प्रियंका की ही तरह आक्रामक थे। जब चुनाव नतीजे आए, तो सपा की लॉटरी निकली। सपाई मानते हैं कि 2012 और 2020 के जमीनी हालात में कोई खास फर्क नहीं है। कांग्रेस की वास्तविक समस्या है, जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं का अकाल। पार्टी के बड़े नेता, खासकर गांधी-नेहरू परिवार के सदस्य खूब मेहनत से राजनीतिक फसल तैयार तो करते हैं, पर जमीनी कार्यकर्ताओं के अभाव में फसल दूसरी पार्टियां काट ले जाती हैं। कांग्रेस नेताओं की मेहनत का प्रभाव भाजपा विरोधी मतदाताओं के संगठित होने की शक्ल में नजर आता है, पर 2012 विधानसभा चुनाव में इसका लाभ अंतत: सपा को मिला।

पार्टी को उम्मीद है कि 2022 विधानसभा चुनाव में भी सपा ही वास्तविक भाजपा विरोधी चेहरा होगी। बाकी पार्टियां लाख मेहनत कर लें, जब चुनाव की नौबत आएगी, उस वक्त भाजपा विरोधी मतदाताओं का भरोसा सपा पर ही टिकेगा। कहना कठिन है कि सपा की यह धारणा और आशा कितनी सही है, पर यह बात एकदम सही है कि कांग्रेस के पास जमीनी कार्यकर्ता नहीं बचे। यदि कांग्रेस का लक्ष्य विधानसभा चुनाव है तो पार्टी के पास दो वर्ष का समय है। कांग्रेस के शुभचिंतक चाहते हैं कि नेतृत्व गुरिल्ला राजनीति छोड़ धरातल मजबूत करे अन्यथा कांग्रेस की मेहनत पर सपा की उम्मीदें फलीभूत होने की त्रासदी रोकना असंभव हो जाएगा।

[स्थानीय संपादक, लखनऊ]