[ प्रेमपाल शर्मा ]: हरियाणा की नवनिर्वाचित भाजपा-जजपा सरकार के एक प्रस्ताव से विवादों का पिटारा खुल सकता है। यह प्रस्ताव है हरियाणा में 75 प्रतिशत नौकरियां राज्य के स्थानीय निवासियों के लिए आरक्षित रखने का। यह तय नहीं है कि इस कदम के कितने सकारात्मक परिणाम निकलेंगे, मगर इतना जरूर है कि यह दांव कई पुराने घावों को कुरेद कर कुछ नए बखेड़े जरूर खड़ा कर सकता है। इससे कुछ महीने पहले आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी सरकार ने भी उद्योग, उपक्रमों आदि में स्थानीय लोगों को वरीयता देने की नीति बनाई है। इसी वर्ष गोवा विश्वविद्यालय में भर्ती के प्रश्न पर भी स्थानीय लोगों के लिए गोवा विधानसभा ने एक विधेयक पारित किया है। हालांकि इस पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी की सहमति अभी बाकी है। वहीं मध्य प्रदेश सरकार ने भी कुछ ऐसे कदम उठाए हैं कि वहां नौकरियों के लिए मध्य प्रदेश रोजगार कार्यालय में नाम दर्ज होना आवश्यक है। हिमाचल सरकार भी इसी राह पर आगे बढ़ रही है। मेडिकल की नीट परीक्षा में भी डोमिसाइल नीति के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग कानूनों से भी युवाओं में असंतोष बना हुआ है।

बढ़ती बेरोजगारी और वोट बैंक की राजनीति

देश भर में बढ़ती बेरोजगारी और वोट बैंक की राजनीति के चलते लोकतंत्र में ऐसा होना स्वाभाविक है, लेकिन एक दूरदर्शी शासन-प्रशासन को इसके विध्वंसकारी आयामों को समझते हुए तत्काल कुछ कदम उठाने की जरूरत है। आजादी के तुरंत बाद पूरे देश के लिए भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा, भारतीय वन सेवा जैसी अखिल भारतीय सेवाओं और रेलवे, राजस्व, डाक, रक्षा लेखा आदि केंद्रीय सेवाओं की शुरुआत इसीलिए की गई थी कि ऐसे ‘स्टील फ्रेम’ के बूते ही इतने बड़े देश की एकता और प्रशासन को मजबूती दी जा सकती है। इस ढांचे के सूत्रधार लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल को उनकी इस दूरदर्शिता के लिए पूरा देश आज भी नमन करता है। यह संघीय ढांचे और एकीकृत देश के प्रशासन में समन्वय की सबसे अहम कड़ी साबित हुई। हालांकि बीच-बीच में इसे कमजोर करने की आवाजें भी उठती रही हैं।

भाषा को प्राथमिकता देने की मुहिम ने जोर पकड़ा

वर्ष 1981 के बाद से बढ़ती बेरोजगारी और भाषाई विवादों के चलते महाराष्ट्र, कर्नाटक और अन्य राज्यों में छिटपुट आंदोलन हुए, लेकिन वे मौजूदा घोषणा से अलग थे। उसमें संबंधित राज्य में अपनी भाषा को प्राथमिकता देने की मुहिम ने जोर पकड़ा। इस बात में दम भी है। यदि महाराष्ट्र में डॉक्टर बाहर से आएगा तो स्थानीय मरीजों की बातों को उतने ध्यान से नहीं समझ पाएगा। इसीलिए दोनों के लिए ही यह अच्छी स्थिति नहीं होगी।

आरक्षण के मसले पर केंद्र सरकार के सराहनीय कानून

यहां पिछली सदी के सातवें दशक में बनाए गए केंद्र सरकार के कुछ कानूनों की तारीफ करनी पड़ेगी जो उन्होंने आरक्षण के मसले पर बनाए थे। जैसे कि समूह क, ख और ग के लिए 40 प्वाइंट रोस्टर और समूह घ के लिए 100 प्वाइंट रोस्टर। पहली तीन श्रेणियों की केंद्रीय नौकरियों के लिए पूरे भारत में समान नियम लागू था, जबकि 100 प्वाइंट के जरिये स्थानीय आबादी के अनुरूप आरक्षण किसी भी सीमा तक कम या ज्यादा किया जा सकता था। स्थानीय काम जैसे सफाईकर्मी और ऐसे ही दूसरे कामकाज स्थानीय लोगों को ही मिलने चाहिए। इसमें वही बेहतर सेवाएं दे सकते हैं। इसके उलट विश्वविद्यालय समेत प्रशासनिक या दूसरी उच्च सेवा में मूल निवासियों के लिए ऐसा आरक्षण राष्ट्रीय हितों को नुकसान पहळ्ंचाएगा। यहां सिर्फ उस राज्य अंचल के भाषा ज्ञान की शर्त पर्याप्त मानी जानी चाहिए। यह उनकी भर्ती परीक्षा में भी शामिल की जा सकती है। हालांकि ऐसा कई राज्य कर भी रहे हैं।

कैडर आवंटन नीति में बदलाव

आपको याद दिला दें कि 1984 के आसपास पंजाब समस्या के लिए जिम्मेदार स्थानीय अधिकारियों और आतंकियों के बीच बना गठजोड़ भी इससे मिलती-जुलती नीति का प्रमुख कारण था। ऐसी समस्या दोबारा पैदा न हो इसके लिए आइएएस, आइपीएस के कैडर आवंटन नीति में बदलाव किया गया ताकि इन सेवाओं के अधिकारी ज्यादा से ज्यादा दूसरे राज्यों में आवंटित हों। उन्हें अनिवार्य रूप से स्थानीय भाषा सिखाई जाती है। इससे उनकी प्रशासनिक दक्षता, ईमानदारी और वस्तुनिष्ठता के बहुत अच्छे नतीजे हासिल हुए।

हरियाणा सरकार का कदम उत्तर भारत के लिए नुकसानदेह

हरियाणा की मनोहर सरकार का यह कदम उत्तर भारत के लिए ज्यादा नुकसानदेह साबित हो सकता है। यदि दिल्ली भी ऐसी घोषणा कर दे तो क्या डीटीसी जैसे विभागों में कार्यरत हरियाणा के हजारों लोग प्रभावित नहीं होंगे? यदि हरियाणा की तर्ज पर ही कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात ऐसा ही नियम लागू कर दें तो उत्तर भारत के लाखों नौजवान कहां जाएंगे? बेंगलुरु, पुणे, हैदराबाद, मैसूर, कोयंबटूर और चेन्नई सूचना क्रांति के बाद लाखों इंजीनियरों को रोजगार दे रहे हैं।

स्थानीय निवासियों के लिए आरक्षित 75 फीसद नौकरियां से पूरे राष्ट्र की शांति भंग हो सकती है

जाहिर है ऐसा कोई भी कदम पूरे राष्ट्र की शांति को भंग कर सकता है। 1981 के दशक में शिवसेना ऐसे बखेड़े कर चुकी है जो पहले गुजरातियों के खिलाफ था और फिर तमिल तथा केरल वासियों के खिलाफ। तीन वर्ष पहले कर्नाटक में भी ऐसी ही सुगबुगाहट हुई थी। क्या अनुच्छेद 370 के खिलाफ पूरे देश में ऐसे ही सुगबुगाहट नहीं थी कि न वहां जमीन खरीद सकते, न उद्योग लगा सकते, न नौकरी पा सकते। अमेरिका जब ऐसा करता है तो हमारे देश में आक्रोश फैलता है। भले ही हरियाणा का कदम इतना बड़ा न हो, लेकिन यह नासूर न बने इसके लिए इसे रोकना होगा।

स्थानीय लोगों को रोजगार देने से बाहरी प्रतिभा को जगह नहीं मिलती

स्थानीय लोगों के रोजगार के लिए पहले से ही कुछ राज्यों में व्यवस्था है कि यदि कोई बाहरी व्यक्ति वहां जमीन अधिग्रहण करेगा, उद्योग लगाएगा तो 75 प्रतिशत नौकरियां स्थानीय लोगों को देनी होंगी। इससे बाहरी प्रतिभा, कुशलता को भी जगह मिलती है और स्थानीय लोगों को भी। हमें अपनी सेवाओं और उद्योगों को गुणवत्ता के पैमाने पर विश्वस्तरीय बनाना होगा तो ऐसे उपाय करने होंगे। यह तभी संभव है जब देशभर के प्रतिभावान युवाओं के लिए हमारे रास्ते खुले रहें।

उद्योगों और उद्योगपतियों को आजादी मिलनी चाहिए

उद्योगों और उद्योगपतियों को भी यह आजादी मिलनी चाहिए। लालफीताशाही को उनकी राह में बाधा नहीं बनना चाहिए। यही बात विश्वविद्यालयों पर भी लागू होती है। नाम विश्वविद्यालय है तो फिर उसमें भर्ती गांव या शहर के स्तर पर नहीं होनी चाहिए। इससे शिक्षा और उद्योग दोनों की गुणवत्ता पर बुरा असर पड़ेगा। इसके साथ-साथ राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए भी यह खतरनाक साबित होगा।

( लेखक भारत सरकार के पूर्व संयुक्त सचिव हैैं )