नई दिल्ली [ हृदयनारायण दीक्षित ]। धर्म मधुमयता है। इकाई से अनंत की आत्मीयता। वृहदारण्यक उपनिषद् (2.5.11) में कहते हैं, ‘धर्म सभी तत्वों का मधु है। सभी तत्व धर्म के मधु हैं।’ सभी तत्वों का धर्म होता है। जल का धर्म रस है और अग्नि का धर्म ताप। धर्म का भी धर्म है-सबको धारण करना। धर्म ब्रह्मांड की व्यवस्था है इसीलिए धर्म संसार का रस भी है। छांदोग्य उपनिषद् में कहते हैं, ‘सभी प्राणियों का रस पृथ्वी है। पृथ्वी का रस जल है। जल का रस वनस्पतियां हैं। इनका रस मनुष्य है। मनुष्य का रस वाणी है। वाणी का रस ऋग्वेद के मंत्र हैं। इनका रस साम गान हैं।’ उपनिषद् दर्शन ग्रंथ हैं, लेकिन दृष्टिकोण में वैज्ञानिक हैं। मनुष्य सुख की इच्छा करते हैं, लेकिन इकाई होना दुख है और अनंत होना आनंद। छांदोग्य उपनिषद् में दुखी नारद को सनत कुमार ने बताया, ‘संपूर्णता में आनंद है। अल्प में सुख नहीं है- न अल्पे सुखम् अस्ति। ब्रह्म ने भी अल्पसंख्यक से बहुसंख्यक होने की इच्छा की ‘एको अहम् बहुस्यामि। मैं एक हूं, बहुसंख्या हो जाऊं। उसने जीवजगत गढ़ा। बहुसंख्यक हो गया, लेकिन यहां बहुसंख्यक से अल्पसंख्यक हो जाने की मांगें हैं।

लिंगायतों व वीर शैवों को धार्मिक अल्पसंख्यक घोषित कराने की खतरनाक मांग

कर्नाटक सरकार ने लिंगायतों व वीर शैवों को धार्मिक अल्पसंख्यक घोषित कराने की खतरनाक मांग की है। धर्म का निर्वचन आसान नहीं। दुनिया में हजारों, पंथ रिलीजन या मजहब हैं। धर्म के अलावा बाकी पहचान सुस्पष्ट है- एक ईश्वर पर विश्वास, एक पवित्र ग्रंथ और एक देवदूत के प्रति आस्था। भारत का धर्म ऐसी एककोषीय रचना नहीं है। वैदिक धर्म, सनातन धर्म र्या ंहदू धर्म का सतत विकास हुआ है। सैकड़ों दार्शनिकों ने इसे लगातार संशोधित, परिवर्धित और समृद्ध किया है। प्रश्न, जिज्ञासा और सामूहिक शास्त्रार्थ के चलते इसका अंतिम रूप सुनिश्चित नहीं हुआ। भारत की संवैधानिक व्यवस्था में भी धर्म की पहचान के मानक नहीं है।

राजनीति में वोट ही धर्म है

संविधान और कानून में धर्म की कोई परिभाषा नहीं है। बावजूद इसके कर्नाटक सरकार और राज्य अल्पसंख्यक आयोग ने कमाल किया है। आनन फानन में लिंगायत/वीर समूह को हिंदू धर्म से पृथक धर्म बताया। समूह को अल्पसंख्यक भी सिद्ध कर दिया। केंद्र को सिफारिश भी भेज दी -लीजिए नया धर्म हाजिर है। यह अल्पसंख्यक है। इसे धार्मिक अल्पसंख्यक घोषित कीजिए। करोगे तो पेटेंट हमारा है, वोट मुनाफा हमको मिलेगा। नहीं करोगे तो भुगतो। लिंगायत समूह विधानसभा चुनाव में हमको ही वोट देगा। राजनीति में वोट ही धर्म है। विभाजक राजनीति भारत के सामने नए तरह का बिंदास धर्म संकट लाई है।

भारत का धर्म सर्वसमावेशी है

भारत का धर्म सर्वसमावेशी है। प्राचीनतम शब्द साक्ष्य ऋग्वेद में सृष्टि प्रपंचों पर वैज्ञानिक जिज्ञासा है। अग्नि, जल, सूर्य आदि प्रकृति की शक्तियां देवता हैं, कुछेक भावपरक देवता भी हैं। यहां इंद्र हैं तो रूद्र भी हैं और जो रूद्र हैं वे शिव भी हैं- या रूद्र से शिवा। यहां अंधविश्वासों से टकराने और नई मान्यता स्थापित करने वाला आध्यात्मिक लोकतंत्र था। उपनिषद उत्तर वैदिक काल में रचे गए। इनमें यज्ञ के भी विरुद्ध टिप्पणियां हैंर्। हिंदू धार्मिक विश्वासों में दर्शन और सामाजिक सुधार की समानांतर गतिविधि चली है। कपिल, बुद्ध, महावीर, नानक, पतंजलि, शंकराचार्य आदि ने अपने अपने ढंग से हिंदू धर्म को समृद्ध किया। 12वीं शताब्दी के दक्षिण भारतीय संत वासवन्ना ने जाति व्यवस्था को चुनौती दी। वैदिक परंपरा व मूर्ति पूजा का विरोध किया। शिव को सर्वोपरि देव जाना। उनके समर्थक शिवलिंग का प्रतीक धारण करते हैं। लिंग प्रतीक और शिव उपासना अखिल भारतीय हैं। राम, कृष्ण और शिव भारतीय आराधना के तीन प्रतीक हैं। इसके पहले ब्रह्मा, विष्णु और महेश की त्रिदेव मूर्ति में भी शिव हैं। वे शिव सत्य, शिव और सुंदर की त्रयी में भी हैं। शिव के बिना अधूरा है भारत का मन।

भारत में कोई अल्पसंख्यक नहीं है

अंतरराष्ट्रीय अर्थ में भारत में कोई अल्पसंख्यक नहीं है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यकों की सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा के लिए रक्षोपायों की मांग का औचित्य था कि युद्ध आदि कारणों से किसी राज्य क्षेत्र के निवासियों की सहमति के बिना राज्य क्षेत्र में परिवर्तन से ऐसे समुदायों की अस्मिता कुछ परिस्थितियों से नष्ट हो गई। उनकी अस्मिता को बनाए रखने के लिए अंतरराष्ट्रीय चार्टर और राष्ट्रीय संविधानों में रक्षोपाय किए गए, लेकिन मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा में अल्पसंख्यकों के बारे में कोई उपबंध नहीं हैं। भारत में युद्ध आदि कारणों से विवश जनसमूह नहीं है। बावजूद इसके संविधान निर्माताओं ने अल्पसंख्यकों के लिए विशेष रक्षोपाय किए। 1966 में सिविल और राजनीतिक अधिकार अंतरराष्ट्रीय करार हुआ। इसका अनुच्छेद 27 कहता है ‘उन राज्यों में जिनमें जातीय, धार्मिक, भाषाई अल्पसंख्यक हैं। उन्हें स्वयं की संस्कृति का आनंद, अपनी भाषा प्रयोग करने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।’ कर्नाटक के लिंगायत व वीर शैव समूह सभी क्षेत्रों में अग्रणी हैं। वे अपनी भाषा, संस्कृति के साथ ही भारतीय संस्कृति और संविधानवाद में भी सक्रिय भागीदार हैं। आखिरकार वे अल्पसंख्यक क्यों हैं?

अल्पसंख्यकवाद के कारण देश विभाजित हुआ

संविधान सभा ने सरदार पटेल के सभापतित्व में अल्पसंख्यक अधिकार संबंधी समिति बनाई थी। सभा में पटेल समिति की रिपोर्ट पर (अगस्त 1947 व मई 1949) बहस हुई। पीसी देशमुख ने कहा, ‘इतिहास में अल्पसंख्यक से क्रूरतापूर्ण कोई शब्द नहीं है। अल्पसंख्यकवाद के कारण देश बंट गया।’ ए नागप्पा ने कहा, ‘अल्पसंख्यक हमारी स्वतंत्रता का मार्ग रोके हुए थे।’ सभा के उपाध्यक्ष एचसी मुखर्जी ने कहा, ‘यदि हम एक राष्ट्र चाहते हैं तो मजहब के आधार पर अल्पसख्ंयक मान्यता नहीं दे सकते।’ तजम्मुल हुसैन ने कहा, ‘हम अल्पसंख्यक नहीं हैं। यह शब्द अंग्रेजों का है, अब इसे हटा दिया जाए।’ पं. नेहरू ने कहा, ‘सभी वर्ग अपनी विचार प्रणाली अपनाकर गुट बना सकते हैं, लेकिन धर्म आधारित अल्पसंख्यक बहुसंख्यक वर्गीकरण नहीं किया जा सकता।’ कर्नाटक सरकार नेहरू के रास्ते से अलग है।

2013 की संप्रग सरकार ने लिंगायतों को अलग धर्म का दर्जा देने से इन्कार किया था

कुछ समय पहले राहुल गांधी भी मंदिरों में दर्शन कर रहे थे। वह जान लें कि 2013 की संप्रग सरकार ने लिंगायतों को अलग धर्म का दर्जा देने से इन्कार किया था। इससे इसी समूह की अनुसूचित जातियों को आरक्षण लाभ न मिलने का खतरा बताया गया था। लिंगायत समूह सुशिक्षित हैं। उद्योग, व्यापार आदि पर उनकी खासी पकड़ है। वे अपनी स्थानीय भाषा और संस्कृति का आनंद ले रहे हैं। वे शिक्षा क्षेत्र में भी प्रभावी हैं। शिक्षा क्षेत्र में अल्पसंख्यकों को मिलने वाली सुविधाओं ने इस मांग को बल दिया है। कांग्रेस ने इस मांग को बढ़ाया है। खतरा है कि इससे तमाम धर्मो की मांग उठेगी। कोई कहेगा कि हमारा तिलक माथे से बालों तक जाता है तो दूसरा कहेगा कि हम जनेऊधारी भिन्न हैं। सो अलग धर्म है, इसलिए अल्पसंख्यक हैं।

अल्पसंख्यक को लेकर राजनीति ने नया धर्म संकट पैदा किया

अल्पसंख्यक समुदाय शिक्षा संस्थाएं चलाते हैं। छात्र प्राय: उसी समूह के नहीं होते। 50-51 प्रतिशत सीटें उसी समुदाय के बच्चों के लिए आरक्षित हों। इनमें भी वंचित वर्गो को आरक्षण आदि की सुविधाएं मिलनी चाहिए। शिक्षा का अधिकार कानून अल्पसंख्यक संस्थाओं पर भी लागू हो। अल्पसंख्यकवाद घटाने का समय है। सुप्रीम कोर्ट ने बाल पाटिल वाद 2003 में ठीक कहा था, ‘संविधान निर्माताओं का अभिप्राय नहीं था कि धार्मिक अल्पसंख्यकों की सूची में कुछ और जोड़ा जाये। समता के अधिकार वाले समाज में बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक आदि वर्गो का उन्मूलन हो।’ लेकिन राजनीति नया धर्म संकट लाई है।

[ लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं ]