त्रिलोचन शास्त्री। मुफ्तखोरी की प्रवृत्ति किस तरह अप्रत्याशित रूप से बढ़ रही है, इसका एक प्रमाण यह है कि 2014 से अब तक 1.9 लाख करोड़ रुपये की कर्ज माफी की जा चुकी है। आम चुनाव से पहले केंद्र सरकार छोटे किसानों को सालाना 6,000 रुपये देने की योजना लेकर आई। इस योजना में सालाना 75,000 करोड़ रुपये खर्च होंगे। खाद्य, पेट्रोल और उर्वरक सब्सिडी की मद में 2.84 लाख करोड़ रुपये दिए ही जाते हैं। सत्ता में आने पर कांग्रेस भी प्रति गरीब परिवार लगभग 72,000 रुपये सालाना की न्यूनतम आय देने का वादा कर रही है।

साफ है कि सभी राजनीतिक दल समाज की भलाई के नाम पर मुफ्तखोरी का सहारा लेकर एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि इतना सारा पैसा कहां से आएगा? या तो करों को बढ़ाया जाएगा या फिर सरकारी घाटे में और वृद्धि होगी। अनुमान है कि राजकोषीय घाटा लगभग 8.5 लाख करोड़ रुपये होगा, जो 6.24 लाख करोड़ रुपये के अनुमान से कहीं ज्यादा है। यह स्थिति तब है जब रिकॉर्ड जीएसटी संग्रह हुआ है। यदि हम सभी प्रकार की सब्सिडी जोड़ते हैं तो यह पिछले साल के 24.6 लाख करोड़ रुपये के वार्षिक राजस्व का लगभग 50 फीसद है। यह भी ध्यान रहे कि कई राज्य सरकारों के वित्तीय घाटे बदतर स्थिति में हैं। इस चर्चा में हमें एक महत्वपूर्ण मुद्दे को चिन्हित करने की आवश्यकता है। आम तौर पर गरीबों को दी जाने वाली सब्सिडी की ही बात होती है, लेकिन हमें उद्योगों और अमीर लोगों को दी जाने वाली सब्सिडी पर भी ध्यान देने की जरूरत है। यदि हम कर प्रोत्साहन की पुरानी परिभाषा की बात करें तो यह सब्सिडी पांच लाख करोड़ रुपये से अधिक हो जाती है।

हमारे यहां मुफ्तखोरी की प्रवृत्ति क्यों हैं? इस पर दो विरोधी विचार हैं। एक यह है कि बढ़ती असमानता, कुपोषण की स्थिति और खेती के संकट के साथ भारत एक गरीब देश है, इसलिए सब्सिडी की आवश्यकता पड़ती है। अन्य देशों में विशेष रूप से अमेरिका और यूरोप में कृषि सब्सिडी भारत की तुलना में बहुत अधिक है। ऐसे में सवाल उठता है कि यह व्यवस्था एक गरीब देश में क्यों न हो? दूसरा दृष्टिकोण यह है कि हम इसे वहन नहीं कर सकते हैं, हमारा वित्तीय घाटा बहुत अधिक है और सब्सिडी के जरिये हम समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते। सब्सिडी लोगों को आलसी बनाती है और काम के प्रति लगन को खत्म करने का काम करती है। यह बहस कभी किसी निर्णायक नतीजे पर नहीं पहुंच सकती, क्योंकि भारत कैसा हो, इसे लेकर सबके अपने अपने दृष्टिकोण हैं।

इस सबके बावजूद विपरीत विचारधारा वाले राजनीतिक दल लोक-लुभावन वादे करने में एक-दूसरे से जमकर प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। क्या दक्षिणपंथी क्या वामपंथी और क्या मध्यमार्गी, सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने के लिए सभी को यह तरीका आसान लगने लगा है। इसके तहत पीडीएस यानी सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सस्ता राशन दिया जाता है, मुफ्त मोबाइल फोन, कुकिंग गैस कनेक्शन के साथ राज्य और केंद्र सरकारों द्वारा कर्ज माफी के हथकंडे भी अपनाए जाते हैं। अब तो गरीब परिवारों के खातों में सीधे रुपये भेजा जा रहा है।

चुनाव के समय में मुफ्त की बंदरबांट का उपयोग नाटकीय रूप से बढ़ रहा है। दिखाया तो यह जाता है कि इसके पीछे जन कल्याण की मंशा है, लेकिन इसके पीछे वास्तविक मंशा सरकारी पैसों से वोट खरीदने की होती है। क्या यह उचित है? हमें सभी प्रासंगिक तथ्यों के साथ-साथ कुछ अंतरराष्ट्रीय उदाहरणों का उपयोग करके एक सार्वजनिक बहस करने की आवश्यकता है। भले ही हम एक आम सहमति तक न पहुंचें, लेकिन समाज को जागृत तो कर ही सकते हैं। हमें अपने आप से कुछ सवाल जरूर करने चाहिए। जैसे कौन से व्यय उचित हैं और कौन से नहीं? उदाहरण के लिए, सार्वजनिक धन का उपयोग करके तरह-तरह के गैजेट मुफ्त वितरित करना कहां उचित है?

हमने मुफ्तखोरी के प्रभाव का शायद ही कभी अध्ययन किया है। हमने कभी किसी राजनीतिक दल से यह नहीं पूछा कि वह कौन सा स्नोत है, जहां से लोक-लुभावन वादे पूरे किए जाएंगे? सरकार द्वारा उपयोग किया जाने वाला धन जनता का धन है और चुनावी उन्माद के दौरान हमें यह पता ही नहीं चल पाता कि धन कहां से आने वाला है? इस बीच सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में 12,50,000 करोड़ रुपये के एनपीए के साथ बैंकिंग प्रणाली दबाव में है। यह भी लोगों का पैसा है।

भारतीय चुनाव शायद दुनिया में सबसे अधिक प्रतिस्पर्धी हैं। लोकसभा में कम से कम एक सीट के साथ लगभग 34 राजनीतिक दल हैं। यह किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक है। ऐसे में यह स्वाभाविक है, इस तरह की प्रतियोगिता होगी और एक बड़ी आबादी (जो गरीबी रेखा से नीचे है) को लोक-लुभावन वादों से आकर्षित करने की कोशिश होगी। सुभाष चंद्र बोस ने कहा था कि तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा। आज हमारे नेता कहते हैं, तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हें मुफ्त में तमाम चीजें या सुविधाएं दूंगा। ध्यान रहे कि चुनाव के दौरान उम्मीदवार पैसे, शराब और विभिन्न किस्म के उपहार बांटते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दलों के लोक-लुभावन वादों का संज्ञान तो लिया, लेकिन साथ ही यह भी कहा कि यह नीतिगत मामला है और वह इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता। हमें किसी भी समाधान के लिए कुछ सिद्धांतों का पालन करने की आवश्यकता है। सबसे पहले तो किसी भी लोक- लुभावन घोषणा करने से पहले राजनीतिक दलों को यह बताना चाहिए कि पैसा कहां से आएगा? हमें पिछली लोक- लुभावन योजनाओं के प्रभाव का अध्ययन भी करना चाहिए और इस क्रम में यह भी देखना चाहिए कि उन्होंने नीतिगत उद्देश्यों को प्राप्त किया या नहीं? यदि नहीं, तो यह स्पष्ट रूप से लोक-लुभावन वादे वोट पाने के लिए किए गए।

हमें उन दिशानिर्देशों को विकसित करने की आवश्यकता है जो मुफ्तखोरी के तौर पर स्वीकार्य हैं। इनमें भुखमरी, कुपोषण, प्राथमिक शिक्षा, काम करने का अधिकार जैसी चीजें शामिल हैं, जिनसे बहुत लोग सहमत होंगे। मुफ्त मोबाइल फोन, लैपटॉप और टैबलेट दूसरी श्रेणी में आते हैं। अगर हम अपने पैसे का सही प्रबंधन नहीं करते और वोटों के लिए अंधाधुंध लोक-लुभावन वादे करते हैं तो हम केवल अपनी अर्थव्यवस्था को ही नुकसान नहीं पहुंचा रहे हैं, लोकतंत्र को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं। मतदाता बेहतर प्रशासन की तलाश कर रहे हैं, लोक-लुभावन योजनाओं की नहीं।

(लेखक एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के संस्थापक चेयरमैन हैं)