[ ए रहमान ]: इस वक्त देश का राजनीतिक वातावरण पूरी तरह गरमाया हुआ है। नेताओं की हर गतिविधि को आगामी आम चुनाव से जोड़कर ही देखा जा रहा है। उर्दू समाचार पत्र ‘इंकिलाब’ में छपी खबर ‘कांग्रेस मुसलमानों की पार्टी है’ को लेकर जो राजनीतिक कोलाहल शुरू हुआ वह थमता नहीं दिखाई दे रहा। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इस पूरे घटनाक्रम से कांग्रेस को भी नुकसान हुआ और मुसलमानों को भी।

कांग्रेस ने अधिकारिक तौर से एलान किया था कि राहुल गांधी मुस्लिम बुद्धिजीवियों से मिलकर बात करेंगे। कांग्रेस ने हमेशा कमजोर तबकों और अल्पसंख्यकों का मसीहा होने का दावा किया है, लेकिन इसकी कोई तफसील सामने नहीं आई कि सिर्फ ‘मुस्लिम बुद्धिजीवियों’ को बुलाकर उनसे किन मुद्दों पर बात की जाएगी। ऐसे में यह देखना महत्वपूर्ण हो जाता है कि पार्टी के अल्पसंख्यक सेल ने किन लोगों को ‘बुद्धिजीवी’ और मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधि समझा। जो सूची जारी की गई उसमें जावेद अख्तर, शबाना आजमी और शबनम हाशमी इत्यादि के नाम भी थे, लेकिन इनमें से कोई उस बैठक में शामिल नहीं था।

मुसलमानों के संदर्भ में आजकल जो मुद्दे गर्म हैं उनमें तीन तलाक का विधेयक है, जिसे अभी राज्यसभा से पारित होना है। इसके अलावा निकाह हलाला और बहुविवाह का मसला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। सबसे महत्वपूर्ण मुस्लिम महिलाओं का सशक्तीकरण है, जिस पर बहुत काम होना शेष है। बड़े हैरत की बात है कि जमीयत-ए-उलमा जमात-ए-इस्लामी, मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरत और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से किसी को भी इस बैठक में आमंत्रित नहीं किया गया। अच्छी-बुरी जैसी भी हैं, यही संस्थाएं मुस्लिम दृष्टिकोण और भारतीय मुसलमानों की समस्याएं जनता और सरकार के सामने लाती हैं। यही मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व करती हैं।

कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि राजीव गांधी ने शाहबानो मामले में उलमा से दिल लगाकर बड़ी चोट खाई थी इसलिए राहुल अपने पिता के तल्ख तजुर्बे को देखते हुए मुल्ला-मौलानाओं से दूरी बनाकर चल रहे हैैं, लेकिन यह धारणा सही नहीं। यह कहना कि राजीव गांधी ने मुसलमानों का तुष्टीकरण करने का प्रयास किया, बिल्कुल गलत है।

मुसलमानों को सबसे अधिक नुकसान तो राजीव गांधी के हाथों ही तब पहुंचा जब सुप्रीम कोर्ट से शाहबानो केस पर फैसला आने के बाद मुसलमानों और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को ख़ुश करने के लिए राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिलाओं का सशक्तीकरण करने वाले इस फैसले को निरस्त कर दिया। इस धर्मनिरपेक्ष फैसले को निरस्त करने के लिए राजीव सरकार ने मुस्लिम महिला संरक्षण संबंध अधिनियम बनाकर मुस्लिम समुदाय को सौ साल पीछे धकेल दिया।

राहुल की बैठक में जो 10-12 मुसलमान ‘बुद्धिजीवी’ पहुंचे उनमें से अधिकतर एक-दूसरे से परिचित भी नहीं थे और उन्हें राहुल एवं एक-दूजे से परिचित कराने का काम सलमान ख़ुर्शीद ने अंजाम दिया। इस बैठक का एजेंडा तय न होने के कारण काफी समय तक लोग यह फैसला नहीं कर सके कि बात कहां से और किस मुद्दे से शुरू की जाए। इस बैठक में शामिल रहे मेरे एक दोस्त के मुताबिक डेढ़ घंटे तक सिवाय गप्पें मारने के कोई खास बात नहीं हुई। उन्होंने जब एएमयू और उर्दू जैसे विषयों पर बात करनी चाही तो इरफान हबीब (एएमयू के इतिहासकार नहीं) ने उन्हें यह कह कर रोक दिया कि हम यहां सेक्युलर विषयों पर बात करेंगे। इस पर हैरान थे कि अगर सेक्युलर विषय पर बात करनी थी तो केवल मुसलमानों को ही क्यों आमंत्रित किया गया? चूंकि बैठक का कोई एजेंडा नहीं था इसलिए कोई प्रस्ताव भी पास नहीं हुआ। जो दो-चार बातें मुसलमानों के पिछड़ेपन को लेकर हुईं उसी सिलसिले में राहुल ने कथित तौर पर कहा, ‘हां, मुसलमान कांग्रेस को अपनी पार्टी समझें।’ जाहिर है कि इसी आधार पर खबर छपी और उसे लेकर हंगामा मचा।

इस बैठक की पृष्ठभूमि भी समझनी होगी। पिछले दिनों सलमान ख़ुर्शीद ने यह बयान देकर सनसनी फैला दी थी कि कांग्रेस के हाथ मुसलमानों के खून से रंगे हुए हैं। पार्टी ने फौरन इस बयान से ख़ुद को अलग कर लिया। इसके बाद यहां तक कहा जाने लगा कि अब खुर्शीद का राजनीतिक भविष्य अंधेरे में चला गया, लेकिन बाद में उनसे कहा गया कि मुसलमानों को कांग्रेस के करीब लाने का प्रयास करें। इसी सिलसिले में खुर्शीद ने पार्टी के अल्पसंख्यक विभाग के अध्यक्ष नदीम जावेद को एक सूची देकर कहा कि इन लोगों को राहुल जी से मुलाकात के लिए आमंत्रित किया जाए। इस सूची में अबू सालेह, फराह नकवी और रक्षांदा जलील के अलावा कोई नाम ऐसा नहीं जिसने मुसलमानों की समस्याओं पर अध्ययन किया हो। ऐसा तो एक भी नहीं था जिसे मुसलमान अपना नेता या प्रतिनिधि मानते हों।

पिछले 10-15 साल में कांग्रेस और मुसलमानों के रिश्ते में जो बदलाव आया है वह किसी से छिपा नहीं है। पढ़े-लिखे मुसलमान इस बात को भली-भांति समझने लगे हैं कि कांग्रेस ने हमेशा मुसलमानों से झूठे वादे किए। मुसलमानों को जितने भी बड़े-बड़े नुकसान हुए वे कांग्रेस के राज में ही हुए। राजनीतिक दृष्टि से कांग्रेस ने मुसलमानों का यही बड़ा नुकसान किया कि उसने मुस्लिम नेताओं को आगे बढ़ाने के बजाय उन्हें मनोनीत किया। कांग्रेस अल्पसंख्यक सेल के प्रमुख नदीम जावेद ही एक उदाहरण हैं। हो सकता है पार्टी में उनका ऊंचा कद हो, लेकिन अल्पसंख्यक सेल का अध्यक्ष बनाए जाने से पहले उन्हें आम मुसलमान जानते नहीं थे। नेता तो वही हो सकता है जो समाज या समुदाय में गहरी जड़ें रखता हो। कांग्रेस ने हमेशा खुद अपने चुने हुए नेताओं को मुसलमानों पर थोपा है।

हालांकि इंकिलाब में खबर छपने के बाद कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं ने खंडन किया, लेकिन जावेद ने पुष्टि करते हुए कहा कि राहुल जी ने साफ कहा था कि कांग्रेस कमजोर और दबे हुए लोगों की पार्टी है और मुसलमान भी कमजोर और दबे हुए हैं इसलिए कांग्रेस उनकी भी पार्टी है। इस स्पष्टीकरण ने मुसलमानों को खुश कर दिया हो, ऐसा बिल्कुल नहीं है और इसका एक कारण तो यही है कि राहुल से मिलने वाले मुस्लिम नेता नहीं थे। दूसरा बड़ा कारण यह है कि आम मुसलमानों ने इस बैठक को 2019 में होने वाले आम चुनाव में मुस्लिम वोट हासिल करने की कांग्रेस की रणनीति के तौर पर ही देखा।

मुसलमानों को यह शिकायत हमेशा रही है कि उन्हें हर पार्टी केवल वोट के तौर पर ही देखती है। सच यह है कि मुसलमान इस बैठक का न तो मतलब समझ पाए और न ही मकसद। यही कारण है कि इतना बड़ा सियासी हंगामा होने पर भी मुसलमानों की तरफ से कोई खास प्रतिक्रिया नहीं आई। आम मुसलमानों का साथ कांग्रेस को तब मिल सकता है जब वह उनकी समस्याओं के समाधान को अपना चुनावी मुद्दा बनाए और इसी आधार पर मुसलमानों से वोट मांगे। मुस्लिम समाज के कथित नेताओं और बुद्धिजीवियों से राहुल गांधी की मुलाकात कराकर यह तो हो सकता है ख़ुर्शीद ने अपनी स्थिति ठीक कर ली है, लेकिन इस मुलाकात से आम मुसलमानों को कुछ नहीं मिला।

[ लेखक आलमी उर्दू ट्रस्ट के अध्यक्ष हैं ]