[डॉ. विजय अग्रवाल]। कहते हैं कि जब चंडीगढ़ शहर बनकर तैयार हुआ तो उर्दू के शायर बशीर बद्र ने फरमाया- ‘कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो तुम मिलोगे तपाक से। यह जरूरी जहनिनों (बुद्धिमानों) का शहर है, जरा फासले से मिला करो।’ फिलहाल कोरोना वायरस के संक्रमण के चलते पूरी दुनिया में ‘सोशल डिस्‍टेंसिंग का हल्ला है। हिंदी में इसे सामाजिक दूरी कहा-समझा गया, लेकिन वास्तव में बात शारीरिक दूरी यानी फिजिकल डिस्टेंसिंग की हो रही थी।

सामाजिक नहीं शारीरिक दूरी है जरूरी

यह अच्छा है कि धीरे-धीरे लोगों ने यह समझा कि सामाजिक नहीं, शारीरिक दूरी की बात हो रही है। बाद में प्रधानमंत्री ने भी दो गज देह की दूरी के तौर पर इसकी व्‍याख्‍या की और फिजिकल डिस्टेंसिंग शब्द का भी प्रयोग किया। कई बुद्धिजीवियों का मानना है कि शारीरिक दूरी का पालन हमेशा के लिए करना होगा। उनके मुताबिक लंबे लॉकडाउन ने लोगों के व्यवहार को इतना बदल दिया है कि फिजिकल डिस्टेंसिंग उनकी आदतों में शामिल हो गई है। इस आधार पर उनकी भविष्यवाणी है कि आने वाले वक्त में व्यापार, कला, मनोरंजन, खेल और जीवन की वे सभी विधाएं प्रभावित होंगी जिनमें लोग एक साथ एकत्र होते हैं।

समाज के अंत की आशंका

इसी आधार पर कुछ तो ‘समाज के अंत’ की आशंका जता रहे हैं। यह पहला अवसर नहीं है, जब इस तरह के किसी स्थापित स्वरूप के अंत की घोषणा की गई है। ऐसा पहले भी हुआ है और कई-कई क्षेत्रों के लिए हुआ है। बेहतर होगा कि हम अपने भविष्य को अतीत की खिड़की से झांककर समझने की एक छोटी-सी व्यावहारिक कोशिश करें। विज्ञान द्वारा बढ़ाई गई जीवन की गति और मध्य वर्ग की तेजी से हो रही वृद्धि को देखते हुए अमेरिकी लेखक लेसली फिल्डर ने 20वीं सदी के उत्तरार्ध में ‘उपन्यास के अंत’ की घोषणा की थी। जर्मनी के थियोडोर अडोर्नो ने, जो एक समाजशास्त्री विचारक थे, ने कहा था कि हिटलर के यातना शिविरों के बाद कविता लिखना असंभव है। फ्रांस के रोलां बार्थ तो अपने समय की रचनात्मकता से इतने अधिक खिन्न थे कि उन्होंने सीधे-सीधे ‘लेखक की मृत्यु’ की ही घोषणा कर डाली थी। जब 1991 में सोवियत संघ 16 देशों में विभाजित हुआ तो अमेरिकी राजनीतिक विचारक फुकुयामा ने इसे समाजवादी विचारों की समाप्ति के संदर्भ में ‘इतिहास का अंत’ घोषित कर दिया था। इस तरह की घोषणाओं की एक लंबी सूची है। एक व्यावहारिक सवाल है कि आखिर इनमें से किसका अंत हुआ? तो क्या सामाजिक मेल-मिलाप का अंत हो जाएगा?

अरस्‍तू ने कहा- ‘मनुष्‍य सामाजिक प्राणी है’

आज से सैकड़ों साल पहले यूनान के महान दार्शनिक अरस्तू ने मनुष्य के स्वभाव का गहन अध्ययन करने के बाद घोषणा की थी कि मूल प्रवृत्ति के रूप में मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मानव जाति की जंगली अवस्था से लकर वर्तमान वैश्वीकरण तक की यात्रा के केंद्र में उसकी यही मूल प्रवृत्ति निरंतर काम करती रही है। कुछ समाज, विशेषकर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के यूरोपीय समाज युद्ध के विनाश से इतने हताश हुए कि उन्होंने अपने अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगाने की प्रक्रिया में स्वयं को शेष से काटकर अलग-थलग कर लिया। इस तरह के विचार को अस्तित्ववाद कहा गया, लेकिन इसकी जड़ें न तो ज्यादा जम पाईं और न ही फैल पाईं। फिर भी कुछ वर्ग-विशेष ने इस दर्शन को अपनाया। इसकी झलक अमेरिका, कनाड़ा एवं पश्चिमी यूरोप के देशों के विशेषकर नगरीय क्षेत्रों में देखी जा सकती है। इसके फलस्वरूप परिवार नामक मूलभूल इकाई तक बिखर गई और वहां के लोग जिस मानसिक विकारों का सामना कर रहे हैं उसे इन देशों के साहित्य और सिनेमा में बखूबी देखा जा सकता है।

भारत के डीएनए में है ‘सामूहिकता’

जहां तक भारत का सवाल है, इसके डीएनए में ही सामूहिकता है, जिसे हम सर्वे भवंतु सुखिन: और वसुधैव कुटुंबकम जैसे वाक्यों में अनुभव कर सकते हैं। हमारे जीवन की शायद ही कोई प्रथा, परंपरा, उत्सव, विधान एकांतिकता में संपन्न होते हैं, सिवाय ध्यान के। हमने इसे जिया है और राजनीति एवं धर्म के सैकड़ों झंझावातों के बावजूद एक छोटे-से व्यवधान के बाद उसे पुनर्जीवित करके बनाए रखा है। सामूहिकता में जीना हमारे जीवन की कोई एक संरचना मात्र नहीं है, यह अपने-आप में हमारा जीवन ही है।

मूल स्‍वभाव के खिलाफ है ‘डिस्‍टेंसिंग’

जिन्हें लगता है कि अब सामूहिकता खत्म हो जाएगी उन्हें 1918 के स्पेनिश फ्लू के दौर के बारे में थोड़ा जानने की कोशिश करनी चाहिए। उस समय न तो चिकित्सा विज्ञान इतना आगे था और न ही अन्य वैज्ञानिक उपकरण, जितने कि आज हमारे पास हैं। आज पूरी दुनिया कोरोना के टीके की खोज में जुटी हुई है, जिस क्षण यह टीका मिल जाएगा उसी क्षण डिस्टेंसिंग का अंत हो जाएगा, क्योंकि यह मनुष्य के मूल स्वभाव के एकदम खिलाफ है। या तो हम इस कोरोना वायरस के असर को खत्म कर देंगे या फिर अपने अंदर इसके साथ जीने की क्षमता पैदा कर लेंगे। हमने पहले भी ऐसा किया है और अभी भी ऐसा कर लेंगे। क्या कोरोना वायरस में इतनी शक्ति है कि वह हमारे जीवन की विराट एवं अदम्य जिजीविषा का दमन कर दे? अतिथि को देव मानने वाली चेतना क्या सच में मेहमान को घर में प्रवेश देने से इनकार कर सकेगी? ऐसा कुछ नहीं होगा। ऐसा होने की भविष्यवाणी तत्काल नकारात्मक स्थितियों से आक्रांत मानसिकता की प्रतिक्रिया से अधिक कुछ मालूम नहीं पड़ती। नि:संदेह आज फिजिकल डिस्टेंसिंग की आवश्यकता और उसकी पूर्ति की जानी चाहिए, लेकिन यह भी ध्यान रहे कि मानव जाति फीनिक्स पक्षी की तरह है, जो राख से पुनर्जीवित होकर उठने की क्षमता रखती है। यह क्षमता बनी रहेगी। मनुष्य पर अपना विश्वास बनाए रखें।

(लेखक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं)