[ संजय गुप्त ]: पाकिस्तान में स्थित सिखों के पवित्र तीर्थ करतारपुर साहिब केलिए भारत सरकार द्वारा गलियारा बनाने की पहल से समस्त सिख समुदाय का खुश होना लाजिमी है। सबसे पहले इस गलियारे की पेशकश अटल बिहारी वाजपेयी ने तब की थी जब वह बस से लाहौर गए थे। चूंकि पाकिस्तान ने भी भारत की इस घोषणा के उपरांत अपनी तरफ गलियारा बनवाने की बात कही इसलिए एक सकारात्मक माहौल बना। दोनों ही तरफ इस गलियारे की स्थापना के लिए शिलान्यास कार्यक्रम आयोजित किए गए, लेकिन इससे दोनों देशों के बीच तल्खी कम होती नहीं दिखी। भारत और पाकिस्तान के रिश्ते 1947 के बाद से ही खराब रहे हैैं। पाकिस्तान ने भारत पर तीन युद्ध थोपे। तीनों में पराजित होने के बाद उसने कश्मीर में आतंकवाद फैलाना शुरू किया और कारगिल में घुसपैठ की जो एक तरह के युद्ध में तब्दील हुआ। इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते कि पाकिस्तान ने एक समय पंजाब में खालिस्तानी अलगाववाद को बढ़ावा दिया और उसे हिंसा की आग में झोंका। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान भले ही कुछ भी कहें, लेकिन यह एक सच्चाई है कि पाकिस्तानी सेना और उसकी खुफिया एजेंसी आइएसआइ अपने भारत विरोधी रवैये का परित्याग करने के लिए तैयार नहीं दिख रही।

भारत विभाजन ने दोनों देशों के लोगों को ही अलग नहीं किया, बल्कि उनके नाते-रिश्तेदारों के साथ तमाम धार्मिक स्थल भी बांट दिए। करतारपुर साहिब इनमें से एक है। इसकी महत्ता इसलिए अधिक है, क्योंकि गुरुनानक देवजी ने यहां अपने जीवन के 18 साल बिताए। करतारपुर गलियारा बनाने की घोषणा के बाद जम्मू-कश्मीर से यह मांग उठी है कि हिंदुओं के तीर्थस्थल शारदा पीठ तक भी एक गलियारा बनना चाहिए। करतारपुर गलियारे के मामले में बर्लिन की दीवार का भी जिक्र किया गया, लेकिन यह दीवार तो दोनों देशों के लोगों की पहल पर गिरी थी। यदि भारत और पाकिस्तान के लोगों के बीच संपर्क-संवाद बढ़े तो हालात बदल सकते हैैं, लेकिन इस दिशा में आगे इसलिए नहीं बढ़ा जा पा रहा है, क्योंकि पाकिस्तानी सेना भारत को अपने लिए सबसे बड़ा खतरा मानने पर तुली हुई है।

इमरान खान ने संबंध सुधार की बातें करते हुए यह कहा कि अगर युद्ध में उलझने के बाद फ्रांस और जर्मनी शांति से रह सकते हैैं तो भारत और पाकिस्तान क्यों नहीं रह सकते, लेकिन वह यह भूल रहे हैैं कि ये देश आतंकी भेजने का काम नहीं कर रहे थे। चूंकि दोनों देशों की संस्कृति, भाषा और खान-पान एक जैसा है इसलिए बार-बार यह कहा जाता है कि आखिर दोनों देशों में दोस्ती क्यों नहीं हो सकती, लेकिन जैसे यह एक सच्चाई है कि दोनों देशों की दोस्ती में कश्मीर समस्या एक बड़ी बाधा बना हुआ है वैसे ही यह भी कि पाकिस्तान विभाजन के पहले ही दिन से कश्मीर को जोर-जबरदस्ती से हासिल करने की कोशिश करता चला आ रहा है। उसकी यह कोशिश एक सनक में तब्दील हो गई है। वह बीते करीब तीन दशक से कश्मीर में अलगाव और आतंक को हवा दे रहा है। अभी भी उसके यहां प्रशिक्षित आतंकी पाकिस्तानी सेना के सहयोग और समर्थन से कश्मीर में घुसपैठ कर रहे हैैं। हाल में पंजाब में निरंकारियों पर हुए हमले के पीछे आइएसआइ का हाथ माना जा रहा है। शायद इसी कारण विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा कि करतारपुर गलियारे पर सहयोग का यह मतलब नहीं कि पाकिस्तान से द्विपक्षीय मसलों पर बातचीत शुरू होने जा रही है। उन्होंने पाकिस्तान में लंबित दक्षेस सम्मेलन में भारत की भागीदारी से भी इन्कार किया।

करतारपुर साहिब में इमरान खान ने कश्मीर का जिक्र करते हुए यह भी कह दिया कि वह पूर्व में की गई गलतियों के लिए जिम्मेदार नहीं। उन्होंने ऐसा कहकर अंतरराष्ट्रीय कूटनीति कोे एक नया आयाम देने की कोशिश की। उनके इस विचित्र बयान से यही संकेत मिला कि वह न तो पूर्व की गलतियां ठीक करने का इरादा रखते हैैं और न ही अपनी सेना की भारत विरोधी नीति पर गौर करने को तैयार हैैं। यह एक तथ्य है कि पाकिस्तानी सेना और उसकी खुफिया एजेंसी कश्मीर में आतंकियों की खेप अभी भी भेज रही है। यही काम अफगानिस्तान में भी किया जा रहा है और इसी कारण अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड उसे बार-बार चेता रहे हैैं।

ट्रंप पाकिस्तान की आर्थिक सहायता भी रोक रहे हैैं, फिर भी वह यही राग अलाप रहा है कि वह तो खुद ही आतंकवाद से पीड़ित है। वह लश्कर, जैश, हिजबुल, तालिबान जैसे न जाने कितने संगठनों को संरक्षण देने में लगा हुआ है। ये संगठन पाकिस्तान की विदेश और सुरक्षा नीति का हिस्सा बन गए हैैं। चंद दिन पहले 26 नवंबर को मुंबई हमले की दसवीं बरसी थी, लेकिन पाकिस्तान ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और वह भी तब जब भारत के साथ अमेरिकी राष्ट्रपति ने उसे यह याद दिलाया कि इस भीषण आतंकी हमले के गुनहगार अभी भी सजा से दूर हैैं। क्या इमरान खान इस हमले के गुनहगारों को दंडित करना अपनी जिम्मेदारी नहीं समझ रहे हैैं? अगर वह इन गुनहगारों को दंडित नहीं करते तो इसका यही मतलब होगा कि वह आतंकवाद के साथ हैैं। भारत इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकता कि पाकिस्तान किस तरह मसूद अजहर और दाऊद इब्राहिम को संरक्षण दे रहा है।

पाकिस्तान भारत से संबंध सुधार को लेकर गंभीर नहीं, यह इससे भी पता चला कि उसने करतारपुर साहिब में उस गोपाल सिंह चावला को बुला लिया जिसके बारे में सब जानते हैैं कि वह खालिस्तान समर्थक है और हाफिज सईद की पैरवी करता है। चावला के साथ पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष की मुलाकात से तो यही लगा कि पाकिस्तान मौके की नजाकत को लेकर गंभीर नहीं था। इसी चावला के साथ अपनी फोटो पर क्रिकेटर से नेता बने और पंजाब सरकार के मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू ने जो सफाई दी उससे उनकी बेपरवाही का ही पता चला। उन्होंने उस हकीकत से भी मुंह चुराया जिसे पंजाब के मुख्यमंत्री अर्मंरदर सिंह ने बयान किया था। उनके अनुसार सिद्धू मना करने के बाद भी पाकिस्तान गए। व्यक्तिगत हैसियत से पाकिस्तान जाने के बाद भी उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए था कि वह मंत्री हैैं और वहां पंजाब सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर देखे जा रहे। उन्हें यह समझ आए तो बेहतर कि उनकी जुमलेबाजी से पाकिस्तान से संबंध नहीं सुधर सकते।

फिलहाल इसकी उम्मीद नहीं की जाती कि पाकिस्तान मुंबई हमले अथवा पठानकोट हमले के गुनहगारों को दंडित करने के लिए कुछ करेगा। इसके भी कहीं कोई आसार नहीं कि वह कश्मीर में आतंकवाद भड़काने से बाज आएगा। अगर पाकिस्तान आतंकियों को संरक्षण देना जारी रखता है तो उसे इसके दुष्परिणाम भुगतने पड़ेंगे। आतंकवाद को प्रश्रय देने के कारण उस पर पहले से ही कई तरह के दबाव हैैं। वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ी हद तक अलग-थलग पड़ रहा है और साथ ही आर्थिक रूप से कमजोर पड़ता जा रहा है। हालांकि तमाम अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों की निगाह में वह एक विफल राष्ट्र बनता जा रहा है, फिर भी उसके नेता अपनी हेकड़ी दिखाने से बाज नहीं आ रहे।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]