हर्ष वी. पंत। पाकिस्तान की तरह उसकी सेना के दिन भी इस समय बहुत अच्छे नहीं चल रहे। चुनाव नतीजे तो यही संकेत कर रहे हैं कि देश पर सेना की पकड़ कमजोर पड़ती जा रही है। ऐसी भरी-पूरी आशंका है कि नतीजों को अपनी मंशा के अनुरूप मोड़ने के लिए सेना कोई भी तिकड़म कर सकती है। यह बात और है कि जनभावनाओं को नकारने से सेना के लिए जोखिम और बढ़ेंगे।

अभी तक के चुनावी रुझान सेना के साथ ही पाकिस्तान के पारंपरिक स्थापित राजनीतिक दलों के लिए भी बड़ा झटका हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि पाकिस्तान की असल कमान हमेशा सेना के हाथ में रही है। सेना समय-समय पर अपने फायदे के लिहाज से राजनीतिक मोहरे चुनती आई है। पिछले चुनाव में वह इमरान खान के पीछे खड़ी थी और तब इमरान पहली बार प्रधानमंत्री बनने में सफल भी हुए। फिर इमरान के साथ खटपट हुई तो उनके विरोधी दलों को एक मंच पर लाकर सेना ने उनकी गठबंधन सरकार गठित करा दी।

पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल आसिम मुनीर की इमरान खान से तकरार जगजाहिर है और उन्होंने यह सुनिश्चित करने के पूरे उपाय किए कि इमरान और उनकी पार्टी किसी भी सूरत में सत्ता की दहलीज तक न पहुंचे, लेकिन चुनावी रुझान उसके कुछ उलट दिख रहे हैं। अगर अंतिम परिणाम बहुत ज्यादा नहीं बदलते तो फिर यह सेना और अन्य दलों के लिए अपमान का कड़वा घूंट पीने जैसा होगा। स्थिति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार माने जा रहे नवाज शरीफ एक निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव हार गए।

सेना ने इमरान खान को घेरने के लिए तगड़ी व्यूह रचना की थी। उन्हें तमाम मुकदमों में फंसा दिया गया। कुछ मामलों में उन्हें सजा भी हो गई। वह चुनाव लड़ने के लिहाज से अयोग्य हो गए। उनकी पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ यानी पीटीआइ का चुनाव चिह्न ‘क्रिकेट बैट’ जब्त कर लिया गया। इसका अर्थ था कि पीटीआइ चुनाव में आधिकारिक उम्मीदवार उतारने की स्थिति में नहीं रही।

इमरान की पार्टी के तमाम बड़े नेता पार्टी छोड़कर चले गए। जो नेता बचे भी रह गए तो सेना के दबाव में उनकी सक्रियता सीमित रह गई। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी यदि पीटीआइ समर्थित निर्दलीय प्रत्याशी इतनी भारी संख्या में जीतकर आ रहे हैं तो यह सेना और अन्य राजनीतिक दलों के लिए कड़ा संदेश है। यह न केवल इमरान खान की नैतिक जीत, बल्कि पाकिस्तान के चरित्र में आ रहे परिवर्तन का भी बड़ा संकेत है।

यह दर्शाता है कि पाकिस्तान की जनता सेना के राजनीतिक हस्तक्षेप और पारंपरिक राजनीतिक दलों के रवैये से निराश हो चुकी है। वह अपने पड़ोस में भारत को तरक्की करते हुए और विश्व की एक बड़ी शक्ति के रूप में स्थापित होते देख रही है। भारत में राजनीति जहां आरंभ से ही सैन्य प्रभाव से मुक्त रही है, वहीं इस समय जिस प्रकार भ्रष्टाचार और वंशवादी राजनीति के विरुद्ध अभियान छिड़ा हुआ है, उसने भी पाकिस्तानी अवाम को कुछ हद तक प्रेरित करने का काम किया है। भारत के प्रति शत्रुता भाव के बावजूद पाकिस्तान में इंटरनेट मीडिया पर तमाम सामग्री प्रधानमंत्री मोदी की सराहना से भरी होती है। कई विश्लेषक मोदी की प्रशंसा में यह कहते हुए दिखते हैं कि वह अपने मुल्क को सही दिशा में ले जा रहे हैं।

इस समय पाकिस्तान कई समस्याओं से जूझ रहा है। उसकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब है तो इसका असर अन्य मोर्चों पर भी पड़ रहा है। स्थिति ऐसी हो गई है कि तालिबान भी उसे आंखें दिखा रहा है। ईरान ने तो कुछ दिन पहले एक प्रकार का हवाई हमला कर दिया, जिससे पाकिस्तान को भारी शर्मिंदगी उठानी पड़ी। वहां सामाजिक एवं क्षेत्रीय स्तर पर तमाम विभाजन एवं विरोधाभास हैं। आंतरिक स्थायित्व नहीं है। यह सब देखकर पाकिस्तान की जनता का धैर्य जवाब दे रहा है।

इसी कारण पाकिस्तान में सेना के संरक्षण वाले स्थापित शासन ढांचे से जनता का मोहभंग हुआ है। परिणामस्वरूप पाकिस्तान के इतिहास में यह चुनाव एक बड़े बदलाव का वाहक बनता दिख रहा है। लोकतंत्र की कुछ कोंपलें फूटती दिख रही हैं। इसका श्रेय इमरान को देना होगा। जहां पाकिस्तान के अलग-अलग राजनीतिक दल और नेता कुछ प्रांतों तक ही अपनी पहचान एवं असर रखते हैं, उसके उलट उन्होंने पूरे देश में अपनी पहचान बनाने का प्रयास किया। उन्होंने सेना के खिलाफ खड़े होने का दमखम एवं जुझारूपन दिखाया कि वह किसी के आगे समर्पण नहीं करेंगे। उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान छेड़ने से लेकर अमेरिकी हस्तक्षेप जैसे उन मुद्दों को उठाया जो आम पाकिस्तानियों को प्रभावित करने वाले रहे।

फिलहाल जो स्थितियां बन रही हैं उसमें यदि अंतिम परिणाम सेना की मंशा के अनुरूप नहीं रहे तो उसके लिए आगे की राह बड़ी चुनौतीपूर्ण होगी। पीटीआइ समर्थित निर्दलीय सरकार बनाने में सफल होते हैं या नहीं, यह तो अभी दूर की बात है। इतना जरूर है कि ऐसे नतीजे सेना और पारंपरिक राजनीतिक दलों के लिए एक चेतावनी एवं खतरे की घंटी के समान होंगे कि अब जनता सब कुछ बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं।

यदि किसी तरह सेना ने तिकड़म कर अपने मन की सरकार गठित करा दी तो भी उसके लिए दोराहे जैसी स्थिति होगी। ऐसी कोई भी सरकार कमजोर होगी और तब सेना पूरी तरह पर्दे के पीछे रहकर उसे संचालित नहीं कर पाएगी। ऐसी स्थिति में उसे सक्रिय भूमिका में आगे आना होगा। एक ऐसा देश जो आइएमएफ जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के साथ वित्तीय पैकेज की बाट जोह रहा हो, उसके लिए ये स्थितियां अनुकूल नहीं कही जाएंगी। सेना की सक्रिय भूमिका से जनता में उसकी छवि और साख के साथ ही स्वीकार्यता भी प्रभावित होगी।

ऐसे में पाकिस्तान को यदि मौजूदा चुनौतियों से निपटना है तो उन सुधारों का सूत्रपात करना होगा, जो उसे आवश्यक स्थायित्व एवं संतुलन प्रदान करने की ओर ले जाएं। यह तय है कि सेना और सियासत वहां अलग-अलग नहीं रह सकते, लेकिन उनकी सीमाएं तो तय ही की जा सकती हैं कि वे अपने-अपने दायरे में रहकर काम कर सकें। भारत के लिहाज से भी यही अनुकूल होगा कि वहां सेना और राजनीतिक वर्ग में टकराव के बजाय सुसंगति हो, तभी उसके साथ कोई सार्थक वार्ता की जा सकती है।

(लेखक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में उपाध्यक्ष हैं)