[ राजीव सचान  ]: वह 22 मई 2005 का दिन था। वास्तव में दिन बीत चुका था और शाम भी ढल चुकी थी। आधी रात होने को थी, फिर भी मनमोहन सरकार की कैबिनेट बैठक हो रही थी। इस बैठक में बिहार विधानसभा भंग करने का फैसला लिया गया, क्योंकि वहां के राज्यपाल बूटा सिंह की सिफारिश थी कि राज्य में सरकार बनाने के लिए विधायकों की खरीद-फरोख्त हो रही है। कैबिनेट ने इस सिफारिश को स्वीकृति दे दी, लेकिन उसके फैसले पर राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की मुहर जरूरी थी। वह रूस के दौरे पर थे। उन्हें कैबिनेट की सिफारिश फैक्स की गई। चूंकि वह सो रहे थे इसलिए उन्हें जगाकर खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बताया कि तत्काल फैसला लेना क्यों आवश्यक है? कलाम ने अनिच्छा से अपनी सहमति दी। तब तक रात के तीन बज चुके थे। सुबह हुई तो देश को पता चला कि बिहार विधानसभा भंग हो चुकी है। जनता दल-यू, भाजपा समेत और अन्य दलों ने कहा-लोकतंत्र की हत्या कर दी गई।

इसके पहले भी हो चुका है लोकतंत्र का अनादर

जी हां, उक्त प्रसंग का उल्लेख यही स्मरण कराने के लिए है कि फड़णवीस के इस्तीफा देने के पहले तक जो लोग महाराष्ट्र के घटनाक्रम को लेकर लोकतंत्र की हत्या का शोर मचा रहे वे 2005 में लोकतंत्र की हत्या ही कर रहे थे। हमारे नेताओं को यह पता होना चाहिए कि यदि रात तीन बजे कोई विधानसभा भंग की जा सकती है तो सुबह साढ़े छह बजे कोई नई सरकार शपथ भी ले सकती है। यदि साढे छह बजे किसी सरकार का शपथ लेना लोकतंत्र का अनादर है तो रात तीन बजे सरकार बनने से रोकने के लिए विधानसभा भंग करना भी लोकतंत्र का अनादर ही था।

देर रात बिहार विस भंग करने के मामले में सुको ने राज्यपाल बूटा सिंह को फटकार लगाई थी

इसकी तो तब पुष्टि भी हो गई थी जब बिहार विधानसभा भंग करने के मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल बूटा सिंह को फटकार लगाई थी। इस फटकार पर मनमोहन सिंह सरकार इतनी शर्मसार थी कि उसने बूटा सिंह को हटाने में ही अपनी भलाई समझी। हालांकि महाराष्ट्र के मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के फैसले पर कोई विपरीत टिप्पणी नहीं की, लेकिन इसके बाद भी फड़नवीस सरकार को जिस तरह इस्तीफा देना पड़ा उससे साफ है कि उन्होंने ठोक-बजाकर फैसला नहीं लिया। यह समझना कठिन है कि सुबह साढ़े छह बजे शपथ ग्रहण समारोह के आयोजन की क्या जरूरत थी?

भाजपा ने बिना सोचे-समझे अजीत पवार पर भरोसा करके अपनी फजीहत कराई

फड़णवीस सरकार जिस तरह बमुश्किल तीन दिन ही चल सकी उससे यह स्पष्ट है कि भाजपा ने बिना सोचे-समझे अजीत पवार पर भरोसा करके मुसीबत तो मोल ली ही, अपनी फजीहत भी कराई। जब अजीत पवार देवेंद्र फड़नवीस के साथ आ खड़े हुए थे तब यह कहा गया था कि इसके पीछे शरद पवार की चाल हो सकती है। इससे अभी भी इन्कार नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह बात हजम नहीं होती कि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के जो विधायक सुबह भतीजे अजीत पवार के साथ थे वे शाम होते-होते चाचा शरद पवार संग कैसे चले गए? पता नहीं यह क्या खेल था और उसे कौन खेल रहा था, लेकिन फड़णवीस सरकार का जो हश्र हुआ उससे यह साफ है कि भाजपा ने कर्नाटक के प्रयोग से सबक नहीं सीखा। यह भाजपा ही बता सकती है कि उसे तीन दिन की सरकार बनाकर क्या हासिल हुआ, क्योंकि उसे सरकार से भी हाथ धोना पड़ा और इस तोहमत से भी दो-चार होना पड़ा कि उसने चोरी-चुपके सरकार बनाई।

शिवसेना के नेतृत्व में सरकार गठन का रास्ता साफ

फड़णवीस सरकार के इस्तीफा देने के साथ ही महाराष्ट्र में शिवसेना के नेतृत्व में सरकार गठन का रास्ता साफ हो गया है। अब शिवसेना के साथ कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी न केवल खुश हैैं, बल्कि वे लोकतंत्र की जीत का कथित अनुभव भी कर रही हैं, लेकिन आखिर यह लोकतंत्र की जीत कैसे है? क्या महाराष्ट्र की जनता ने इसके पक्ष में जनादेश दिया था कि शिवसेना भाजपा से अलग होकर कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाए?

बारी-बारी से मुख्यमंत्री को लेकर शिवसेना अड़ गई

जनादेश तो भाजपा-शिवसेना गठबंधन को मिला था, लेकिन शिवसेना को पता नहीं कैसे यह याद आ गया कि भाजपा ने उससे यह वादा कर रखा है कि दोनों दलों के नेता बारी-बारी से मुख्यमंत्री बनेंगे? यह झूठ था, लेकिन वह उसे दोहराने पर अड़ी रही। इसकी वजह उसका यह भरोसा ही था कि अगर उसने भाजपा से नाता तोड़ा तो उसकी धुर विरोधी कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी उसकी सरकार बनाने के लिए आगे आ जाएंगी। ऐसा ही हुआ, लेकिन शायद सब कुछ शिवसेना के मन मुताबिक नहीं हुआ और इसीलिए सरकार गठन में अनावश्यक देरी हुई।

यदि फड़णवीस सरकार ने शपथ नहीं ली होती तो शिवसेना गठबंधन अभी भी वार्ता कर रहे होते

यदि फड़णवीस सरकार ने आनन-फानन शपथ नहीं ली होती तो शायद शिवसेना, कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी अभी भी सरकार के रूप-स्वरूप को लेकर विचार-विमर्श ही कर रही होतीं। शिवसेना, कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी लोकतंत्र की चाहे जितनी दुहाई दें, इन तीनों दलों के बेमेल मेल से बनने वाली सरकार उतनी ही अनैतिक होगी जितनी तीन दिन की फड़नवीस सरकार थी।

शिवसेना ने 50-50 फार्मूले को ईजाद कर भाजपा से नाता तोड़ लिया था

महाराष्ट्र में अनैतिक सरकार बनने का रास्ता उसी दिन साफ हो गया था जिस दिन शिवसेना ने 50-50 फार्मूले को ईजाद कर भाजपा से नाता तोड़ लिया था। कायदे से चुनाव पूर्व गठबंधन तोड़ने के लिए शिवसेना को धिक्कारा जाना चाहिए था, लेकिन कथित सेक्युलर दलों ने न केवल उसे प्रोत्साहित किया, बल्कि उसे सेक्युलर होने का प्रमाण पत्र भी देना शुरू कर दिया। इससे अश्लील राजनीति और कोई नहीं हो सकती कि महाराष्ट्र में घोर मौकापरस्ती का परिचय देने वाले दल सार्वजनिक तौर पर संविधान का पाठ करते दिखे।

निर्णायक जनादेश के अभाव में समस्या का निदान खोजें राजनीतिक दल

न जाने कितने ऐसे मौके आ चुके हैैं जब निर्णायक जनादेश के अभाव में जोड़-तोड़ से सरकारें बनी हैैं। यह तय है कि आगे भी तब तक बनती रहेंगी जब तक इस सवाल का जवाब नहीं खोजा जाता कि किसी दल को बहुमत न मिलने की स्थिति में बिना जोड़-तोड़ और छल-छद्म यानी लोकतंत्र का हत्या करके सरकार का गठन कैसे हो सकता है? लोकतंत्र और संविधान की दुहाई देना तभी ठीक है जब राजनीतिक दल इस पर गौर करें कि अनैतिक राजनीति की जड़ें हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में ही निहित हैैं। इस पर केवल गौर ही नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि इस खामी को दूर भी किया जाना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया जा रहा तो इसका कारण यही हो सकता है कि राजनीतिक दलों को लोकतंत्र की हत्या से सुख मिलता है।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं )