काल अखंड अनुभूति है। भूत, भविष्य और वर्तमान भी अनुभूति जन्य हैं। नोबेल पुरस्कार प्राप्त कवि आक्टेवियो पाज ने अपनी चर्चित कविता ‘सेम टाइम’ में कहा है ‘यहां समय के भीतर एक और समय है। इसमें घंटे या भार नहीं है, भूत और भविष्य भी नहीं।’ अथर्ववेद का ‘काल अश्व कभी बूढ़ा नहीं होता। परम बलशाली अश्व सात किरणों-वाल्गाओं द्वारा सतत् गतिमान है। इसका रथचक्र संपूर्ण भुवनमंडल का ज्ञाता है। इस पर ज्ञानी कवि ही आरोहण करते हैं।’ स्टीफन हाकिंग की ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम 1988 में छपी थी। उसके बाद ‘थ्योरी ऑफ एवरीथिंग’ तक भी वह किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे। ऋग्वेद में काल क्षणभंगुर नहीं है। वह नित्य अनुभूति है। काल है भी अस्तित्व की ही अनुभूति। महाभारत में काल ही कार्य कारण संबंधों को जोड़ता है। वाल्मीकि रामायण में काल ही अंत में श्रीराम से ब्रह्मलोक चलने की प्रार्थना करता है। भारतवासी प्राचीनकाल से ही कालबोध से जुड़े रहे हैं। कालविभाजन और गणना अस्तित्व की गतिविधि की ही अनुभूति है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य का अपना समय है। किसी के लिए अच्छा और किसी के लिए बुरा। 2017 का जाना और 2018 का आना कोई बड़ी बात नहीं है। दोनों के बीच कोई समय विभाजक रेखा नहीं है। कालचिंतन भारत का प्रिय विषय रहा है। ऋग्वेद में सृष्टि सृजन के पहले की स्थिति है ‘दिन, रात, मृत्यु और जीवन नहीं हैं। तब गति नहीं हैं, इसलिए समय भी नहीं है।’ पृथ्वी पर भी तमाम देशों का तुलनात्मक समय भिन्न-भिन्न है। आधुनिक काल मनुष्य की गतिशीलता में वृद्धि का समय है। गति के कारण लोकजीवन के सभी क्षेत्रों में प्रगति हुई है। पुरानी मान्यताएं टूटी हैं। तीव्र गति वाले जीवन में ऐसा स्वाभाविक भी है।

आदर्श राष्ट्रनिर्माण में सांस्कृतिक विकास की यात्रा

आदर्श राष्ट्रनिर्माण में 100-200 बरस का समय भी पर्याप्त नहीं होता। सांस्कृतिक विकास की यात्रा काफी समय लेती है, लेकिन राजनीति तुरंता दांव है। कालगणना में अति अल्पकालिक लक्ष्य वाला उद्यम। आदर्श रूप में राजनीति का लक्ष्य राष्ट्रनिर्माण बताया जाता है, लेकिन व्यावहारिक रूप में इसका उद्देश्य चुनावी जीत है। समय का कोई भी हिस्सा स्वतंत्र इकाई नहीं है। 2017 भी स्वतंत्र इकाई नहीं था। इसमें 2016 सहित बीते अनेक वर्षों की अच्छाइयां व बीमारियां सम्मिलित थीं। 2018 का स्वागत, लेकिन इसकी काया में भी 2017 व इसके पीछे के अच्छे बुरे संस्कार हैं। राजनीतिक दलतंत्र पर अच्छे विधायक, सांसद व अन्य संवैधानिक पदों के लिए ‘प्रामाणिक कार्यकर्ता’ देने की जिम्मेदारी है। इन्हीं कार्यकर्ताओं से सत्तापक्ष व विपक्ष बनता है, लेकिन चुनाव जीतकर संसद या विधानमंडल में शालीनता से अपना पक्ष रखने वाले सदस्यों की कमी लगातार बढ़ी है। बहस की गुणवत्ता लगातार घटी है। व्यवधान और शोर गुल की घटनाएं बढ़ी हैं। दलों के सामने कत्र्तव्य निर्वहन के दो प्रमुख अवसर होते हैं। पहला चुनाव के समय शालीन प्रचार और दूसरा संसद व विधानमंडलों में तद्नुसार शालीन आचरण, सार्थक वाद विवाद व सदन का सम्मान। 2017 में सदनों की कार्यवाही ने निराश किया। 2017 में चुनावों में प्रचार की भाषा मर्यादाहीन रही है। चुनाव जनतंत्री उत्सव नहीं रहे। चुनाव असामान्य युद्ध जैसे हैं। शब्द मर्यादा के कोई बंधन नहीं। सामान्य शिष्टाचार भी नहीं। चुनाव में कटुता बढ़ती है जिसे शांत होने में महीनों लग जाते हैं। तब तक किसी न किसी विधानसभा के चुनाव फिर आ धमकते हैं।
अब चिंतन करने की जरूरत

लोकसभा चुनाव पांच वर्ष बाद आते हैं और राज्यसभा चुनाव हर दूसरे वर्ष। 31 विधानसभाएं हैं सो बहुधा चुनाव की धींगामुश्ती। 2017 की कटुता अभी भी जस की तस है। 2018 में 8 राज्य विधानसभाओं के चुनाव होंगे। चार बड़े राज्य मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ व कर्नाटक कड़ाके की सर्दी के बावजूद अभी से गरम हैं। मेघालय, त्रिपुरा, नगालैंड व मिजोरम के दल नेता भी परस्पर आक्रामक हैं। लोकसभा व विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की चर्चा 2017 के पूरे साल चली, लेकिन कोई परिणाम नहीं आया। राज्य स्तरीय दलों की चिंता है कि लोकसभा व विधानसभा चुनाव एक साथ होने से स्थानीय मुद्दे दबेंगे। भारी चुनाव खर्च व बार-बार के चुनावों से वातावरण को विषाक्त होने से बचाने के लिए लोकसभा के अलग व सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का विकल्प भी विचारणीय है। आर्थिक सुधारों पर बहुत कुछ हुआ है। तीन तलाक पर पारित विधेयक क्रांतिकारी है, लेकिन राजनीतिक सुधारों की दिशा में लंबे समय से जड़ता है। राजनीतिक सुधार ही संसद व विधानमंडल के कामकाज की गुणवत्ता बढ़ाएंगे।

कार्यकर्ताओं के लिए प्रशिक्षण जरूरी

राजनीतिक दलतंत्र की गुणवत्ता बढ़ाने का काम प्राय: बंद है। पहले वामदल कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण करते थे। डॉ. राममनोहर लोहिया समाजवादी प्रशिक्षण में स्वयं हिस्सा लेते थे। स्वतंत्रता के कुछ साल बाद तक कांग्रेस में भी ऐसी परिपाटी थी। भाजपा जनसंघ के समय से ही कार्यकर्ता प्रशिक्षण शिविर लगाती रही है। पं. दीनदयाल उपाध्याय से लेकर अमित शाह तक कार्यकर्ता प्रशिक्षण शिविर की परंपरा जारी है। भारत ने संसदीय जनतंत्र अपनाया है। तमाम क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद भारत का लोकतंत्र विश्व प्रतिष्ठ है, लेकिन कई दलों में अध्यक्षों व पदाधिकारियों के चुनाव प्रहसन जैसे होते हैं। ऐसे दल पार्टी कम प्रापर्टी ज्यादा जान पड़ते हैं। उन पर नेता पुत्र या पुत्रियां आसीन होते हैं। स्पष्टीकरण में कहा जाता है कि यह पार्टी का अंदरूनी मामला है। पार्टी संचालन, अध्यक्ष का निर्वाचन दल का अंदरूनी मामला नहीं होता। सत्ता के दावेदारों को सारा कामकाज पारदर्शी रूप में औचित्य सहित बताना ही चाहिए। 2017 में कई दलों के प्रमुख बदले, लेकिन ऐसे मूलभूत प्रश्न पर राष्ट्रीय चर्चा नहीं हुई। आखिरकार दलों के चुनाव भी निर्वाचन आयोग जैसा कोई अधिकरण क्यों नहीं करा सकता?
चुनावी नतीजों का अर्थ
आज 2018 का सूर्योदय हुआ है। यह ईसा के कैलेंडर वर्ष का पहला दिन है। हम भारतीय आशा और आस्तिकता से भरे पूरे हैं। 2017 याद रहेगा कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को सांप्रदायिक बताने वाले दल नेता भी भारतीय प्रतीकों के सामने नतमस्तक हैं। गुजरात चुनाव इसका प्रमाण है और कुंभ को लेकर उत्तर प्रदेश विधानसभा में हुई गरम बहस भी। कुंभ को यूनेस्को ने अतिप्रतिष्ठित बताया है। भारत का मन उल्लास में है। 2018 से स्वाभाविक ही अनेक उम्मीदें हैं। 2017 में प्रारंभ संसद की कार्यवाही 2018 तक जा रही है। आशा के साथ आशंकाएं भी हैं। क्या संसद की कार्यवाही अपनी गुणवत्ता से विधानमंडलों के लिए प्रेरक बनेंगी? क्या राज्यों के विधानमंडल राज्यपालों का अभिभाषण ध्यान से सुनेंगे? या 2017 और इसके पीछे का हुल्लड़ ही दोहराएंगे? क्या 2018 में आठ राज्यों में होने वाले चुनावों में वैचारिक और नीतिगत बहसें ही होंगी? क्या किसी संवैधानिक पदधारक को ‘नीच’ वगैरह कहने की लत छूट जाएगी? क्या दलतंत्र अपने कामकाज को पारदर्शी बनाएंगे? क्या पक्ष विपक्ष मिलकर राष्ट्रीय चुनौतियों का सामना करेंगे? क्या आर्थिक सुधारों के साथ राजनीतिक सुधार भी राष्ट्रीय एजेंडे का विषय बनेंगे? क्या भारत के लोग सभी संकीर्णताएं छोड़कर पूरब पश्चिम और उत्तर दक्षिण एक जन, एक संस्कृति और एक राष्ट्र के रूप में ही प्रकट होंगे? 2018 को ही ऐसे प्रश्नों के उत्तर देने हैं।

[ लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं ]
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