नई दिल्ली [ रमेश चंद ]। कृषि और किसानों का संकट किसी से छिपा नहीं है। वर्ष 2014-15 और 2015-16 में लगातार दो वर्षों तक पड़े सूखे से इस मोर्चे पर हालात खराब होने शुरू हुए। फिर वैश्विक स्तर पर कीमतों में गिरावट के चलते 2016-17 में खरीफ उत्पादन में कृषि उत्पादों की कीमतों में कमी के रुख ने भी किसानों की हालत और खराब कर दी। इस स्थिति के चलते न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी को सुनिश्चित करने के साथ ही उसमें बढ़ोतरी की मांग भी जोर पकड़ने लगी। बाजार की मौजूदा स्थिति को देखते हुए किसानों द्वारा उचित एवं लाभकारी मूल्य के आश्वासन की मांग पूरी तरह वाजिब है। आगामी बजट में कृषि संकट से निपटने के लिए कुछ प्रभावी उपायों की जरूरत है। पूरा जोर इस पर हो कि उनसे तात्कालिक तौर पर ही सही, कुछ सकारात्मक परिणाम हासिल हो सकें। इसमें मूल्य के साथ-साथ मूल्य से इतर कारकों को भी शामिल किया जाए। गैर-मूल्य कारकों में तकनीक, बाजार सुधार, बुनियादी ढांचा जैसे पहलू भी किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए उतने ही महत्वपूर्ण हैं, लेकिन इनसे नतीजे हासिल करने में समय लगता है। इस लिहाज से ये मध्यम एवं दीर्घावधि में ही मुनासिब माने जाते हैं। वहीं बेहतर कीमतें किसान को तुरंत राहत पहुंचाती हैं। इससे उनकी आमदनी बढ़ने के साथ ही उत्पादकता और वृद्धि पर भी सकारात्मक असर होता है।

केंद्रीय बजट में एमएसपी को शीर्ष प्राथमिकता में शामिल किया जाना चाहिए

यदि फसल उत्पादन के स्तर पर ही उसके मूल्य में एक प्रतिशत की बढ़ोतरी हो जाती है तो इससे किसान की आमदनी में 1.6 प्रतिशत का इजाफा होता है। इसके अतिरिक्त कृषि उत्पादों के वास्तविक मूल्य में तेजी आने से उत्पादकता और वृद्धि पर भी असरदार प्रभाव पड़ता है। इस परिप्रेक्ष्य में आगामी बजट में इसे शीर्ष प्राथमिकता में शामिल किया जाना चाहिए कि कृषि उत्पादों में उचित कीमतों का लाभ किसानों को तात्कालिक तौर पर हो सके। एमएसपी ऐसा ही एक माध्यम है।

भारत सरकार ने 23 फसलों के लिए ही एमएसपी की व्यवस्था की है

भारत सरकार ने 23 फसलों के लिए ही एमएसपी की व्यवस्था की है तो गन्ने के लिए उचित एवं लाभकारी मूल्य यानी एफआरपी का चलन है। ये फसलें 84 फीसदी सिंचित रकबे में होती हैं। लगभग पांच फीसद क्षेत्र पर चारा फसलें उगाई जाती हैं जिनमें एमएसपी जैसी व्यवस्था का दखल नहीं। इस प्रकार देखें तो एमएसपी के दायरे में आने वाली मौजूदा फसलों की सूची 90 प्रतिशत रकबे तक फैली है और अभी तक बड़े पैमाने पर इन फसलों से इतर फसलें उगाने वाले किसान भी अब एमएसपी वाली फसलों की ओर रुख कर रहे हैं। अगर एमएसपी तंत्र को सही तरह से लागू किया जाए तो अधिकांश किसान इससे फायदा उठाने की स्थिति में होंगे।

एमएसपी तंत्र चुनौतियों से जूझ रहा है

यह तंत्र फिलहाल दो चुनौतियों से जूझ रहा है। एक तो यह कि एमएसपी के तहत 23 फसलें आती हैं, लेकिन यह मुख्य रूप से दो-तीन फसलों के लिए ही प्रभावी रूप से काम कर रहा है। अगर एमएसपी सही ढंग से लागू नहीं हो पाया तो फिर इस व्यवस्था का क्या फायदा? दूसरी चुनौती फसल के कम उत्पादन से जुड़ी है जिसके लिए मुख्य रूप से छोटी जोत ही जिम्मेदार है। इसमें लागत और मूल्य को देखते हुए किसानों के लिए बहुत मुनाफे की गुंजाइश नहीं बन पाती। ऐसे में किसानों की इस मांग में कोई हैरानी नहीं कि वे सभी फसलों के लिए एमएसपी के प्रभावी क्रियान्वयन की मांग कर रहे हैं। उनकी यह भी मांग है कि राष्ट्रीय किसान आयोग के अध्यक्ष एवं नामचीन कृषि विशेषज्ञ डॉ. एमएस स्वामीनाथन द्वारा एमएसपी में लागत के ऊपर 50 प्रतिशत की सुझाई गई बढ़ोतरी को भी लागू किया जाए। सरकार को इन दोनों मुद्दों का समाधान निकालने की आवश्यकता है।

एमएसपी को किसानों के लिए लाभकारी बनाना चाहिए

एमएसपी को दो तरह से लागू किया जा सकता है। एक तो फसल की सीधे खरीद के जरिये और दूसरा एमएसपी और किसान को मिली कीमत में अंतर की किसान को नकद भुगतान के माध्यम से भरपाई करके। केंद्र सरकार गेहूं और धान जैसी फसलों के लिए एमएसपी को लेकर अपनी जिम्मेदारी निभा रही है, लेकिन कुछ राज्य गेहूं और धान को छोड़कर अन्य फसलों के लिए एमएसपी में सीमित खरीदारी कर एक तरह से हीलाहवाली का परिचय ही दे रहे हैं। सभी फसलों में एमएसपी सुनिश्चित करने के लिए केंद्र और राज्यों के बीच समन्वित प्रयास और लागत को वहन करने की जरूरत होगी। दूसरा मसला एमएसपी को उचित रूप से लाभकारी बनाने का है।

 किसान 50 प्रतिशत अधिक एमएसपी दिए जाने की मांग कर रहे हैं

किसान मांग कर रहे हैं कि उन्हें कृषि लागत एवं मूल्य आयोग यानी सीएसीपी द्वारा परिभाषित लागत से 50 प्रतिशत अधिक एमएसपी दिया जाना चाहिए। लागत की तुलना में 50 प्रतिशत अधिक मुनाफा पर्याप्त प्रतीत होता है, लेकिन कृषि में ‘लागत’ बेहद जटिल शब्द है। खेती मुख्यत: पारिवारिक व्यवसाय है जिसमें मुख्य रूप से अपने संसाधन ही इस्तेमाल होते हैं। इसमें निवेश भी दो किस्म का होता है। एक तो वह जो किसान खर्च करता है और दूसरा वह जिसमें किसान का खर्च तो नहीं होता, लेकिन उसकी भी गणना होती है। इन दोनों तरह की लागत में अंतर स्पष्ट करने के लिए सीएसीपी ने ए 2 और सी 2 नाम से दो लागत श्रेणियां बनाई हैं। ए 2 लागत में किसान द्वारा नकद में भुगतान किए जाने वाले खर्च शामिल हैं जिसमें बीज, उर्वरक, खाद, रसायन, मजदूर, बैल, मशीन और सिंचाई खर्च और फसल की देखरेख पर आने वाली लागत शामिल है। लागत सी 2 में लागत ए 2 को भी जोड़ा जाता है जिसमें परिवार के श्रम, पूंजी पर ब्याज दर और किराया वैल्यू भी शामिल होती है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि 50 प्रतिशत का मार्जिन तय करने में ए 2 या सी 2 में से किस लागत को आधार माना जाए?

एमएसपी में जमीन किराया और स्थिर पूंजी पर ब्याज को शामिल किया जाना चाहिए

तार्किक रूप से मार्जिन का अनुमान वास्तव में खर्च की गई लागत और निवेश के आधार पर किया जाए। इसमें ए 2 लागत सही लगती है। भारत में 88 प्रतिशत जमीन पर भूस्वामी ही खेती करते हैं। जमीन मालिक के पास किराया कमाने का भी अवसर होता है, लेकिन खुद खेती करने के दौरान वह इसका भुगतान नहीं करता। एमएसपी में जमीन किराया और स्थिर पूंजी पर ब्याज को निश्चित रूप से शामिल किया जाना चाहिए, लेकिन यह तुक नहीं बनती कि इसका आकलन किए जाने के बाद फिर से उस पर मार्जिन दिया जाए। यह दलील जरूर कुछ जायज है कि उत्पादन, प्रबंधन और रखरखाव में किसान के पारिवारिक श्रम और उद्यमिता कौशल पर जरूर 50 प्रतिशत का मार्जिन दिया जाए। इसके पीछे ठोस दलील है कि मार्जिन में ए 2 लागत और मजदूरी की मौजूदा दरों पर पारिवारिक श्रम के मूल्य को मिलाकर मार्जिन तय किया जाना चाहिए। यदि 23 फसलों के लिए इस व्यवस्था को अपना लिया जाता है तो यह किसान कल्याण की दिशा में एक ऊंची छलांग होगी और किसानों की लंबे समय से चली आ रही मांग भी पूरी हो जाएगी। साथ ही कृषि संकट का हल निकालने और 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुना करने में भी मददगार होगी।

[ लेखक नीति आयोग के सदस्य हैं ]