नई दिल्ली, धर्मकीर्ति जोशी। अंतरिम बजट की प्रमुख घोषणाओं पर गौर करें तो इसमें कुछ भी अनपेक्षित नहीं है। जल्द ही होने जा रहे आम चुनाव और देश के मौजूदा हालात की छाप इस बजट पर नजर आती है। चुनावी साल में सरकार पर लोकलुभावन बजट पेश करने का भारी दबाव होता है और उसे अपने संसाधनों के लिहाज से संतुलन भी साधना होता है तो ऐसी स्थिति में बजट पेश करना स्वाभाविक रूप से एक बड़ी चुनौती होती है। कार्यवाहक वित्त मंत्री पीयूष गोयल काफी हद तक इस चुनौती का तोड़ निकालने में सफल हुए हैं। उन्होंने एक ऐसा बजट पेश किया जो राजकोषीय संतुलन के साथ ही काफी हद तक लोकलुभावन स्वरूप वाला भी है, जिसमें समाज के प्रत्येक तबके के लिए कुछ न कुछ गुंजाइश रखी गई है। एक बड़ी हद तक इसे समावेशी बजट कह सकते हैं। यह भी कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि अपेक्षाओं के दबाव को सरकार ने अपने खजाने की सेहत को ज्यादा बिगाड़े बिना ही पूरा करने की कोशिश की है।

देश में किसानों का संकट किसी से छिपा नहीं। पिछले कुछ अर्से में किसानों के तमाम आंदोलनों को देखते हुए व्यापक रूप से माना जा रहा था कि सरकार उन्हें कुछ न कुछ सौगात देगी। ऐसा ही हुआ। किसानों के लिए 6,000 रुपये सालाना की निश्चित आमदनी वाली योजना इस दिशा में एक बड़ी पहल है। इसी तरह पांच लाख रुपये तक की आमदनी को आयकर से मुक्त करना भी मध्यम वर्ग को एक बड़ी राहत है।

अंतरिम बजट का मर्म यही है कि सरकार का पूरा ध्यान सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के साथ ही उपभोग को बढ़ाने पर है। इस कवायद के लिए निश्चित रूप से जहां अतिरिक्त संसाधनों की आवश्यकता होगी, वहीं कुछ राजस्व नुकसान की आशंका भी बढ़ेगी। सरकार के पास राजकोषीय गुंजाइश हमेशा सीमित होती है। ऐसे में उसे इसका श्रेय दिया जा सकता है कि ये कदम उठाने के बावजूद वह राजकोषीय सुदृढ़ीकरण की राह से नहीं भटकी। हालांकि चालू वित्त वर्ष में वह राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 3.3 प्रतिशत के दायरे में लाने के लक्ष्य से मामूली रूप से चूक गई, फिर भी वह इसे 3.4 प्रतिशत के स्तर पर रोकने में सफल रही। इसी तरह अगले वित्त वर्ष के लिए 3.4 प्रतिशत का लक्ष्य भी तार्किक ही लगता है। ऐसे में यह कहना मुनासिब होगा कि सरकार ने राजकोषीय सुदृढ़ीकरण की राह से कदम पीछे नहीं खींचे हैं, अलबत्ता उसकी रफ्तार कुछ सुस्त जरूर हुई है। इस मामले में मोदी सरकार का रिकॉर्ड भी अच्छा ही कहा जाएगा, जिसने मनमोहन सरकार के कार्यकाल के अंतिम वर्ष से विरासत में मिले 4 प्रतिशत के राजकोषीय घाटे को काफी हद तक काबू करने में सफलता हासिल की है।

इस दौरान कच्चे तेल की कीमतों में आई गिरावट ने भी इसमें सरकार की मदद की जिनके दाम फिर चढ़ने से मोदी सरकार का गणित बाद में कुछ गड़बड़ा गया। असल में राजकोषीय घाटे के मोर्चे पर फिसलन सरकार की विश्वसनीयता और साख पर ही सवाल खड़े करती है। इसका असर सरकारी बांड और प्रतिभूतियों पर भी पड़ता है। अगर यह घाटा बढ़ता है तो खर्च के लिए सरकार के हाथ भी बंध जाते हैं। इस पर काबू पाकर ही सरकार के लिए दूसरी मदों में खुले हाथ से खर्च करना संभव हो पाता है।

सरकारी खजाने में ऐसे संतुलन से ही किसानों के लिए निश्चित आमदनी योजना संभव हो पाई। मुश्किलों से जूझते किसानों के लिए लंबे अर्से से किसी कारगर योजना की वकालत की जा रही थी। निश्चित आमदनी वाली यह योजना कर्ज माफी जैसी खराब नीति की तुलना में बहुत अच्छी पहल है, लेकिन इसकी सफलता इसी बात से सुनिश्चित होगी कि यह लाभार्थियों तक किस रूप में पहुंचेगी। यदि यह योजना कामयाब हुई तो 12 करोड़ परिवारों यानी देश की लगभग 40 प्रतिशत आबादी तक पहुंचने के दम पर बाजी पलटने वाली साबित हो सकती है। इसी तरह पांच लाख रुपये तक की आमदनी करमुक्त होने से लोगों के पास खर्च योग्य आमदनी बढ़ेगी जिससे उपभोग बढ़ेगा और अर्थव्यवस्था में मांग की स्थिति में सुधार होगा। ऐसे ही ग्रेच्युटी की सीमा बढ़ाने से लेकर पेंशन की व्यवस्था करना भी नौकरीपेशा तबके के लिए सामाजिक सुरक्षा तय करेगा। आयुष्मान भारत भी सरकार की सफल योजना साबित हुई है। इस बार मनरेगा के लिए आवंटन में भी सरकार ने कंजूसी नहीं की। यही स्थिति अन्य वर्गों के सशक्तीकरण में बढ़ाए गए खर्च में भी झलकती है। कुल मिलाकर इससे अच्छा माहौल बनेगा।

वैसे तो बुनियादी ढांचे और उद्योग जगत के लिए बजट में कोई विशेष प्रावधान नहीं किए गए हैं, लेकिन अपने कार्यकाल की शुरुआत से ही इस सरकार ने इस दिशा में जो कदम उठाए यदि उनमें ही निरंतरता बनाए रखी जाए तो काफी बेहतर परिणाम हासिल किए जा सकते हैं। सड़क निर्माण से लेकर नए उद्योगों के लिए पूंजी की किल्लत को दूर करने के प्रयास जारी रखे जाएं तो आर्थिक गतिविधियों को गति देने में मदद मिलेगी जो रोजगार सृजन में भी सहायक होंगी। कुछ ऐसा ही सुधारों के बारे में कहा जा सकता है जिसमें कोई नई घोषणा तो नहीं हुई, लेकिन जो सुधार शुरू किए गए हैं उन्हें ही यदि अपेक्षित रूप से अंजाम तक पहुंचा दिया जाए तो आर्थिक तस्वीर काफी बदल सकती है। जैसे जीएसटी अभी भी संक्रमण वाली अवस्था में है। इसी तरह एनसीएलटी, बिजली एवं बैंकिंग संबंधी सुधारों और दीवालिया संहिता पर भी सही दिशा में बढ़ते रहना होगा। सुधारों के अगले चरण में भूमि और श्रम सुधारों की बारी आएगी जिन्हें चरणबद्ध रूप में आकार देना होगा। बजट द्वारा मध्यम अवधि और दीर्घ अवधि के विजन पर की गई चर्चा को भी व्यापक अर्थो में देखना होगा।

मौजूदा हालत में इस बजट को अच्छा ही कहा जा सकता है, लेकिन फिर भी काफी कुछ है जिसमें सुधार की आवश्यकता है। जैसे सब्सिडी खर्च को अभी भी तार्किक बनाया जाना शेष है। यह सही है कि सरकार ने अपने खर्च में कई जगहों पर होने वाले रिसाव को रोककर सरकारी खजाने को मजबूती दी है, लेकिन अब इस कवायद को एक नए क्षितिज पर ले जाना होगा। इसकी शुरुआत केरोसिन पर होने वाले खर्च से की जा सकती है। अगर सरकार ऐसा करने में सफल हो जाती है तो फिर उसे अन्य कल्याणकारी मदों में खर्च के लिए अतिरिक्त संसाधन उपलब्ध हो जाएंगे। कुल मिलाकर चुनावी साल में सभी वर्गों के लिए कुछ न कुछ सौगात देकर भी सरकार ने अपने खजाने के संतुलन को ज्यादा बिगड़ने नहीं दिया है। यह लोकलुभावन होने के साथ ही तार्किक बजट भी है। इसमें कई कदम ऐसे हैं जिन्हें देश के मौजूदा हालात को देखते हुए किसी भी सरकार के लिए उठाना अपरिहार्य ही था। संयोग से ये कदम उस वक्त उठाए गए जब देश में आम चुनाव दस्तक दे रहे हैं। इसे वक्त के तकाजे के साथ ही चुनावी समीकरणों का संयोग भी कहा जा सकता है।

(लेखक क्रिसिल के मुख्य अर्थशास्त्री हैं)