[ विवेक काटजू ]: यूरोपीय संघ की संसद के कुछ सदस्यों का हालिया श्रीनगर दौरा विवादों में घिर गया। विपक्षी दलों ने इसे लेकर मोदी सरकार पर हल्ला बोल दिया कि विदेशियों को जम्मू-कश्मीर दौरे की इजाजत दे दी गई जबकि भारतीय विपक्षी नेताओं को सरकार ने यह मंजूरी नहीं दी थी। मीडिया के कुछ वर्गों ने इस आयोजन के स्वरूप को लेकर सवाल उठाते हुए मोदी सरकार पर तोहमत मढ़ी। एक पूर्व राजनयिक के रूप में मुझे यही लगता है कि विपक्षी दलों और मीडिया, दोनों ने ही इस दौरे को लेकर सही सवाल नहीं उठाए। सबसे अहम प्रश्न यह है कि क्या यह दौरा हमारे राष्ट्रीय हितों की पूर्ति करेगा जैसा कि दावा विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने किया। इस सिलसिले में सवाल उठाने से पहले मैं कुछ तथ्यों पर गौर करना चाहूंगा।

जम्मू-कश्मीर में उठाए गए संवैधानिक कदमों से अवगत कराना था

सभी देश अपने लिए महत्वपूर्ण आंतरिक एवं बाहरी मुद्दों पर अपना दृष्टिकोण रखते हैं। इसके पीछे उनकी मंशा यही होती है कि अंतरराष्ट्रीय बिरादरी भी उनके मंतव्य को समझे। इसके तहत उन लोगों को साधना बहुत अहम माना जाता है जो अपनी राय से धारणा बनाने में महारत रखते हैं। इन्हें ओपिनियन मेकर्स कहते हैं। उन्हें साधने के कई तरीके हैं, जैसे कि उनका दौरा कराना। इससे वे लोगों से मिलकर यह समझ सकते हैं कि कोई खास निर्णय किस विशेष वजह से किया गया। मोदी सरकार के लिए यह एकदम उपयुक्त विकल्प है कि वह वैश्विक ओपिनियन मेकर्स से संवाद कर उन्हें जम्मू-कश्मीर में उठाए गए संवैधानिक कदमों को लेकर अपना नजरिया स्पष्ट करे। यह इसलिए जरूरी है, क्योंकि इन कदमों पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान गया है। इसके साथ ही जम्मू-कश्मीर के हालात की गलत तस्वीर पेश की गई है। पाकिस्तान ने इस मामले में बड़े पैमाने पर दुष्प्रचार किया तो चीन ने भी इसकी आलोचना की।

क्या ईयू सांसद इतने प्रभावशाली हैं कि वे अपने देश में हमारे पक्ष में धारणा बना सकते हैं

ऐसे दौरों के आयोजन के लिए कई देश तमाम तरह के विकल्प अपनाते हैं। कई मामलों में बहुत विश्वसनीय संगठनों को माध्यम बनाया जाता है। कुछ स्थितियों में अपेक्षाकृत परोक्ष मदद ली जाती है। इसमें यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण होता है कि दौरे को लेकर कोई ऐसी बात सामने नहीं आनी चाहिए जिससे आयोजकों के साथ-साथ इसमें शामिल होने वालों को असहज होना पड़े। यूरोपीय संघ के सांसदों के जम्मू-कश्मीर दौरे को लेकर जो बातें सामने आ रही हैं, उनसे यही लगता है कि इसे पेशेवर अंदाज में नहीं, बल्कि नौसिखिये तौर-तरीकों से अंजाम दिया गया। फिर भी यह मसला उतना महत्वपूर्ण नहीं। असल सवाल यही है कि जिन लोगों को आमंत्रित किया गया क्या वे अपने-अपने देशों में इतने प्रभावशाली हैं कि वे हमारे पक्ष में धारणा बना सकते हैं। इसके लिए यूरोप की राजनीति में यूरोपीय संघ की संसद के सदस्यों की अहमियत की पड़ताल करना आवश्यक होगा। क्या वे इतने महत्वपूर्ण हैं कि कश्मीर की तस्वीर देखने के बाद अपने देशों में उन लोगों को संतुष्ट कर पाएं जो तरह-तरह के संदेह जता रहे हैं?

राजनीतिक पार्टियां अनुभवहीन नेताओं को ही यूरोपीय संसद के चुनावों में उतारती हैं

यहां यह उल्लेख करना उपयोगी होगा कि यूरोपीय संसद यूरोप को एकजुट करने वाले यूरोपीय संघ की ही एक संस्था है। यह यूरोपीय संघ के सदस्य देशों की संसदों से अलग है। यूरोपीय देशों के महत्वपूर्ण और ताकतवर नेता अपने-अपने देशों की संसद के सदस्य बनने को तरजीह देते हैं। वही सत्ता हासिल करने का रास्ता भी है। इस मामले में अनुभव यही दर्शाता है कि यूरोपीय संघ के सदस्य देशों की राजनीतिक पार्टियां अपेक्षाकृत नए और अनुभवहीन नेताओं को ही यूरोपीय संसद के चुनावों में उतारती हैं। इनके साथ सक्रियता बढ़ाने में कोई बुराई नहीं, क्योंकि यूरोपीय संघ के नियम-कायदे ही उस व्यापार की दिशा तय करते हैं जिससे भारत के बहुत ज्यादा हित जुड़े हुए हैं। ये नेता भले ही उतने महत्वपूर्ण न हों, लेकिन उनकी उपेक्षा भी नहीं की जानी चाहिए।

मोदी सरकार ने यूरोपीय सांसदों के जत्थे का किया स्वागत

मोदी सरकार ने यूरोपीय सांसदों के इस जत्थे का बखूबी स्वागत किया। प्रधानमंत्री मोदी ने उनसे मुलाकात कर भारत को लेकर अपना विजन साझा किया। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने उनके लिए रात्रिभोज का आयोजन किया। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने उन्हें जम्मू-कश्मीर के हालात और पाकिस्तान द्वारा लगातार आतंक को बढ़ावा देने की जानकारी दी। श्रीनगर के दो दिवसीय दौरे में भारतीय सैन्य नेतृत्व ने उनसे संवाद किया। कश्मीरी व्यापारियों के कुछ समूहों, पंचायत और खंड विकास बोर्ड सदस्यों, पेशेवरों और कुछ अन्य लोगों ने भी उनसे बातचीत की। यह स्वाभाविक ही था कि सुरक्षा कारणों के चलते वे उन सभी लोगों से संवाद नहीं कर पाए जिनसे करना चाहते होंगे।

अपने इलाकों में प्रभावशाली समूह को मिलती तवज्जो

ऐसा विरले ही देखने को मिलता है कि विदेशी आगंतुकों को वैसी अहमियत मिली हो जैसी इस समूह को मिली। सरकार किसी समूह को तभी ऐसी तवज्जो देती है जब उसे लगे कि वह अपने इलाकों में बहुत प्रभावशाली है। हालांकि अपने-अपने देशों में राजनीतिक रसूख और मुख्यधारा के राजनीतिक दलों से इतर होने के कारण इस मामले में ऐसा नहीं था।

यूरोपीय सांसदों ने कहा- जम्मू-कश्मीर में बदलाव भारत का आंतरिक मामला

चूंकि जम्मू-कश्मीर में संवैधानिक बदलाव से उत्पन्न हालात को सरकार ने विदेशी मोर्चे पर बखूबी संभाला था, लिहाजा ऐसे समूह पर समय और ऊर्जा खर्च करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। अपने दौरे के अंत में इस समूह ने कुछ पत्रकारों के साथ वार्ता भी की। उन्होंने कहा कि पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर राज्य की स्थिति में बदलाव भारत का आंतरिक मामला है। उन्होंने आतंकवाद की भी कड़ी भत्र्सना की और आतंक के खिलाफ लड़ाई में भारत को समर्थन दोहराया।

कश्मीर मामले पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय भारत के साथ है

यह अच्छी बात है कि उक्त समूह ने इन सभी पहलुओं पर जोर दिया, लेकिन अंतरराष्ट्रीय समुदाय तो इन मामलों पर व्यापक रूप से भारत के ही साथ है। चीन, पाकिस्तान, तुर्की और मलेशिया को छोड़कर किसी भी प्रमुख देश ने भारत के इस रुख का विरोध नहीं किया। इन देशों का विरोध भी कोई खास मायने नहीं रखता और अगस्त में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अनौपचारिक बैठक में इसकी पुष्टि भी हो गई थी जब परिषद ने स्पष्ट कर दिया कि इस मामले में दखल देने की उसकी कोई मंशा नहीं। इसके उलट आतंक को बढ़ावा देने में पाकिस्तान का चेहरा अब पूरी दुनिया के आगे बेनकाब हो गया है।

जम्मू-कश्मीर में प्रतिबंधों को लेकर भारत को आलोचना झेलनी पड़ी

जम्मू-कश्मीर को लेकर भारत को जो आलोचना झेलनी पड़ी वह मुख्य रूप से आवाजाही और संचार सेवाओं पर प्रतिबंध से जुड़ी है। इन प्रतिबंधों को भी धीरे-धीरे खत्म किया जा रहा है। जानमाल की सुरक्षा के लिए ये कदम बेहद जरूरी थे। वैश्विक बिरादरी इन प्रतिबंधों को पूरी तरह हटाने के लिए लगातार कहती रही है, फिर भी वह इन्हें लगाने की मजबूरी को समझती है। यह आलोचना भी मुख्य रूप से अंतरराष्ट्रीय लिबरल मीडिया और राजनीतिक समूहों ने की है। ऐसे में यूरोपीय संघ के सांसदों का समूह भले ही कुछ कहे, उन आलोचनाओं पर विराम नहीं लगेगा। वास्तव में ऐसे मामलों को विदेश मंत्रालय के वे पेशेवर बेहतर तरीके से संभाल सकते थे जिनके पास इसका अनुभव और कौशल होता है।

( लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं )