हर्ष वी. पंत। इंटरनेट मीडिया के इस दौर में कूटनीति के समक्ष नई चुनौतियां उत्पन्न हो गई हैं। अक्सर इंटरनेट मीडिया के कोलाहल में वास्तविक मुद्दे दम तोड़ देते हैं तो कभी-कभार यह उन मुद्दों को त्वरित गति से आगे बढ़ाने का माध्यम बनकर उभरता है, जिन पर विमर्श आरंभ होने में शायद कई बार कुछ अधिक समय लग जाता है। भारत-मालदीव के बीच हालिया विवाद ऐसा ही एक उदाहरण रहा, जहां मालदीव सरकार के कुछ मंत्रियों की अनावश्यक टिप्पणियों से द्विपक्षीय संबंधों में तनाव बढ़ गया है। यह प्रकरण इसका साक्षात प्रमाण है कि एक समय बेहद करीबी रहे पड़ोसियों में दुराव कैसे बढ़ता है। मालदीव की नई सरकार में कुछ मंत्रियों की गैर-जिम्मेदार बयानबाजी ने नई दिल्ली और माले के बीच टकराव को जाहिर करने के साथ खुद मालदीव के भीतर विभाजन को उजागर करने का काम किया। यह पूरा मामला नववर्ष के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लक्षद्वीप दौरे से आरंभ हुआ।

प्रधानमंत्री वहां कोचीन-लक्षद्वीप आइलैंड्स सबमरीन आप्टिकल फाइबर कनेक्शन परियोजना के उद्घाटन के सिलसिले में गए थे, लेकिन उन्होंने स्नोर्कलिंग और अन्य गतिविधियों के लिए वहां कुछ समय निकाला। लक्षद्वीप के नैसर्गिक सौंदर्य से अभिभूत प्रधानमंत्री ने आह्वान किया कि रोमांचकारी पर्यटन को पसंद करने वालों की सूची में लक्षद्वीप अवश्य होना चाहिए। उन्होंने किसी प्रतिस्पर्धी पर्यटन केंद्र का उल्लेख तक नहीं किया, लेकिन मालदीव के कुछ नेताओं ने इसे अपने पर्यटन उद्योग को चुनौती के रूप में देखा। इससे उपजी खीझ के चलते वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भारतीयों के प्रति अपमानजनक बयानबाजी करने लगे। इसके बाद कूटनीतिक गलियारों में तलवारें खिंचने लगीं। फिर तो इंटरनेट मीडिया पर अपने-अपने क्षेत्रों की दिग्गज हस्तियों की प्रतिक्रियाओं का सैलाब आ गया। आम लोग भी इसमें पीछे नहीं रहे। इस कवायद में मालदीव का बहिष्कार और लक्षद्वीप के प्रोत्साहन की मुहिम अपने चरम पर पहुंचती दिखी।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हालिया लक्षद्वीप दौरे को मालदीव के एक वर्ग ने इसी दृष्टि से देखा कि भारतीय प्रधानमंत्री उसे उनके देश के विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। इसकी प्रतिक्रिया में मालदीव के युवा सशक्तीकरण, सूचना एवं कला मंत्रालय के उपमंत्री के एक बयान के बाद भारत में ‘बायकाट मालदीव्स’ हैशटैग चलने लगा। मालदीव से आ रही प्रतिक्रियाओं के विरोध स्वरूप भारतीय पर्यटक अपने मालदीव दौरे को रद करने के साथ वहां न जाने की अपील करने लगे। कूटनीतिक स्तर पर भी अधिकारियों से जवाब तलब होने लगा। मामला तूल पकड़ते देखकर राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्जू की सरकार ने मंत्रियों पर कार्रवाई की। मालदीव सरकार को आधिकारिक बयान जारी करके यह कहना पड़ा कि कुछ विदेशी नेताओं और गणमान्य व्यक्तियों के विरुद्ध टिप्पणियां इन मंत्रियों की निजी राय है और उनका मालदीव सरकार के विचार से कोई सरोकार नहीं।

पिछले राष्ट्रपति इब्राहिम सोलेह के दौर में मालदीव के साथ भारत के संबंध अत्यंत मधुर रहे, लेकिन मोहम्मद मुइज्जू के कमान संभालने के बाद से ही द्विपक्षीय रिश्ते रसातल में जा रहे हैं। उनका चुनाव प्रचार अभियान ही भारत विरोध पर केंद्रित था। उन्होंने बाकायदा ‘इंडिया आउट’ नारा दिया। उन्होंने आरोप लगाया था कि भारत ने पिछली एमडीपी सरकार के साथ मिलकर मालदीव की संप्रभुता का उल्लंघन किया। सत्ता संभालने के बाद उन्होंने भारतीय सैनिकों को तत्काल मालदीव छोड़ने के लिए कह दिया, जब उनकी संख्या मुश्किल से 75 है। राष्ट्रपति बनने के लिए उन्होंने पहले विदेशी दौरे के लिए तुर्किये को चुना और इस समय भी चीन के दौरे पर हैं। जबकि मालदीव में यही परंपरा रही है कि सरकार बनने के बाद राष्ट्राध्यक्ष पहले विदेशी दौरे पर भारत आते थे। दिसंबर में आयोजित कोलंबो सिक्योरिटी कान्क्लेव में भी मालदीव अनुपस्थित रहा। हाल में मुइज्जू सरकार ने फैसला किया है कि मालदीव भारत के साथ उस समझौते का नवीनीकरण नहीं करेगा, जो भारत को मालदीव के क्षेत्र में हाइड्रोग्राफिक सर्वे करने की गुंजाइश प्रदान करता था। यह भारत से दूरी बढ़ाने का साफ संकेत था।

हालिया टकराव ने पारंपरिक रूप से करीबी रहे मालदीव एवं भारत के बीच मतभेदों की खाई को और चौड़ा करने का काम किया है। दक्षिण एशिया एवं हिंद महासागरीय देशों को भारत और चीन जैसे क्षेत्रीय दिग्गजों के साथ अपने संबंधों में संतुलन साधना होगा। मुइज्जू के शासन में मालदीव संतुलन की इस राह से भटक रहा है। संतुलन के बजाय वह तो टकराव को और बढ़ाने पर आमादा हैं। इससे स्थितियां खराब होंगी। न केवल सरकारों, बल्कि दोनों देशों के लोगों के बीच इससे संबंध प्रभावित होने की आशंका बढ़ेगी। इसके दीर्घकालिक परिणाम देखने को मिलेंगे। इससे मालदीव की मुश्किलें ज्यादा बढ़ेंगी। तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद वहां भारत को एक मूल्यवान सहयोगी ही समझा गया है, क्योंकि माले की मुश्किल सामुद्रिक निगरानी और अपेक्षित क्षमताओं के लिहाज से भारत बहुत जरूरी है। यही कारण है कि जिन अब्दुला यामीन की सरकार के दौरान माले का बीजिंग की ओर झुकाव बढ़ा और भारत के साथ संबंधों में छिटपुट दरारें बढ़ती रहीं, उनके दौर में भी भारत के साथ मालदीव का सामरिक सहयोग निरंतर कायम रहा।

भारत अभी भी मालदीव का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार होने के साथ ही उसे सबसे अधिक वित्तीय अनुदान प्रदान करता है। पर्यटन मालदीव की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है और वहां सबसे अधिक पर्यटक भारत से ही जाते हैं। ऐसे में यह निष्कर्ष निकालना बहुत कठिन नहीं कि भारत को भड़काना केवल मालदीव की कठिनाइयां बढ़ाने का ही काम करेगा। इसलिए उसे ऐसा कोई काम कतई नहीं करना चाहिए। जहां तक नई दिल्ली के दृष्टिकोण की बात है तो हिंद महासागर में अपनी महत्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति के चलते मालदीव उसका एक अहम साझेदार है। वहीं माले के लिए लिए भारत आर्थिक एवं सामरिक कवच प्रदान करने वाला मूल्यवान पड़ोसी है। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि परस्पर संवेदनशीलता का परिचय देते हुए अपने हितों को पोषित करने पर ध्यान दिया जाए।

(लेखक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में उपाध्यक्ष हैं)