मुंबई, ओमप्रकाश तिवारी। Maharashtra Politics: गठबंधन की राजनीति महाराष्ट्र और देश के लिए कोई अजूबा नहीं है। वर्ष 1967 में देश के अनेक हिस्सों में बनी संयुक्त विधायक दल (संविद) सरकार, 1978 में शरद पवार द्वारा महाराष्ट्र में बनाई गई पुरोगामी लोकशाही दल (पुलोद) सरकार, जनता पार्टी, जनता दल, बसपा-सपा गठबंधन, भाजपा-शिवसेना गठबंधन, महागठबंधन आदि गठबंधनों की राजनीति भारत लंबे समय से देखता आ रहा है।

किसी मजबूत सत्तारूढ़ दल को हटाने के लिए ऐसे गठबंधनों का बनना स्वाभाविक भी है। केंद्र में गठबंधन सरकारों के कई सफल दौर भी देश ने देखे हैं। माया, ममता और जयललिता के अनेक झंझटों के बीच कभी गठबंधन सरकारें चली हैं, तो कभी गिरी हैं। ये राजनीतिक गठबंधन कभी चुनाव पूर्व होते रहे हैं, तो कभी चुनाव बाद।

गठबंधन में ऐसी नौटंकी इससे पहले कभी नहीं देखी

लेकिन दो राजनीतिक दलों के गठबंधन में ऐसी नौटंकी इससे पहले कभी नहीं देखी गई, जैसी इस बार महाराष्ट्र में देखा गया। गठबंधन का एक दल शिवसेना चुनाव से पहले शांत रहा। भाजपा नेताओं के साथ मंच साझा करता रहा। उनके मुंह से पुन: देवेंद्र फड़नवीस के मुख्यमंत्री बनने के दावे सुनता रहा। और अपने मुंह में दही जमाए बैठा रहा। परिणाम आते ही उसने रंग बदल दिए। लोकसभा चुनाव से पहले किए गए ‘किसी वायदे’ की याद दिलाते हुए उसने ढाई वर्ष के लिए मुख्यमंत्री पद की मांग शुरू कर दी।

‘भाजपा- शिवसेना गठबंधन’ 

गठबंधन के अपने साथी को झूठा साबित करने में जुट गया। अंत में उन्हीं के साथ मिलकर सरकार बनाने का फैसला कर लिया, जिनके विरुद्ध वह विधानसभा चुनाव लड़कर राज्य विधानसभा की मात्र 19 फीसद सीटें जीत सका था। नई सरकार अपना कार्यकाल पूरा करे, ये शुभकामनाएं नई सरकार के साथ हैं। लेकिन यह भी सच है कि करीब 35 दिन चले इस प्रकरण से महाराष्ट्र का वह मतदाता वर्ग ठगा महसूस कर रहा है, जिसने अपना कीमती मत ‘भाजपा- शिवसेना गठबंधन’ को दिया था, जो परंपरागत रूप से भाजपा का मतदाता रहा है, और सिर्फ गठबंधन के कारण उसने शिवसेना की अनेक नीतियों से असहमत रहते हुए भी उसे वोट दिया है।

यही स्थिति शिवसेना के प्रतिबद्ध मतदाताओं के साथ भी हो सकती है। उन्हें आज अपने दिवंगत नेता बालासाहब ठाकरे का एक स्वप्न पूरा होने की खुशी तो जरूर हो रही होगी, लेकिन वैचारिक धरातल पर 35 वर्ष से जिनसे लड़ते आए, उन्हीं के साथ सरकार बनाने का अफसोस भी जरूर हो रहा होगा।

महाराष्ट्र के चुनावी आंकड़े

शिवसेना द्वारा अक्सर यह भ्रम पैदा किया जाता रहा है कि भाजपा उसकी जमीन का इस्तेमाल कर महाराष्ट्र में शून्य से शिखर पर पहुंची। वह तो केंद्र की राजनीति में भी भाजपा के दो से 302 तक के सफर में अपने ही कंधे इस्तेमाल होने की बात करती है। लेकिन महाराष्ट्र के चुनावी आंकड़े गवाह हैं कि राज्य की राजनीति में भी वह कभी भी भाजपा से ‘सीनियर’ नहीं रही। वर्ष 1980 में जहां भाजपा अपने नए-नए स्वरूप में 145 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़कर 9.38 फीसद मतों के साथ 14 सीटें जीतने में कामयाब रही थी, वहीं शिवसेना उन दिनों मुंबई महानगरपालिका में राजनीति का ककहरा सीख रही थी।

भाजपा का जीत फीसद हमेशा शिवसेना से ज्यादा 

वर्ष 1985 में हुए भाजपा-शिवसेना गठबंधन के बाद 1990 में पहली बार जब यह गठबंधन विधानसभा चुनाव में उतरा तो शिवसेना के पास अपना अधिकृत चुनाव चिह्न भी नहीं था। तब वह 183 सीटों पर चुनाव लड़कर 52 एवं भाजपा 104 सीटों पर चुनाव लड़कर 42 सीटों पर जीत दर्ज करने में कामयाब रही थी। यानी लड़ी गई सीटों में भाजपा जहां 40 फीसद पर जीती थी, वहीं शिवसेना अपनी लड़ी गई सीटों में मात्र 28 फीसद पर। न जाने क्यों, तब के भाजपा नेताओं ने पहले से बड़ी पार्टी होने के बावजूद शिवसेना को अधिक सीटें देकर खुद कम सीटों पर लड़ना स्वीकार किया। लेकिन भाजपा का जीत फीसद हमेशा शिवसेना से ज्यादा ही रहा है।

क्या शिवसेना की जीत में भाजपा का सहयोग नहीं रहा होगा?

इस बार भी भाजपा अपनी लड़ी सीटों में जहां लगभग 70 फीसद सीटें जीतने में कामयाब रही है, वहीं शिवसेना 44 फीसद। यदि इसी जीत फीसद को आधार बनाया जाए तो भाजपा अकेले सभी सीटों पर लड़कर भी इस चुनाव में बहुमत के लिए जरूरी सीट जीत सकती थी। एक तर्क दिया जा सकता है कि उसे इतनी सीटें जिताने में शिवसेना का भी सहयोग रहा। तो क्या शिवसेना की जीत में भाजपा का सहयोग नहीं रहा होगा? क्या राज्य भर में हुई प्रधानमंत्री एवं भाजपा अध्यक्ष की सभाओं का उसकी जीत में कोई योगदान नहीं रहा होगा? क्या आदित्य ठाकरे के चुनाव क्षेत्र में प्रधानमंत्री के पोस्टर नहीं लगे थे? यदि ऐसा था तो शिवसेना को मिली 56 सीटों में भाजपा के मतदाताओं और नेताओं का योगदान भी क्यों नहीं माना जाना चाहिए?

मूल मुद्दा यह है कि चुनाव परिणाम आने के बाद अचानक बदले शिवसेना के तेवरों ने न सिर्फ महाराष्ट्र, बल्कि देश के एक बड़े वर्ग को अचरज में डाल दिया है। गठबंधन की राजनीति ही सवालों के घेरे में आ गई है। इस राजनीति में उसी तरह सुधार की जरूरत महसूस की जाने लगी है, जैसे कभी दलबदल कानून में की गई, अथवा चुनाव सुधारों की प्रक्रिया में लगातार की जा रही है। क्या चुनाव पूर्व होनेवाले गठबंधनों की आपसी शर्तें सार्वजनिक नहीं होनी चाहिए? ताकि किसी भी पक्ष को बाद में दूसरे पक्ष पर झूठे वायदे करने या झूठ बोलने का आरोप लगाने का अवसर ही न मिले। वास्तव में, दो या अधिक दलों के बीच होनेवाला कोई भी ‘चुनाव पूर्व’ या ‘चुनाव बाद’ समझौता लोकतंत्र में अंतत: ‘लोक’ के प्रति ही जवाबदेह होना चाहिए।

[मुंबई ब्यूरो प्रमुख]

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