[ राजीव सचान ]: हमारे राजनीतिक दल किस तरह वक्त से पीछे चल रहे हैैं और इससे उन्हें कोई परेशानी नहीं, इसका पता ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की ओर से राज्य में विधान परिषद के गठन की तैयारी से चलता है। एक ऐसे समय जब विधान परिषदों और यहां तक कि राज्यसभा की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैैं तब यह अजीब है कि ओडिशा सरकार विधान परिषद के गठन के लिए हाथ-पांव मार रही है।

बीजू जनता दल के नेताओं की ओर से दी गई जानकारी के अनुसार, चार सितंबर से शुरू होने वाले ओडिशा विधानसभा के सत्र में विधान परिषद के गठन का प्रस्ताव लाया जा सकता है। अच्छी बात यह है कि केवल इस प्रस्ताव के पारित होने से ही ओडिशा में विधान परिषद का गठन नहीं होने वाला। इस प्रस्ताव को संसद की मंजूरी के बाद ही राज्य में विधान परिषद का गठन हो सकता है।

माना जा रहा है कि केंद्र सरकार ओडिशा सरकार के प्रस्ताव पर इसलिए नरम रवैये का परिचय दे सकती है, क्योंकि हाल में राज्यसभा उप सभापति के चुनाव में बीजद ने भाजपा का साथ दिया था। पता नहीं कि ऐसा होगा या नहीं, लेकिन यह समझना कठिन है कि आखिर विधान परिषद के गठन से ओडिशा जैसे गरीब राज्य का भला कैसे होगा? यदि ओडिशा में विधान परिषद गठित होती है तो उसमें कम से कम 49 सदस्य होंगे। आम धारणा है कि विधान परिषद का गठन करके नवीन पटनायक उन नेताओं को उपकृत करना चाहते हैैं जिन्हें वह आगामी विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी नहीं बनाना चाहते। यदि विधान परिषद के गठन के पीछे सचमुच यही उद्देश्य है तो इससे दुर्भाग्यपूर्ण और कुछ नहीं हो सकता।

यह लगभग तय है कि यदि उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र आदि राज्यों की तर्ज पर ओडिशा में भी विधान परिषद का गठन हो जाता है तो कुछ और राज्य भी इसी दिशा में आगे बढ़ेंगे। इसके पक्ष में उनके पास जो तमाम तरह के तर्क होंगे उनमें एक यह भी होगा कि द्विसदनात्मक व्यवस्था लोकतंत्र को मजबूती देती है। यह जानना दिलचस्प है कि ओडिशा के बीजद, कांग्रेस और भाजपा विधायकों की एक टोली ने कई राज्यों का दौरा किया और फिर मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को इस आशय की रपट सौंपी कि ओडिशा में भी द्विसदनात्मक व्यवस्था होनी चाहिए।

पता नहीं विधायकों की उक्त टोली ने अपनी रपट में और क्या लिखा है, लेकिन क्या यह कहा जा सकता है कि जिन राज्यों में विधान परिषदें नहीं हैैं वहां लोकतंत्र कमजोर हैै? आज के युग में यह रेखांकित करना राजनीतिक छल के अलावा और कुछ नहीं कि विधानसभा के साथ विधान परिषद होने से लोकतंत्र को मजबूती मिलती है। सच बात तो यह है कि हमारी संसद और विधानसभाएं जिस यांत्रिक और कामचलाऊ तरीके से चल रही हैैं उससे लोकतंत्र को कोई मजबूती नहीं मिल रही है।

एक सच यह भी है कि राज्यसभा के साथ विधान परिषदें जिस मकसद से गठित की गई थीं उससे वे भटक चुकी हैैं। राज्यसभा का गठन राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों के सदन के रूप में किया गया था। तर्क यह भी था कि राज्यसभा लोकसभा के मुकाबले राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर कहीं अधिक नीर-क्षीर ढंग से और दलगत हितों से परे हटकर विचार-विमर्श करेगी। इसीलिए इसे उच्च सदन और वरिष्ठों की सभा कहा गया, लेकिन बीते कुछ सालों का अनुभव तो यही कहता है कि अब राज्यसभा में लोकसभा के मुकाबले ज्यादा हंगामा होने लगा है। हाल के समय में राज्यसभा शायद ही कभी दलगत हितों से ऊपर उठकर विचार-विमर्श करती दिखाई दी हो। आगे भी इसकी कोई संभावना इसलिए नहीं दिखती, क्योंकि अब इस सदन में विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों से अधिक पराजित या पैसे वाले अथवा रिटायर्ड होने के कगार पर खड़े नेताओं को कथित तौर पर राज्यों के हितों की चिंता करने के लिए भेजा जाता है। स्थिति यह है कि नेताओं को समाजसेवी करार देकर भी राज्यसभा भेज दिया जाता है।

आज शायद ही किसी के पास इस सवाल का कोई ठोस जवाब हो कि आखिर राज्यसभा अपने विचार-विमर्श से किस तरह लोकतंत्र को मजबूती दे रही है? नि:संदेह इस सवाल का जवाब विधान परिषदों से भी चाहिए। विडंबना यह है कि हर क्षेत्र में सुधारों को लेकर चर्चा हो रही है, लेकिन संसदीय व्यवस्था में सुधारों को लेकर कहीं कोई चर्चा नहीं करना चाहता। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि संसद का पिछला सत्र अपेक्षाकृत कामकाजी साबित हुआ, क्योंकि एक अर्से से वह दिनों का काम महीनों और महीनों का काम सालों में निपटाने वाले अंदाज में कार्य कर रही है।

विधानसभाओं का हाल और भी बुरा है। वे राशन की दुकानों की तरह खुलती हैैं और आनन-फानन विधायी कामकाज निपटाकर बंद हो जाती हैैं। जब सदनों में जनप्रतिनिधि हंगामा करते हैैं तो यही माना जाता है कि वे जनता को दिखाने और खबरों में आने के लिए ऐसा करते हैैं। क्या यह हास्यास्पद नहीं कि जो नेता यह कहते नहीं थकते कि जनता बड़ी समझदार है वही हंगामा करके उसकी समझदारी की परीक्षा भी लेते रहते हैैं। जब से संसद और विधानसभाओं की कार्यवाही का टीवी पर प्रसारण होने लगा है तबसे हालात और खराब हुए हैैं। पहले नेता सदन में बोलने की तैयारी करके जाते थे। अब वे तख्तियां और बैनर तैयार करके जाते हैैं। कुछ तो ऐसे हैैं जो हर तरह के स्वांग करते हैैं। बहुत दिन नहीं हुए जब तेलुगु देसम पार्टी के एक सांसद कभी महिला का भेष धरकर संसद पहुंचते थे तो कभी मौलाना की शक्ल में।

हाल में प्रधानमंत्री ने एक साथ चुनावों पर नए सिरे से बल देते हुए लोकतांत्रिक परंपराओं में सुधार के लिए अटल बिहारी वाजपेयी के योगदान का स्मरण किया। बेहतर होगा कि केवल उनके योगदान का स्मरण न किया जाए, बल्कि जरूरी राजनीतिक सुधारों को आगे भी बढ़ाया जाए और वह भी प्राथमिकता के आधार पर। यह काम केवल सत्तापक्ष का ही नहीं, विपक्ष का भी है। राजनीतिक तौर-तरीकों में सुधार इसलिए आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य हो गए हैैं, क्योंकि राजनीति का छिछलापन अपने चरम पर है। आज जो नेता जितनी अधिक बेतुकी बातें या काम कर रहा है वह उतना ही अधिक चर्चा पा रहा है। इससे भी बुरी बात यह है कि नेताओं की स्तरहीन बयानबाजी राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बनी हुई है।

[ लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैैं ]