[कुलदीप नैयर]। मैंने यह महसूस किया कि सेक्युलर विचारधारा मानने वाले भी दूसरों की ही तरह कट्टरपंथी हैं। पिछले दिनों भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के मेरे घर आने को लेकर काफी गुस्सा जाहिर किया गया। टेलीफोन और ई-मेल के जरिये तमाम आलोचना सुनने-पढ़ने को मिली। कुल मिलाकर सबका यही कहना था कि आपको उन्हें अपने घर आने की अनुमति नहीं देनी चाहिए थी। इन आपत्तियों पर मैं अपनी बात स्पष्ट कर देना चाहता हूं। अमित शाह के आने के कुछ दिनों पहले कुछ कार्यकर्ता मेरे घर आए थे। जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के समय जेल में हम लोग साथ-साथ थे। उन्होंने मुझसे पूछा कि अमित शाह के मेरे घर आकर मिलने से मुझे कोई एतराज तो नहीं होगा? मैंने उनसे कहा कि कोई भी मेरे घर आ सकता है और मैं विचारधारा के आधार पर किसी से भेदभाव नहीं करता। मुझे लगता है कि धर्म को राजनीति में नहीं मिलाने की मेरी विचारधारा सबसे अच्छी है और हमें इसे अपनी सीने पर बिल्ला लगाकर नहीं घूमना चाहिए। किसी को अपने विचार उन लोगों के सामने रखने से नहीं डरना चाहिए जो आपके सख्त खिलाफ हैं। वैचारिक मतभेद को बीच में नहीं आने देना चाहिए।

आखिरकार, लोकतंत्र के मायने चर्चा और बहस ही तो है। महात्मा गांधी ने पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना से बातचीत की थी और यहां तक कि बंटवारे पर जोर नहीं देने के लिए उन्हें राजी करने उनके घर भी गए थे। जब उन्हें लगा कि वह जिन्ना को मनाने में विफल हो गए तो भी उनके बीच विचार की कटुता नहीं थी। वास्तव में जिन्ना को राजी करने में असफल रहने के बाद गांधी जी 21 दिनों के उपवास पर चले गए थे। इसे उन्होंने ‘शुद्घि’ कहा था। इससे यही सीख मिलती है कि हमें अपने मतभेद दूर करने के लिए बैठकर बातचीत करने से हिचकिचाना नहीं चाहिए। मुझे यह स्वीकार करना चाहिए कि अमित शाह के बारे में मेरा विचार यही थी कि वह आग उगलने जैसे स्वभाव वाले व्यक्ति हैं। उन्होंने अपनी शिष्टता और नम्रता, स्पष्ट विचार पद्घति, समझ, और सबसे ज्यादा अपने मिलनसार स्वभाव से मुझे चकित कर दिया। यह जानते हुए भी कि मेरा दर्शन उनके और भाजपा के दर्शन के विपरीत है, उन्होंने मुझे समझाने की कोशिश की। उन्होंने मुझे बताया कि वह छह साल के थे जब उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में जाना शुरू किया था। यह कहते समय उनकी आंखों में मैने गर्व का भाव देखा। बेशक वह नागपुर की रगड़ खा चुके हैं। अमित शाह के लिए यह लंबी दौड़ थी, लेकिन अंत में वह पार्टी के अध्यक्ष पद तक पहुंच गए।

आज भारत एक चौराहे पर खड़ा हैर्। हिंदुत्व को मानने वाले सत्ता को हथियाना चाहते हैं और धर्म को बीच में लाए बिना सबके एक रहने के सिद्घांत को बाहर फेंक देना चाहते हैं। मैंने अमित शाह के साथ बातचीत में इस विषय के कुछ हिस्से को छुआ। उन्होंने कहा कि जब भाजपा सत्ता हासिल करती है तो हर क्षेत्र को समग्र तरीके से विकसित करती है। मेरी राय थी कि इस प्रक्रिया में तो मस्जिद भी ढहा दी जाती है। इस पर वह उत्तेजित नहीं हुए। उन्होंने कहा कि क्षेत्र का विकास वहां के अफसरों पर निर्भर करता है। जिन दो बिंदुओं पर अमित शाह ने अपने विचार रखे वे थे-जाति और देश का विभाजन। उन्होंने कहा कि समाजवादी नेता जातीय राजनीति करते रह गए। उन्होंने समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया का नाम लिया और कहा कि वह हर वक्त जाति की बात करते थे। शायद यही कारण था कि शुरू के वर्षां में समाजवादी सिर्फ राज्यों में ही सत्ता हासिल कर पाए, केंद्र में नहीं। भाजपा अध्यक्ष ने इस पर जोर दिया कि मौजूदा दौर के समाजवादी नेता भी उसी राह पर चल रहे हैं। यह अचरज की बात है कि सभी के विकास की राजनीति करने वाले जब सत्ता में आते हैं तो कुछ समूहों की बेहतरी को लेकर बंट जाते हैं।

राज्य के स्तर पर तो इसे समझा जा सकता है, लेकिन वे केंद्र की सत्ता में आने पर भी विभाजन की राजनीति पर काबू नहीं रख पाते। सत्ताधारी भाजपा इसका उदाहरण है। उनके शासन के तहत करीब 20 राज्य हैं। भाजपा ने अलगअलग राज्यों में सत्ता पाने के लिए अलगअलग रणनीति एवं तरीके अपनाए हैं। हालांकि सेक्युलर विचारों वाली कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है, लेकिन अब वह वैसा संगठन नहीं रह गई है जैसा पहले कभी हुआ करती थी। 2019 में राहुल गांधी जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुकाबले में होंगे तो कठिनाई महसूस करेंगे। मोदी ने भाजपा को विंध्य के पार पहुंचाने में सफलता पाई है। कर्नाटक का उदाहरण देश के सामने है।

देश के बंटवारे के बारे में अमित शाह ने कहा कि अगर हम लोगों ने इंतजार किया होता तो भारतीय उपमहाद्वीप का बंटवारा नहीं हुआ होता। इस मुद्दे पर वह गलत हैं। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री लार्ड क्लेमेंट एटली, जिन्होंने अपने शासन के अंत की घोषणा की थी, ने 6 जून 1948 का दिन तय किया था जब वह एक या अनेक देशों के रूप में भारत छोड़ने वाले थे, लेकिन बंटवारा अगस्त 1947 में हुआ। लार्ड एटली की ओर से तय की गई तारीख से कम से कम दस महीने पहले। जब मैंने लार्ड माउंटबेटन से यह पूछा था कि बंटवारे को जून 1948 के पहले क्यों लागू कर दिया गया तो उन्होंने कहा कि मैं देश को इकट्ठा नहीं रख पाया। हालांकि उन्होंने यह कहकर इसे उचित ठहराया कि कोई दूसरा चारा नहीं था। दरअसल जैसी घटनाएं घटीं वे अमित शाह के विचारों के विपरीत थीं। मैंने जब लार्ड माउंटबेटन से कहा कि बंटवारे के दौरान हुई मौतों के लिए वह जिम्मेदार हैं तो उनका कहना था कि उन्होंने तब 20 लाख लोगों की जान बचाई जब उन्होंने दक्षिण एशिया में अपने सैनिकों के लिए जा रहे अनाज के जहाजों को भारत की ओर मोड़ दिया। उन्होंने कहा कि वह इस बात के लिए ईश्वर के सामने कसम खाएंगे कि उन्होंने लोगों को भूख से मरने से बचाया।

अमित शाह की टिप्पणी में निराशा का अंश था, लेकिन लगता नहीं है कि उनकी पार्टी ने सीख ली है। वह एक तरर्ह हिंदुत्व का शासन थोपना चाहती है, इसके बावजूद कि 17 करोड़ मुसलमान उसके खिलाफ हैं। एक बात और जो अमित शाह और उनकी पार्टी को याद रखनी चाहिए कि भारत के पास एक सेक्युलर संविधान है और जो भी देश में शासन करता है उसे इसका अक्षरश: पालन करना चाहिए। दुर्भाग्य से ऐसा लगता नहीं है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ खुद को चारों ओर फैला रहा है और इस प्रक्रिया में दूसरों की पहचान मिटा रहा है। भाजपा को उसकी जरूरत है, क्योंकि उसके पास अपना काडर नहीं है। जो भी वजह हो, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का शासन अशुभ है।

(लेखक प्रख्यात पत्रकार एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)