[शंभु सुमन]। नई सरकार के सामने एक तरफ आर्थिक विकास में तेजी लाने की चुनौती है तो दूसरी ओर बेरोजगारी दूर करने के लिए युवाओं में नई तकनीक के अनुसार कौशल विकास की जान भी फूंकनी है। कौशल विकास योजनाओं को गतिशील बनाने की राह में आने वाली बाधाएं हटानी हैं, क्योंकि नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार कहते हैं कि कौशल विकास की योजनाओं का स्वरूप युवाओं की महत्वाकांक्षा पूरी करने व रोजगार का अच्छा अवसर मिलने में सहायक की होनी चाहिए।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि मौजूदा सरकार के पिछले कार्यकाल में कौशल विकास को लेकर की गई पहल के ठोस नतीजे नहीं निकल पाए। बेरोजगारी के हाहाकार का नजारा केंद्र सरकार द्वारा 2015 में रोजगार देने वाले पोर्टल करियर सर्विस सेंटर पर रजिस्टर्ड बेरोजगारों की संख्या को देखकर भी लगाया जा सकता है, जो कि एक करोड़ को पार कर चुकी है। चौंकाने वाले इन आंकड़ों के पीछे एक बड़ा कारण कंपनियों की मांग के मुताबिक योग्य उम्मीदवारों का उपलब्ध न होना भी है।

निजी कंपनियों को तो ज्यादातर बेरोजगारों की योग्यता पर कोई भरोसा ही नहीं है। उनके द्वारा प्लेसमेंट का तरीका सरकारी विभागों से अलग और अत्याधुनिक है। दरअसल कहने को तो देश में नई शिक्षा की शुरूआत वर्ष 1950 से ही हुई। उद्देश्य नए कल-कारखानों के लिए कुशल कामगारों का विकास करना था, लेकिन सच्चाई यही है कि यह व्यवस्था कभी परवान नहीं चढ़ पाई। जिन्होंने कौशल हासिल की, उनमें बदलावों के अनुरूप सुधार की संभावना नहीं बनी। दूसरी तरफ सामान्य शिक्षा और प्रशिक्षण वाली व्यावसायिक शिक्षा के बीच की खाई बिल्कुल एक ‘अमीर’ और ‘गरीब’ व्यक्ति जैसी बनी रही।

सभी पिछली सरकारों व शिक्षाविदों ने यह मान लिया था कि मैटिक, इंटर, ग्रेजुएट या पोस्ट ग्रेजुएट करने वालों में व्यावसायिक शिक्षा एक ऐच्छिक कोर्स है। इसकी जरूरत सब को नहीं है। नतीजा यह हुआ कि दफ्तर में पानी पिलाने वाले, दरवाजा खोलने वाले, खाता-बही लिखने वाले और उन्हें सहेजने-संभालने वाले या उनका प्रबंधन करने वाले पूरी नौकरी के दौरान एक ढर्रे पर ही बने रहे।

उस दरम्यान जब तकनीकी बदलाव की बात आई तो उन्हें उसके अनुरूप बनाने की कोशिश नहीं हुई। दूसरे तकनीक और मशीनीकरण को व्यावसायिक शिक्षा के साथ जोड़ दिया गया। कर्मचारियों का प्रशिक्षण ढाक के तीन पात बनकर रह गया, जबकि इसके लिए वर्ष 1961 में नेशनल अप्रेंटिसशिप कानून भी बना। इसका मकसद कर्मचारियों को प्रशिक्षण देना था। बहरहाल तकनीक का दौर न केवल बदल चुका है, बल्कि इसमें वैश्विक गतिशीलता भी आ गई है। इस बीच यदि तमाम सरकारी और गैर-सरकारी प्रयासों से शिक्षा हासिल करने वाले युवाओं को कौशल विकास और कार्यकुशलता की दक्षता जरूरी होने की सीख मिल पाती है, तो सरकारों को भी इस संदर्भ में विशेष ध्यान देने की जरूरत है।

वैसे निजी सार्वजनिक भागीदारी के आधार पर केंद्र सरकार द्वारा 2008 में राष्ट्रीय कौशल विकास निगम बनाया गया है, जिसे 2015 में कौशल विकास एवं उद्यमिता मंत्रलय के अधीन कर दिया गया है। इस प्रयास के पर्याप्त नतीजे नहीं आने की वजह प्रशिक्षुओं की निर्भरता केवल 19 मंत्रलयों के सरकारी विभागों की नौकरियों पर होना है। दूसरी तरफ उन्हीं विभागों के अधिकतर कामकाज आउटसोर्स किए जा चुके हैं या फिर निर्माण व सर्विस के बड़े प्रोजेक्ट बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में हैं। वे आधुनिक तकनीक से लैस हैं, उनमें ऑटोमेशन के जरिये कई बदलाव भी किए जा रहे हैं।

ऐसे में घिसे-पिटे ढंग से कौशल विकास प्राप्त युवाओं की पहुंच उन तक कैसे बने, यह अहम है। देखना होगा कि नई सरकार उभरते भारतीय युवाओं को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, मशीन लर्निग जैसी तकनीकों के अनुरूप कितना प्रशिक्षित कर पाती है? उनका स्किल कितना विकसित हो पाता है? यह प्रशिक्षण किस तरह से सामान्य शिक्षा से जुड़ पाता है? हिंदी पढ़ें या नहीं, इसे लेकर विरोध जताने वाले तकनीकी प्रशिक्षण को स्कूली स्तर से जोड़ने के लिए क्यों नहीं आंदोलन छेड़ते हैं? जबकि कंप्यूटर की पढ़ाई ग्रामीण स्तर तक के स्कूलों में नहीं है, न ही इसे किसी भी बोर्ड ने आवश्यक विषय के रूप में लागू करना जरूरी समझा है।

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