[ शंकर शरण ]: सुप्रीम कोर्ट में दो नए जजों की नियुक्ति पर कार्यपालिका और न्यायपालिका में फिर ठन सी गई है। जिन दो जजों का नाम सुप्रीम कोर्ट के कोलेजियम ने भेजा था उसे कार्यपालिका ने अस्वीकार कर दिया। कारण यह बताया कि चयन में हाईकोर्ट के जजों की वरिष्ठता का ध्यान नहीं रखा गया और वरिष्ठता क्रम में 12वें और 36वें न्यायाधीश के नाम की अनुशंसा की गई, किंतु सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम ने उन्हीं नामों की पुन: अनुशंसा कर कार्यपालिका के पास भेजा दिया। ऐसा करते हुए कोलेजियम ने दलील दी कि सुप्रीम कोर्ट में ‘न्यायाधीश नियुक्ति का आधार वरिष्ठता नहीं, बल्कि प्रतिभा होना चाहिए।’ इस तर्क में बुनियादी अंतर्विरोध है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में ही वरिष्ठता के आधार पर मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति होती है।

जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1973 और 1977 में क्रमश: जस्टिस एएन रे और जस्टिस एमएच बेग को मुख्य न्यायाधीश बनाया था तब सीनियर जजों ने सुप्रीम कोर्ट से त्यागपत्र दे दिया था। उच्चतर न्यायपालिका में कहीं वरिष्ठता तो कहीं प्रतिभा की दलील देना मनमाना लगता है। कुछ अन्य सवाल भी उभरते हैं। हाईकोर्ट के जिन 35 जजों को कोलेजियम ने ‘कम प्रतिभा’ वाला माना उनका हाईकोर्ट का काम भी कमजोर समझा जाएगा। इससे उनकी सार्वजनिक छवि पर भी असर पड़ेगा। क्या यह उपयुक्त है?

कई बार ऐसा भी हुआ है कि कोलेजियम ने बाद में हाईकोर्ट के ऐसे जज को सुप्रीम कोर्ट में लिया जो सीनियर थे। फलत: हाईकोर्ट में दूसरे जज से सीनियर होते हुए भी वे सुप्रीम कोर्ट आकर जूनियर हो गए। इसका व्यावहारिक फल यह होता है कि मूलत: जूनियर जज सुप्रीम कोर्ट का चीफ जस्टिस बन जाता है और सीनियर जज बिना चीफ बने सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हो जाता है। यह मानना कठिन है कि यह सब अनायास होता है, क्योंकि कोलेजियम के सामने सारी बातें पहले से स्पष्ट होती हैं।

सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति का मामला बार-बार विवादित होता रहा है। इस पर कोलेजियम ने कई अंतर्विरोधी और अस्पष्ट तर्क दिए हैं। सबसे हैरत की बात है कि उसने अपनी अनुशंसा का कोई नियत मानदंड ही नहीं बनाया है। इस पर दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने भी सवाल उठाए थे। जस्टिस कर्णन मामले पर फैसला देते हुए एक पीठ ने कहा था कि जजों के चयन की पद्धति सवालों के घेरे में है और इसका समाधान निकालना चाहिए। कोलेजियम पद्धति द्वारा जजों की नियुक्ति की अनुशंसा करने के कोई मिनट्स नहीं रखे जाते, जबकि बहुत निचले स्तर की सरकारी बैठकों के मिनट्स रखे जाते हैैं, ताकि निर्णय की प्रमाणिकता, पारदर्शिता दर्ज रहे।

आखिर सुप्रीम और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति की अनुशंसा के मिनट्स न रखने का क्या मतलब? ऐसा नहीं कि यह अनजाने हो रहा है। कुछ वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट के एक सीनियर न्यायाधीश ने मिनट्स रखने की मांग भी की और नहीं माने जाने पर कोलेजियम की बैठक में शामिल होने से इन्कार कर दिया। फिर भी वही प्रक्रिया चल रही है। एक ओर कार्यपालिका से नियुक्तियों में पारदर्शिता की मांग की जाती है और दूसरी ओर न्यायपालिका अपने द्वारा अनुशंसा की जाने वाली नियुक्तियों का आधार गोपनीय रखती है। यह गोपनीयता इस हद तक रहती है कि सुप्रीम कोर्ट का कोई अगला जज भी न जान सके कि पहले किसी की नियुक्ति की अनुशंसा किन आधारों पर किसने की थी। इस पर कई पूर्व और वर्तमान जज तक अंगुली उठा चुके हैं।

स्वतंत्र भारत में जजों की नियुक्ति की शक्ति कार्यपालिका के हाथ में थी। यह व्यवस्था करीब चार दशकों तक चलती रही। 1993 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने द्वारा अनुशंसा वाली कोलेजियम व्यवस्था अपना ली। इसके परिणाम अच्छे हुए, यह स्वयं सुप्रीम कोर्ट के जज भी नहीं कहते। जस्टिस कर्णन से पहले भी कुछ जज अन्य जजों पर तरह-तरह के आरोप लगा चुके हैं, लेकिन कहीं कोई जांच-पड़ताल नहीं हुई।

न्यायपालिका की अंदरूनी गिरावट पर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस सव्यसाची मुखर्जी, जस्टिस रूमा पॉल, आदि ने समय-समय पर ऐसे प्रश्न उठाए हैं कि जजों की नियुक्ति की चालू व्यवस्था संतोषजनक और पारदर्शी नहीं है। क्या हमारे सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में सर्वश्रेष्ठ जज नहीं होने चाहिए? इस प्रश्न से न्यायपालिका बच रही है। न्यायाधीशों द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति करने की व्यवस्था गड़बड़ लगती है। दुनिया में कहीं ऐसा नहीं है। यदि ‘न्यायिक स्वतंत्रता’ के नाम पर इस अनोखी व्यवस्था को सही ठहराएं जो संविधान में भी नहीं है तब यही तर्क विधायिका के लिए भी होना चाहिए।

यदि उच्चतर न्यायपालिका अपने उत्तराधिकारी खुद तय कर रही है तो विधायिका और कार्यपालिका भी अपने-अपने उत्तराधिकारी क्यों न तय करे? आखिर न्यायिक स्वतंत्रता की तरह विधायिका, कार्यपालिका की स्वतंत्रता भी तो जरूरी है। संविधान के अऩुसार तीनों ही सरकार के बराबर और स्वतंत्र अंग हैं। चूंकि सभी जगहों पर मनुष्य ही काम करते हैं अत: मनुष्य वाली खूबियां-खामियां सब में होंगी। कोई उससे मुक्त नहीं। कोलेजियम द्वारा ऐसे-ऐसे जज सुप्रीम कोर्ट आए जो हाईकोर्ट में ही रोजाना घंटों लेट आते थे। सुप्रीम कोर्ट आकर भी उनका वही हाल रहा। सुप्रीम कोर्ट में ऐसे जज भी आए जिन्होंने पूरे कार्यकाल कभी एक शब्द भी कोर्ट में कुछ न कहा, न कोई फैसला लिखा। वे अपना समय काट कर चले गए।

फैसला लिखने में बहुत देर होने पर एक जज ने कहा था कि उन्हें ‘फैसला लिखने की तनख्वाह नहीं मिलती।’ यह सब दिखाता है कि उच्चतर जजों की नियुक्ति का अधिकार खुद ले लेने का कोई बेहतर परिणाम नहीं मिला है। वैसे भी संघीय लोकतंत्र में सरकार के तीनों अंगों के बीच ‘सेपेरेशन ऑफ पावर’ यानी शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत स्थापित है। संयुक्त राज्य अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए चयन कार्यपालिका का प्रमुख अर्थात राष्ट्रपति स्वयं करता है। उसकी पुष्टि विधायिका करती है। विधायिका की सहमति बिना किसी जज की नियुक्ति नहीं हो सकती। साफ है कि अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट के जज खुद अगले जजों की नियुक्ति की अनुशंसा नहीं करते।

सरकार का कोई अंग स्वयं अपने उत्तराधिकारी नियुक्त न करे, यही उचित है। विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका, तीनों की नियुक्तियां दूसरे करें, लेकिन नियुक्त हो जाने के बाद उनके कामों में हस्तक्षेप न हो। यही तीनों अंगों की अलग-अलग स्वतंत्रता है। ‘चेक एंड बैलेंस’ की जो व्यवस्था है वह शक्तियों के पृथक्करण का ही एक अंग है। भारत में जो हो रहा है वह न्यायपालिका में आ गई एक विकृति है।

सुप्रीम कोर्ट के जजों ने खुद अपने उत्तराधिकारियों की अनुशंसा करने की शक्ति अपने हाथ में ले ली है। यह मूलत: असंवैधानिक होने के साथ-साथ न्यायिक कार्य को भी प्रभावित करने वाली है। जस्टिस कर्णन ने जजों पर कई आरोप लगाए थे, लेकिन उनकी कभी कोई जांच नहीं हुई। जबकि कार्यपालिका और विधायिका के उच्चाधिकारियों पर ऐसे आरोपों की सदैव जांच-पड़ताल होती है। स्पष्ट है कि नियुक्तियों और आरोपों, दोनों पर हमारे सर्वोच्च न्यायपालकों को कुछ समान और सुनिश्चित मानदंड बनाने ही चाहिए।

( लेखक राजनीति शास्त्री एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं )

लोकसभा चुनाव और क्रिकेट से संबंधित अपडेट पाने के लिए डाउनलोड करें जागरण एप