रांची, प्रदीप शुक्ला। Jharkhand Politics केंद्रीय चुनाव आयोग ने स्पष्ट कर दिया है कि बिहार विधानसभा चुनाव के साथ ही अन्य राज्यों में खाली विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होंगे। राज्य की हेमंत सोरेन की गठबंधन सरकार को इसका बाखूबी अंदाजा था और पिछले करीब एक-डेढ़ महीने से सरकार जो भी निर्णय ले रही है, उनमें कहीं न कहीं इन सीटों पर होने वाले उपचुनाव की चिंता झलक रही थी। झामुमो ने अपने घोषणापत्र के लगभग सभी बड़े मुद्दों को धरातल पर उतारने की कवायद शुरू कर दी है, जिससे राज्य में एकाएक राजनीतिक माहौल गरम हो गया है। विपक्षी भाजपा भी तैयार है और हेमंत सरकार पर लगातार तीखे हमले कर रही है। राज्य में राजनीतिक गुणा-भाग का दौर शुरू हो गया है। राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं कि दुमका और बेरमो सीट के परिणाम यह तय करेंगे कि आने वाले समय में राज्य की राजनीति की दशा और दिशा क्या होगी।

दुमका सीट मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के छोड़ने से खाली हुई है, तो वहां से उनके भाई बसंत सोरेन मैदान में उतर सकते हैं। भाजपा में भी मंथन चल रहा है। विधानसभा चुनाव में आजसू से नाता तोड़ने के नुकसान का आकलन हो चुका है और इस बार भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व ऐसी कोई गलती दुहराएगा, इसकी उम्मीद कम ही है। भाजपा कोशिश करेगी कि आजसू पूरी मजबूती के साथ उसके गठबंधन में रहे। वैसे भाजपा दोनों सीटों पर लड़ने की तैयारी में जुट गई है। ऐसे में बेरमो सीट को लेकर फिर पेच फंस सकता है, क्योंकि इस पर आजसू दावा कर सकती है। भाजपा नेतृत्व के लिए यह परीक्षा की घड़ी होगी कि वह आजसू को कैसे मनाती है।

इधर दुमका सीट से खुद बाबूलाल मरांडी के लड़ने की चर्चा है। अभी वह गिरिडीह जिले की धनवार सीट से विधायक हैं। वह अपनी पार्टी झारखंड विकास मोर्चा का भाजपा में विलय कर चुके हैं। केंद्रीय चुनाव आयोग से उनके विलय को सही ठहराया जा चुका है और वह राज्यसभा की दो सीटों के लिए हुए चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के विधायक के रूप में अपना मत भी दे चुके हैं, बावजूद इसके हेमंत सरकार उन्हें नेता प्रतिपक्ष का दर्जा नहीं दे रही है। विधानसभा अध्यक्ष कानूनी पहलुओं को देख रहे हैं। भाजपा इसे मुद्दा बनाए हुए है।

हेमंत सरकार उपचुनाव को लेकर कितनी संजीदा है इसका अंदाजा पिछले करीब डेढ़ महीने में सरकार के स्तर पर लिए गए तमाम निर्णय हैं। स्थानीयता नीति को फिर से परिभाषित करने, सरना धर्म कोड को लागू करने, राज्य में स्थापित उद्योगों में 75 प्रतिशत नौकरियां स्थानीय लोगों को ही देने, खानों के आवंटन में स्थानीय लोगों को हिस्सा देने सहित कई ऐसे ज्वलंत मुद्दों को छेड़ दिया है, जिससे राजनीतिक गरमी काफी बढ़ गई है। वैसे देखा जाए तो इनमें से कुछ ऐसे मुद्दे रहे हैं, जिन्हें लगभग हर सरकार अपने कार्यकाल का ढाई-तीन वर्ष पूरा होने के बाद उठाती रही है, ताकि आगामी विधानसभा चुनाव में उसका फायदा लिया जा सके।

गठबंधन सरकार घोषणापत्र में किए गए किसानों की ऋण माफी, सौ यूनिट तक बिजली मुफ्त करने, बेरोजगारों को भत्ता देने का अपना वादा पूरा नहीं कर पाई है। कोविड से पैदा हुए हालात के बाद सरकार नई योजनाएं भी शुरू नहीं कर सकी है। ऐसे में जनता में आक्रोश लगातार बढ़ता जा रहा है। देशभर से राज्य में आए मजदूरों को काम भी नहीं मिल पा रहा है और वे सभी निराश होकर वापस आजीविका के लिए दूसरे राज्यों को लौटने लगे हैं। इन सबके बीच उपचुनाव में जाना गठबंधन सरकार के लिए काफी मुश्किलें पैदा करने वाला है। ऐसे में उन मुद्दों को सामने लाया जा रहा है जिनका समाधान आसान नहीं है। स्थानीयता नीति और सरना धर्म कोड बहुत जटिल विषय हैं। स्थानीयता नीति पर एक बार फिर बहस शुरू हो गई है। सरना कोड पर तो भाजपा चुप्पी साध लेगी, लेकिन स्थानीयता नीति पर सरकार आगे बढ़ती है तो बवाल होना तय है।

बीते दिनों राज्यसभा की दो सीटों के लिए संपन्न हुए चुनाव में भाजपा ने 31 वोट का इंतजाम कर गठबंधन सरकार को चौंका दिया था। इसके कुछ दिन बाद ही प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष व वित्त मंत्री डॉ. रामेश्वर उरांव ने यह कहकर खलबली मचा दी थी कि भाजपा उनके चार विधायकों को तोड़ना चाहती है। इसके बाद पार्टी के राज्य नेतृत्व और सरकार से नाराज कांग्रेस विधायकों का एक धड़ा गुपचुप दिल्ली जाकर केंद्रीय नेतृत्व को बता आया था कि अगर उनकी नहीं सुनी गई तो कांग्रेस टूट सकती है। गठबंधन सरकार अस्थिर हो सकती है। इस पर केंद्रीय नेतृत्व तक हलचल हुई थी। बाद में हेमंत सोरेन ने असंतुष्ट कांग्रेसी विधायकों को मनाने के लिए उनकी मर्जी के अनुसार कुछ अफसरों के तबादले और तैनाती कर दी। फिलहाल सब शांत दिख रहा है, पर उपचुनाव के परिणाम यदि गठबंधन सरकार के अनुकूल नहीं रहे तो राज्य में काफी उथल-पुथल मच सकती है।

[स्थानीय संपादक, झारखंड]