नई दिल्ली, [अनुराग दीक्षित]। गत एक फरवरी को वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जैसे ही अपने बजट भाषण का 135वां पैरा पढ़ा। तमाम माननीयों की बांछें खिल गईं। इसमें राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और राज्यपालों के वेतन में इजाफे का एलान था। अगले पैरा में बात सांसदों के वेतन-भत्ते की थी। वित्त मंत्री ने 1 अप्रैल से सांसदों के वेतन-भत्ताें को नए सिरे से तय करते हुए जरूरी बदलाव लाने का एलान किया। संभवत: यही इकलौता ऐसा एलान रहा होगा, जहां सत्ता और विपक्ष का अंतर खत्म हो गया हो। क्योंकि बजट भाषण के साथ ही पेश हुए वित्त विधेयक में वित्त मंत्री ने सांसदों के वेतन को 50 हजार से बढ़ाकर एक लाख और पेंशन को 20 हजार से बढ़ाकर 25 हजार करने की सिफारिशों को आगे बढ़ा दिया।

वैसे इस मौके पर वित्त मंत्री ने सांसदों द्वारा खुद ही खुद का वेतन तय किए जाने पर जनता की नाराजगी का जिक्र किया। संकेत दिया कि साल 2023 से संसद सदस्यों का वेतन खुद सांसद नहीं, बल्कि एक नया तंत्र तय करेगा। यकीनन बजट भाषण के 166 पैराग्राफों में से सिर्फ दो पैरा में सिमटे इस एलान के काफी मायने हैं।

दरअसल संविधान के अनुच्छेद 106 में संसद सदस्यों के वेतन-भत्ताें का जिक्र है। समय के साथ इसमें बदलाव भी होता रहा है। 1954 में इसे लेकर कानून बना। 1976 में पेंशन से जुड़े पहलुओं को इसमें शामिल किया गया। 27 अगस्त 2001 को तत्कालीन सरकार ने बताया कि वेतन, भत्ते और पेंशन हर पांच साल में तय किए जाएंगे। कुल मिलाकर अब तक भारत के सांसदों के वेतन—भत्ताें में 9 बार इजाफा हो चुका है। साल 1954 में 400 रुपये प्रति महीना वेतन की व्यवस्था थी, जो दस साल बाद 1964 में बढ़कर 500 रुपये की गई। 1983 में इसे बढ़ाकर 750 रुपये किया गया, जबकि 1985 में 1000 रुपये। तीन साल बाद 1988 में ही एक बार फिर बढ़ाकर इसे 1500 रुपये कर दिया गया, जबकि करीब 10 साल बाद 1500 से बढ़ाकर सीधा 4000 रुपये। तीन साल बाद 2001 में इसमें तीन गुना इजाफा हुआ और सांसदों का वेतन 12,000 रुपये हो गया। 2006 में ये बढ़कर 16,000 रुपया हुआ जबकि साल 2010 में तीन गुने से ज्यादा इजाफे के साथ माननीयों का वेतन 50 हजार रुपया कर दिया गया। वैसे ये आंकड़ें सिर्फ वेतन में हुए इजाफे भर के हैं। समय के साथ सांसदों को मिलने वाली बाकी सुविधाओं में भी बदलाव होता रहा है।

इन सुविधाओं में अगले इजाफे के लिए मोदी सरकार में बनी कमेटी की अगुवाई तत्कालीन सांसद और वर्तमान में यूपी के मुखिया योगी आदित्यनाथ ने की। कमेटी ने सांसदों का वेतन 50 हजार से बढ़ाकर दोगुना यानी एक लाख करने की सिफारिश की, जिस पर इस बजट के वित्त विधेयक में मुहर भी लग चुकी है। यानी अप्रैल 2018 से माननीयों को दोगुने वेतन का तोहफा मिलेगा। पिछली बार 2010 में सांसदों के वेतन बढ़ाए जाते वक्त बताया गया था कि भारत के माननीयों की हालत दुनिया के सदस्यों के मुकाबले दयनीय है। दावा था कि तब अमेरिका में संसद सदस्य को सालाना करीब 77 लाख रुपये मिलते थे, कनाडा में सालाना करीब 70 लाख, इटली में करीब 68 लाख, ऑस्ट्रेलिया में करीब 54 लाख, ब्रिटेन में करीब 44 लाख जबकि भारत के सदस्यों को सालाना केवल 1 लाख 92 हजार रुपये मिलते हैं। यकीनन दुनिया के मुकाबले अंतर कहीं ज्यादा था और इसी तर्क के सहारे आंशिक विरोध के बीच सांसदों के वेतन इजाफे पर संसद की मुहर भी लग गई।

वैसे पूर्व लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी जैसे कुछ वरिष्ठ नेता वेतन इजाफे पर आपत्ति जताते रहे हैं। स्पीकर रहते सोमनाथ चटर्जी ने सांसदों के वेतन तय करने के लिए अलग वेतन आयोग बनाने की सलाह दी थी, ताकि माननीयों पर खुद ही खुद का वेतन तय करने का आरोप न लगे और संसद की गरिमा बनी रहे। चटर्जी ने इस संदर्भ में एक नोट तैयार कर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भेजा, लेकिन तत्कालीन सरकार ऐसा करने का साहस नहीं जुटा सकी और मामला ठंडे बस्ते में चला गया।

वैसे चटर्जी ‘काम नहीं तो वेतन नहीं’ पर भी जोर देते रहे हैं, लेकिन बात आगे नहीं बढ़ सकी। बीते दिनों भाजपा के सांसद वरुण गांधी ने इस बात को अपने ढंग से आगे बढ़ाया। लोकसभा अध्यक्ष को पत्र लिखकर मांग की कि करोड़पति सांसद वेतन न लें। उनके अपने तर्क थे, जिनमें काफी हद तक दम भी है। मसलन, 2014 में लोकसभा में चुनकर आए सांसदों में से 443 सांसद करोड़पति हैं। करीब 82 फीसद लोक सभा सदस्यों की औसत संपति करीब 14 करोड़ 70 लाख रुपये है, जबकि 2009 में चुनकर आए सांसदों की केवल 5.35 करोड़ थी। वरुण की दलील थी कि समाज सेवा के नाम पर राजनीति में आने वाले करोड़पति सांसद तो अपना वेतन छोड़ ही सकते हैं।

वैसे महात्मा गांधी भी कहा करते थे कि जनप्रतिनिधि को अपनी बुनियादी जरूरत पूरा करने के लिए ही न्यूनतम सुविधाएं लेनी चाहिए। मगर आजाद भारत के 70 साल के इतिहास में संभवत: ऐसा सिर्फ एक बार ही हो सका जबकि माननीयों ने देशहित को सोचकर अपनी सुविधाओं में कटौती की हो। 17 अक्टूबर 1949 को संविधान सभा में मद्रास के सदस्य वी आई मुनीस्वामी पिल्लै ने सांसदों को मिलने वाले भत्ते को 45 रुपये से घटाकर 40 रुपये करने का प्रस्ताव रखा। तब देश की बदहाल आर्थिक तस्वीर के चलते माननीयों के दैनिक भत्ते में कटौती करने का तर्क था, लेकिन अभी ऐसा मुमकिन नजर नहीं आता। ये तब हो रहा है जबकि संसद की बैठकें साल दर साल कम हो रही हैं जबकि हंगामा बढ़ रहा है। 16वीं लोक सभा के 13 सत्रों में अकेले लोक सभा में ही करीब 225 घंटे हंगामे की भेंट चढ़ चुके हैं। राज्य सभा में भी हालात कमोबेश ऐसे ही हैं।

किसान अपनी आमदनी दोगुनी होने के लिए साल 2022 का इंतजार कर रहा है, वहां के सरकारी कर्मचारियों का न्यूनतम वेतन पहले वेतन आयोग की 35 रुपये की सिफारिश से बढ़कर सातवें वेतन आयोग में 18 हजार हो चुका है, जबकि माननीयों का वेतन दस बार बढ़कर साल 1954 के 400 रुपये से बढ़कर 2018 में 1 लाख रुपये। जाहिर है माननीयों को अपनी जवाबदेही और जिम्मेदारी के बारे में भी सोचना होगा। अब उम्मीद साल 2023 से है, जबकि व्यवस्थागत तौर पर जरूरी बदलाव आ सकेगा।

(लेखक टेलीविजन पत्रकार हैं)