नवनीत शर्मा। बचपन में एक कहानी पढ़ी थी। कालखंड और चरित्रों के नाम स्पष्टता के साथ याद नहीं, लेकिन चरित्र नहीं मिटते। एक भारतीय का जापान पहुंच कर केले खाने का मन हुआ। जब केले नहीं मिले तो उन्होंने कहा शायद जापान में केले मिलते ही नहीं। अचानक एक व्यक्ति कहीं से केले लाया और बोला, ‘कृपया भारत जाकर किसी से यह न कहिएगा कि जापान में केले नहीं मिलते।’ अपने देश के बारे में इतनी सी बात सुनना भी उससे सहन नहीं हुआ। अब ऐसे चरित्र धुंधलाने लगे हैं।

अब इसके बरक्स उस ब्रितानवी पर्यटक एंड्रयू फ्रॉस्ट के परेशान चेहरे की कल्पना करें जो अपने देश से ही शिमला में होटल की ऑनलाइन बुकिंग करने के बाद बीते सप्ताह पहुंचा तो उसे होटल नहीं मिला। पत्नी और दो बच्चों के साथ जिस व्यक्ति का आधा दिन होटल तलाशने में निकल गया, इसके बावजूद होटल नहीं पा सका, वह भारत और खासतौर पर शिमला की कैसी छवि लेकर जाएगा? डिजिटल इंडिया के इस दौर में पर्यटन राज्य हिमाचल में उसका अनुभव कतई मीठा नहीं हो सकता। इस खबर के पार जाना इसलिए जरूरी है, क्योंकि शिमला में इस प्रकार का साइबर क्राइम पहली बार हुआ है। शिमला वॉक्स कंपनी के सुमित राज आदि ने उनकी दूसरी व्यवस्था करवा दी, लेकिन हस्तीमल हस्ती ने यूं तो नहीं कहा है :

                                             गांठ अगर लग जाए तो फिर रिश्ते हों या डोर,

                                             लाख करें कोशिश खुलने में वक्त तो लगता है।

इसी बहाने यह समय सोचने का है कि यह प्रवृत्ति आती कहां से है। बहुत वर्ष नहीं हुए हैं जब पालमपुर के चाय बागान में एक विदेशी युवती के साथ र्दुव्‍यवहार हुआ था। क्या यह उन दुकानदारों को देखने का समय नहीं है कि जिनकी दुकानों पर सामग्री रेट लिस्ट के मुताबिक नहीं, खरीदार की गाड़ी के नंबर, चमड़ी के रंग या भाषा पर निर्भर करती है? हिमाचल को कभी विधानसभा में पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ब्रांड बनने का सूत्र दे गए थे। उस ब्रांड को खोजना होगा। हाल में हरियाणा के सूरजकुंड मेले में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी हिमाचलियों के दिल को बड़ा बताया है। यह और बात है कि पर्यटकों को भी पर्यटकों वाले अदब सीखने चाहिए। कई पुलिस वाले उनकी बदसलूकी के शिकार होते हैं। हरियाली के आंगन में प्लास्टिक की बोतलें और पहाड़ पर शराब की बोतलें फेकना भी उतना ही गलत है, लेकिन वह अंतरराज्यीय मामले हैं, पर्यटक विदेशी हो तो मामला साख तक पहुंचता है।

तबादला एक्ट का दीर्घायु जिन्न 

जिन्न केवल कहानियों में नहीं होते, राजनीतिक भी होते हैं। ‘सुविज्ञ सूत्रों’ के हवाले से फिर शिक्षकों के तबादला एक्ट का जिन्न बाहर आ रहा है। आदर्श प्रारूप है। आदर्श होने का पहला संकेत यह है कि तबादले सिफारिश के बिना होंगे। स्थानांतरण हो या सेवानिवृत्ति, सत्र के मध्य कुछ नहीं होगा। शिक्षकों के तबादले से पहले उनसे पसंद के पांच स्थान पूछे जाएंगे। तबादला एक्ट बन जाए तो पारदर्शिता रहेगी, इसमें संदेह नहीं लेकिन कुछ सवाल हैं। क्या डीओ नोट बन कर हर कार्यालय में छा जाने का सौभाग्य पाने वाले माननीयों के लैटर पैड सूने नहीं हो जाएंगे? क्या ज्वाइनिंग लेने और रिलीव करते समय संस्थान के मुखिया स्वतंत्र नहीं हो जाएंगे? जनप्रतिनिधियों को कौन पूछेगा? पूरी आशंका है कि दशकों से जिंदा यह जिन्न फिर सो जाएगा।

सवाल ये भी हैं कि तबादला एक्ट केवल अध्यापकों के लिए क्यों? क्या केवल शिक्षा विभाग के कर्मचारियों का अर्थ ही सरकारी कर्मचारी है? थोड़ा सा ध्यान उन स्कूली बस्तों पर भी जाना चाहिए जो बंटे तो निशुल्क थे, लेकिन उनके छीजने की शिकायत बच्चे कर रहे हैं। उन अध्यापकों की भी पहचान हो जो उत्कृष्ट काम कर रहे हैं, पर पुरस्कार के लिए आवेदन नहीं करते। तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के लिए साक्षात्कार खत्म करने का भी विरोध हुआ था, क्योंकि कुछ के हाथ बंध रहे थे।

सरकार पुत्र नामालूम स्थानीय वासी 

हिमाचल प्रदेश सरकार और भाजपा संगठन के सभी महत्वपूर्ण लोग दिल्ली विधानसभा चुनाव प्रचार में व्यस्त हैं। इस बीच सदियों से चली आ रही सरकारी भाषा (खासतौर पर राजस्व विभाग) के दर्शन हुए। एक हाकिम ने बेहद दिलचस्प एंट्री जमाबंदी में डाली है। भाषा के हलके में जो भी गुल खिलें, पुराने गुलों की महक ही अलग है। एक जमाबंदी में एक कोष्ठक का शीर्षक है, ‘नाम पत्ती या तरफ मय नंबरदार तदाद मुआमला।’ इसके नीचे नंबरदार का नाम है। अगले कोष्ठक का शीर्षक है, ‘नाम मालिक व अहवाल।’ इसके नीचे जो लिखा है, वह बेहद दिलचस्प है। लिखा है, ‘सरकार हि.प्र. स्वयं सरकार हि.प्र. पुत्र नामालूम स्थानीय वासी।’ इतने वर्षो में लिपि तो देवनागरी हो गई, लेकिन तेवर वही हैं जो विभाग के अलावा कोई समझे तो पुरस्कृत हो जाए।

(लेखक हिमाचल प्रदेश के राज्‍य संपादक हैं)

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