शिवकांत शर्मा : उदयपुर में दर्जी कन्हैयालाल की गला रेत कर की गई हत्या को देश और दुनिया को आतंकित करके चुप कराने की चेष्टा के रूप में देखा जाना चाहिए। यह केवल आस्था पर कथित चोट का बदला लेने के लिए की गई हत्या नहीं, बल्कि राय बनाने की बुनियादी इंसानी प्रवृत्ति का गला घोंटने की मंशा से किया गया कृत्य है। इस हत्या के जरिये यह जताया जा रहा है कि अपने कथन के अनुसार निकाले गए मतलब को बिना किसी आधार, तर्क और शर्त के मानें और जैसा कहा जाए वैसा करें, वर्ना 'सिर तन से जुदा' कर दिया जाएगा। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को हठधर्मिता का बंधक बनाने का प्रयास है।

दो साल पहले पेरिस में सैम्युअल पैटी नामक शिक्षक की इसी तरह निर्मम हत्या की गई थी। पैटी पर आरोप था कि उन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता विषय पर अपनी कक्षा में शार्ली आब्दो पत्रिका में छपे पैगंबर साहब के कार्टूनों की चर्चा की थी। इसका बदला लेने के लिए चेचेन मूल के एक मुस्लिम प्रवासी युवक ने पैटी की हत्या कर दी थी। उस हत्या की फ्रांस और यूरोप की हर पार्टी और समाज के प्रत्येक तबके ने एक स्वर में घोर भर्त्सना की। फ्रांस सरकार के सख्त रुख पर मलेशिया, पाकिस्तान आदि ने फ्रांसीसी राजदूतों को तलब किया। फ्रांस की वस्तुओं का बहिष्कार करने की धमकियां दीं, पर यूरोप की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाला फ्रांस अडिग रहा। इससे आतंकी हत्यारों के हौसले पस्त हुए। अफसोस की बात है कि पाकिस्तान और भारत में ऐसा नहीं हो रहा।

लगभग एक दशक पहले पाकिस्तानी पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर की हत्या इसलिए कर दी गई थी, क्योंकि वह ईशनिंदा की अफवाह के कारण जेल काट रही ईसाई महिला आसिया बीबी को मौत की सजा से बचाने के लिए ईशनिंदा कानून में बदलाव की पैरवी कर रहे थे। तासीर को उनके ही अंगरक्षक मुमताज कादरी ने गोलियों से भून डाला था। तासीर की हत्या की निंदा तो हुई, पर कट्टरपंथियों ने जश्न भी मनाया। कादरी को फांसी की सजा दी गई, लेकिन न तो पाकिस्तान के ईशनिंदा कानून में कोई संशोधन किया गया और न ही वहां ईशनिंदा के आरोप लगाकर लोगों को मारने का सिलसिला थमा।

उदयपुर में कन्हैयालाल की हत्या से एक सप्ताह पहले अमरावती में दवा विक्रेता उमेश कोल्हे की भी गर्दन में चाकू घोंप कर हत्या की गई थी। इस हत्या का कारण नुपुर शर्मा के समर्थन में वाट्सएप पर मैसेज शेयर करना रहा। तीन साल पहले हिंदू समाज पार्टी के नेता कमलेश तिवारी को लखनऊ में इसी तरह मारा गया था। कमलेश ने पैगंबर साहब के लिए वैसी ही भाषा का प्रयोग किया था, जैसी समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान ने आरएसएस सदस्यों के लिए की थी। कमलेश को देश का सौहार्द भंग करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। नौ महीने जेल में रहने के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश पर उन्हें रिहा किया गया। रिहाई के कुछ समय बाद फरीदुद्दीन शेख और अशफाक शेख ने उनकी हत्या कर दी।

नुपुर शर्मा की गिरफ्तारी की मांग करने वाले भूल जाते हैं कि हत्यारों को गिरफ्तारी से संतोष नहीं होता। उमेश कोल्हे, कन्हैयालाल और कमलेश तिवारी की हत्याओं की निंदा जरूर हुई, पर उन्हें भीड़ की हिंसा की निंदनीय घटनाओं से जोड़ने और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति का नतीजा बताने की कोशिश भी की गई, जो आतंकी हत्यारों को अपने कृत्यों के औचित्य जैसी प्रतीत हो सकती है।

नुपुर शर्मा ने सर्वोच्च न्यायालय से अपील की थी कि उनके खिलाफ विभिन्न राज्यों में दायर सारी एफआइआर दिल्ली स्थानांतरित कर दी जाएं। उन्होंने यह अपील खुद को मिल रही धमकियों को देखते हुए अपनी सुरक्षा के लिए की थी। उसे खारिज करते हुए सर्वोच्च न्यायालय की अवकाशकालीन खंडपीठ के जजों की सख्त टिप्पणियां आश्चर्यजनक ही नहीं, अनावश्यक भी थीं। जजों ने नुपुर शर्मा की सुरक्षा पर विचार करने के बजाय उन्हें ही देश की सुरक्षा के लिए खतरा बता दिया। इतना ही नहीं उन्हें फटकार लगाते हुए कहा कि 'उनकी हल्की जबान ने पूरे देश में आग लगा दी है। उदयपुर की हत्या के लिए भी वही जिम्मेदार हैं। उन्हें टीवी पर जाकर पूरे देश से माफी मांगनी चाहिए।'

क्या सुप्रीम कोर्ट के जजों ने अपनी टिप्पणियों से नुपुर के खिलाफ पुलिस और निचली अदालतों में पूर्वाग्रह पैदा नहीं कर दिया? एक तरफ तो उन्होंने अदालत में विचाराधीन मामले पर बहस कराने के लिए टीवी चैनलों और उनमें भाग लेने के लिए पार्टी प्रवक्ताओं की आलोचना की। दूसरी तरफ वे स्वयं एक विचाराधीन मामले पर ऐसी टिप्पणी कर गए, जो टिप्पणी कम और तल्ख फैसला अधिक लगता है।

जजों ने टीवी चैनल पर हुई तू-तू मैं-मैं को देखने का दावा भी किया। जिन इस्लामी विद्वानों ने वीडियो देखा है, उनमें से कई यह मानते हैं कि नुपुर ने जो कहा वह गलत नहीं था। ऐसे में क्या सर्वोच्च न्यायालय के जजों का यह कहना कि नुपुर शर्मा को टीवी पर जाकर माफी मांगनी चाहिए, उन्हें बिना सुनवाई किए अपराधी ठहराने जैसा नहीं? क्या उमेश, कन्हैयालाल और कमलेश तिवारी के हत्यारों को जजों की यह फटकार अपने जुर्म के औचित्य जैसी नहीं लगेगी?

आस्थाओं पर स्वस्थ संवाद की भारत में बहुत पुरानी परंपरा रही है, लेकिन जब लोग एक समुदाय को अपनी आस्था के बचाव में इतना हिंसक होते और न्यायपालिका को उसकी खुली हिमायत करते देखेंगे तो क्या वे भी हिंसा की तरफ आकर्षित नहीं होंगे? यह चिंताजनक है कि राजनीतिक पार्टियां और मीडिया के कुछ लोग इन जघन्य हत्याओं की सीधी निंदा करने के बजाय दादरी के अखलाक और राजसमंद के अफराजुल जैसी जघन्य हत्याओं से जोड़ने या फिर नफरत की लहर से जोड़ कर सत्ताधारी पार्टी और सरकार को कोसने की ताक में हैं। हर जघन्य अपराध की सीधी भर्त्‍सना होनी चाहिए और समवेत स्वर में होनी चाहिए, किंतु-परंतु करना और हर हत्या को दूसरी हत्याओं से जोड़ने की कोशिश करना अपराधियों का हौसला बढ़ाता है।

उत्तरी आयरलैंड से लेकर स्पेन के बास्क प्रांत तक जहां-जहां नेताओं और समाज के सभी तबकों ने समवेत स्वर में सांप्रदायिक हिंसा की भर्त्‍सना की, वहा-वहां उस पर अंकुश लग पाया है। पंजाब की हिंसा पर भी इसी समवेत भर्त्‍सना से काबू पाया गया था। जब तक हम एक स्वर में निंदा करने के बजाय एक-दूसरे की प्रतिक्रिया तौलने और दोषारोपण करने की ताक में रहेंगे, तब तक हम केवल अपराधियों को ही नहीं, बल्कि उनके देसी-विदेशी हिमायतियों को भी दहशत फैलाने का बढ़ावा देते रहेंगे।

(लेखक बीबीसी हिंदी सेवा के पूर्व संपादक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)