तरुण गुप्त। पिछले दिनों भारतीय उच्च शिक्षा में एक प्रवर्तनकारी परिवर्तन ने दस्तक दी है। इसके अंतर्गत केंद्रीय विश्वविद्यालयों सहित देश के करीब 45 विश्वविद्यालयों में स्नातक पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए संयुक्त परीक्षा यानी सीयूईटी आयोजित होगी। इसके माध्यम से वर्तमान व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव होने जा रहा है। भारत में लंबे समय से स्नातक प्रवेश प्रक्रिया अतार्किक हो चली थी। विभिन्न बोर्ड परीक्षाओं की 12वीं कक्षा के प्राप्तांकों में अनवरत ऊंची बढ़ोतरी ने कालेजों में कटआफ को आसमानी स्तर पर पहुंचा दिया था। इस कारण कुछ प्रतिष्ठित कालेजों में सर्वाधिक वांछित पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए शत प्रतिशत अंकों की आवश्यकता होने लगी। यह बेतुका और हास्यास्पद होने के साथ ही त्रासद भी रहा।

छात्रों को स्नातक स्तर पर बेहतर अवसर उपलब्ध कराने के लिए तंत्र को नए सिरे से गठित करना अपरिहार्य हो चला है। क्या12वीं कक्षा के अंकों के आधार पर प्रवेश के स्थान पर वर्तमान संशोधन की पहल में इस समस्या का समाधान संभव है? स्मरण रहे कि व्यापक मंथन के अभाव में जटिल समस्याओं का समाधान नहीं खोजा जा सकता। सतही पड़ताल से ही पता चल जाएगा कि निश्चित रूप से कुछ गड़बड़ है।

स्नातक स्तर पर प्रवेश को लेकर आखिर क्या मूलभूत पेच फंसे हुए थे? कटआफ असंभव स्तर पर पहुंच गए। प्रवेश के लिए 12वीं कक्षा के अंक ही मुख्य आधार बन गए। इस प्रकार एक परीक्षा का किसी छात्र के करियर की दिशा निर्धारण में निर्णायक बनने के साथ उसका उसके जीवन में महत्व असंगत रूप से बढ़ता गया। दबाव और तनाव इसकी स्वाभाविक परिणति बन गए। प्रस्तावित परिवर्तन में क्या निहित है? वस्तुत: इसमें एक परीक्षा का स्थान दूसरी परीक्षा ने ले लिया है। अब 12वीं बोर्ड परीक्षा के अंकों के बजाय संयुक्त प्रवेश परीक्षा होगी। प्रवेश का आधार अभी भी एक परीक्षा विशेष के प्रदर्शन पर निर्भर करेगा। यदि पहले आपको 12वीं की बोर्ड परीक्षा में शत प्रतिशत अंकों की आवश्यकता थी तो अब नई प्रवेश परीक्षा में अपना अपेक्षाकृत सर्वोत्तम प्रदर्शन करना होगा। इसमें समस्या का समाधान क्या है? फिर चाहे वह आसमान छूते कटआफ हों या चिरस्थायी तनाव?

स्नातक प्रवेश के समीकरणों से 12वीं की बोर्ड परीक्षा का पहलू बाहर हो गया है। प्रवेश का एकमात्र आधार होने से लेकर अब एक प्रकार से अप्रासंगिक होना उसके महत्व के पूर्ण पराभव का प्रतीक बनता दिख रहा है। ऐसे में हम छात्रों से कैसे यह उम्मीद करते कि वे स्कूल में अपेक्षित गंभीरता के साथ अध्ययन-मनन के लिए उन्मुख हों? क्या हमने नहीं देखा कि मेडिकल और इंजीनियरिंग में प्रवेश के इच्छुक छात्र स्कूल से इतर अपनी-अपनी प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं पर कहीं अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं? तब वाणिज्य और मानविकी से जुड़ी धाराओं के छात्र भी क्या ऐसी परिपाटी का पालन नहीं करेंगे? आखिर स्कूल जैसे उस संस्थान का अवमूल्यन कितना उचित और प्रभावी होगा, जहां छात्र अपनी आरंभिक औपचारिक शिक्षा ग्रहण करता है?

अमेरिका जैसे सबसे विकसित देश में लागू व्यवस्था से हम इसकी तुलना करें तो पाएंगे कि वहां छात्रों की प्रवेश प्रक्रिया के दौरान विश्वविद्यालय कई पहलुओं पर विचार करते हैं। वहां उच्चतर माध्यमिक शिक्षा के अंतर्गत कक्षा नौ से 12 तक के रिकार्ड का संज्ञान लिया जाता है। कोई भी एक परीक्षा चयन का एकमात्र आधार नहीं है। अकादमिक गतिविधियों से परे छात्र अभिरुचि एवं प्रवीणता चाहे वह खेल हो, ललित कला, सामाजिक सेवा, इंटर्नशिप या ऐसा ही कुछ और, उसे भी पर्याप्त वरीयता दी जाती है। कालेज बोर्ड द्वारा संचालित की जाने वाली मानक परीक्षाओं का भी महत्व होता है। आवेदन प्रपत्र के जरिये छात्रों को बेहतर अभिव्यक्ति का अवसर मिलता है, जिससे प्रवेश से संबंधित इकाई को भी छात्रों के विषय में अधिक जानकारियां एवं स्पष्टता मिलती है। कुल मिलाकर प्रवेश का निर्णय कई कारकों पर आधारित होता है, जिसमें प्रत्येक कारक का अपना उपयुक्त महत्व होता है। यदि हम ऐसी प्रक्रिया को हूबहू नहीं भी अपना सकते, तो कम से कम उसके भारतीयकरण की दिशा में उन्मुख होकर उसे आत्मसात करने का प्रयास तो कर ही सकते थे, किंतु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ।

हमारी शिक्षा प्रणाली से संबंधित एक और महत्वपूर्ण पहलू पर प्राथमिकता के आधार पर ध्यान केंद्रित किया जाना भी उतना ही आवश्यक है। हमारे विख्यात कालेज और विश्वविद्यालयों में प्रवेश की दर इतनी कम क्यों है? आखिर हजारों-लाखों आवेदकों में मात्र कुछ ही क्यों चयनित हो पाते हैं? वस्तुत: यह एक मांग-आपूर्ति असंतुलन है। अपनी जनसंख्या के अनुपात में हमारे पास बहुत कम विकल्प हैं। आवेदकों की संख्या सदैव उपलब्ध सीटों की संख्या से कई गुना अधिक होती है। इस बड़ी आवश्यकता की पूर्ति के लिए हमें उच्च शिक्षा के अधिक संस्थानों के साथ और ज्यादा सीटों की जरूरत है। विशेषकर टीयर-2 और टीयर-3 शहरों में हमें उनकी कहीं अधिक आवश्यकता है, ताकि चुनिंदा महानगरों पर दबाव घटाने के साथ ही अधिक से अधिक आम भारतीय छात्रों तक गुणवत्तापरक उच्च शिक्षा की पहुंच सुनिश्चित की जा सके। ऐसे में शिक्षा पर सरकारी व्यय में बढ़ोतरी, निजी क्षेत्र की सहभागिता के अनुकूल परिवेश एवं आनलाइन डिजिटल शिक्षा इस क्षेत्र का कायाकल्प करने वाले परिवर्तनों को साकार करने में सक्षम होंगे।

महत्वपूर्ण परिवर्तनों के बीच 2022 बैच के छात्रों के लिए एक विचार छोड़ दिया जाए। ये वे छात्र हैं, जिन्होंने दो वर्षों से केवल आनलाइन कक्षाएं ही ली हैं, परंतु उन्हें परीक्षा अब आफलाइन देनी पड़ रही है। ऐसे में उन्हें आनलाइन पढ़ाई और आफलाइन परीक्षा के बीच कुशल संतुलन साधना होगा। इस हलचल भरे दौर में उन्हें कई महत्वपूर्ण परिवर्तनों से भी जूझना पड़ रहा है। इसी दौरान बोर्ड परीक्षा दो भागों में विभक्त हुई, प्रश्न पत्रों के प्रारूप में विविधता आई, पाठ्यक्रम अपूर्ण रह गया और अब संयुक्त प्रवेश परीक्षा जैसी पहल की गई है। इनके पीछे चाहे जो परिस्थितिजन्य कारण रहे हों, लेकिन इतने प्रयोगों का एक साथ घटित होना छात्रों के लिए बहुत सुगम स्थिति नहीं। ऐसे में बोर्ड परीक्षा के महीने भर पहले संयुक्त प्रवेश परीक्षा की घोषणा समयानुकूल प्रतीत नहीं होती।

नि:संदेह हमारी उच्च शिक्षा प्रवेश प्रक्रिया में परिवर्तन की आवश्यकता थी। प्रस्तावित परिवर्तन को यदि भली मंशा वाला कदम भी मानें तो यह न केवल अपर्याप्त, अपितु मूल तत्व की अनदेखी करने वाला भी है।