[ जे. गोपीकृष्णन ]: सुप्रीम कोर्ट ने दुर्दांत अपराधी विकास दुबे के हाथों आठ पुलिसकर्मियों के मारे जाने और फिर खुद विकास और उसके पुलिस मुठभेड़ का शिकार बनने के मामलों की जांच के लिए गठित आयोग के सदस्य बदले जाने की मांग खारिज कर दी। कुछ दिनों पहले इस आयोग का नए सिरे से गठन सुप्रीम कोर्ट की पहल पर ही हुआ था। इससे पहले तेलंगाना में एक बेहद सनसनीखेज मामला सामना आया था जिसमें एक महिला चिकित्सक की दुष्कर्म के बाद हत्या करके उसकी लाश को जला दिया गया था। इस घटना ने समाज की सामूहिक चेतना पर करारा प्रहार किया था और जनता में व्यापक आक्रोश भर दिया था। जांच के सिलसिले में घटनास्थल पर ले जाए गए अपराधी पुलिस एनकाउंटर में मारे गए थे। राज्य सरकार ने इस मामले की जांच के लिए हैदराबाद पुलिस आयुक्त के निर्देशन में विशेष जांच टीम का गठन किया।

तेलंगाना में पुलिस मुठभेड़ मामले पर गठित जांच आयोग का कार्यकाल छह महीने बढ़ा

आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 176 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट जांच के तहत राजस्व अनुभाग अधिकारी और एसडीएम, शादनगर ने भी इस मामले की जांच की। इस मामले में तेलंगाना हाईकोर्ट के समक्ष एक जनहित याचिका लंबित होने के बावजूद उच्चतम न्यायालय ने जांच आयोग अधिनियम, 1972 के तहत एक जांच टीम गठित कर दी। यह टीम सुप्रीम कोर्ट के एक सेवानिवृत्त जज के नेतृत्व में बनी जिन्हेंं इसके लिए प्रति सुनवाई डेढ़ लाख रुपये का पारिश्रमिक मिलता है। इसमें उच्च न्यायालय के एक पूर्व जज और पूर्व सीबीआइ निदेशक के रूप में दो अन्य सदस्य भी शामिल हैं, जिन्हेंं प्रति सुनवाई एक लाख रुपये का भुगतान किया जाता है। इतना ही नहीं उन्हेंं केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल द्वारा सुरक्षा सुविधा भी उपलब्ध कराई गई है। बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट ने इस आयोग का कार्यकाल इस आधार पर छह महीने के लिए बढ़ा दिया कि लॉकडाउन के कारण जांच का काम अटका रहा।

आयोग दिसंबर में गठित हुआ था और लॉकडाउन 22 मार्च को लगा

ध्यान रहे आयोग दिसंबर में गठित हुआ था और लॉकडाउन 22 मार्च को लगा। सवाल यह खड़ा होता है कि क्या कोई जज ऐसे मामलों में स्वैच्छिक रूप से बिना किसी भुगतान के जनहित में अपनी सेवाएं देने के लिए तैयार है? प्रश्न यह भी है कि स्थानीय लोगों के बयानों को दर्ज करने और सैकड़ों गवाहों के परीक्षण की प्रक्रिया के दौरान क्या सुप्रीम कोर्ट का सेवानिवृत्त जज स्थानीय भाषा या बोली से परिचित होगा? इस समूची प्रक्रिया में जिला जज की भूमिका गौण हो जाती है, क्योंकि आइपीसी की धारा 307 (हत्या के प्रयास) के तहत एफआइआर दर्ज करने और आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 173 के तहत अंतिम रिपोर्ट तैयार करने का आदेश देने और किसी अन्य बिंदु के आधार पर आगे और जांच करने में जिला जज जांच आयोग की ही तरह सक्षम है। वह ट्रायल प्रक्रिया के दौरान उसकी निगरानी करने के लिए भी उपयुक्त है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निचली अदालतों की भूमिका को लेकर पूर्वानुमान लगाना या ऐसा कोई प्रयास देश में आपराधिक न्याय प्रदान करने वाले तंत्र पर प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाएगा।

प्रत्येक मुठभेड़ मामले में सुप्रीम कोर्ट का पूर्व जज ही जांच करेगा

यदि प्रत्येक मुठभेड़ के मामले में सुप्रीम कोर्ट का कोई पूर्व जज ही जांच करेगा तो क्या शीर्ष अदालत इसके जरिये यह संदेश देना चाहती है कि उसे निचली अदालतों में कोई भरोसा नहीं, जबकि अभियोजन के स्तर पर मामले की सुनवाई हमेशा वहीं होगी। मामला चाहे हत्या या दुष्कर्म के अभियुक्तों का हो या किसी पुलिस एनकाउंटर का, निचली अदालत में सुनवाई करने वाला जज तो वही रहेगा। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के लिए बेहद जरूरी होगा कि वह न केवल इस पहलू पर गौर करे, बल्कि उनकी भूमिका को भी अनदेखा न करे।

पुलिसकर्मियों की हत्या और विकास दुबे का एनकाउंटर मामले में दो समितियां गठित

विकास दुबे के अपराधों का एक लंबा कच्चा-चिट्ठा है। करीब 60 से अधिक मामलों में उसकी संलिप्तता उसके व्यापक आपराधिक चरित्र को साबित करने के साथ ही तंत्र में उसकी गहरी साठगांठ को ही दर्शाती है। पुलिस थाने में घुसकर एक नेता की हत्या के मामले में भी वह बरी हो गया था, क्योंकि घटनास्थल पर मौजूद पुलिसकर्मी गवाही के दौरान उससे घबरा गए थे। हर एक मामले में आरोपित बनने के बावजूद वकीलों की फौज ने उसे जमानत दिलाई और गवाहों का उत्पीड़न जारी रहा। दुबे के आपराधिक तौर-तरीकों ने दो दशकों से अधिक तक कानपुर को थर्राए रखा। यहां तेलंगाना सरकार के उलट उत्तर प्रदेश सरकार ने आठ पुलिसकर्मियों की हत्या और उसके बाद दुबे और उसके गुर्गों के एनकाउंटर से जुड़े मामलों की जांच के लिए दो समितियां गठित कीं। पहली समिति जांच आयोग अधिनियम, 1952 के तहत गठित की गई जिसकी कमान इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त जज को सौंपी गई। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने कमान उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त जज को सौंप दी। दूसरी विशेष जांच टीम यानी एसआइटी प्रदेश के अतिरिक्त मुख्य सचिव के निर्देशन में जांच का काम करेगी।

राज्यों में बढ़ रहे एनकाउंटर के मामलों में सुप्रीम कोर्ट करेगा निगरानी

जब विभिन्न राज्यों में एनकाउंटर के मामले बढ़ रहे हैं तब क्या सुप्रीम कोर्ट के लिए यह संभव होगा कि वह प्रत्येक मामले की जांच के लिए शीर्ष अदालत के किसी सेवानिवृत्त जज की नियुक्ति कर सके? क्या लंबे समय तक चलने वाली ऐसी जांच से सरकारी खजाने पर बोझ नहीं बढ़ेगा? क्या सुप्रीम कोर्ट इस पहलू की भी निगरानी करेगा कि ऐसे अपराधिक तत्व जो न केवल गवाहों, बल्कि समस्त समाज के लिए खतरा हैं, उन्हेंं किस आधार पर लगातार जमानत मिल जाती है? इन सभी कवायदों के बीच निचली अदालतों और आपराधिक न्याय तंत्र में हमारे घटते भरोसे को बहाल करने में सुप्रीम कोर्ट आखिर क्या करता है?

सुप्रीम कोर्ट उत्तर प्रदेश में आपराधिक न्याय तंत्र की पड़ताल करेगा

सुप्रीम कोर्ट उत्तर प्रदेश में आपराधिक न्याय तंत्र की पड़ताल करेगा तो उससे यह अपेक्षा ही रहेगी कि वह एक आयोग बैठाए जो इन तथ्यों की मीमांसा करे कि आखिर वे कौन सी कमजोर कड़ियां हैं जो अतीक अहमद के खिलाफ लंबित 53 आपराधिक मामलों के बावजूद उसे एक में भी दोषी सिद्ध नहीं कर पाई हैं या फिर 16 आपराधिक मामलों का अभियुक्त मुख्तार अंसारी कौन सी लापरवाहियों के चलते एक भी मामले में दोषी सिद्ध नहीं हो सका है? ये इक्का-दुक्का मामले नहीं हैं। वास्तव में यह एक नया चलन बन गया है। क्या हमारे न्यायमूर्ति इससे प्रसन्न हैं? जब तक सुप्रीम कोर्ट को यह महसूस नहीं होता कि आपराधिक न्याय तंत्र के रूप में उसका कितना कुछ दांव पर लगा है, तब तक निकट भविष्य में हमें कोई खास उम्मीद नहीं करनी चाहिए।

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )