[ सूर्यकुमार पांडेय ]: राजा त्रिशंकु की सभा सजी हुई है। दृश्य अत्यंत रमणीक है। राजा शून्य में लटके हुए हैं। वह अकेले नहीं हैं। त्रिशंकु की सभा के सभी प्रिय सभासद उनकी बांह पकड़कर वहां झूल रहे हैं। मजबूरी है, क्योंकि राजा की टांगें ऊपर हैं और दोनों हाथ नीचे लटके हैं। अधर में लटकना राजन की नियति है, किंतु दरबारियों को तो हवा में झूलने के लिए कोई आधार चाहिए ही। सो कोई उनकी कमर पकड़े है, कोई कलाई। जिन दरबारियों के हाथ कहीं भी नहीं पहुंच पाए हैं वे एक हाथ से उनकी नाक और दूसरे हाथ से राजा के कान तक पहुंचने की फिराक में हैं। धरपकड़ का सीन है। चैनलों के कैमरे इस लोकलुभावन विहंगम दृश्य के सजीव प्रसारण की खातिर चमगादड़ हुए जा रहे हैं जिससे वे भी उलटा लटककर सीधी तस्वीरें इस धरती को भेज सके।

राजा त्रिशंकु की जान सांसत में है। वह आकाश में लटके-लटके उस घड़ी-मुहूर्त को कोस रहे हैं जब उनके मन में सदेह स्वर्ग जाने की लालसा अंखुआई थी। उनके मस्तिष्क में यह आइडिया ऐसे ही नहीं पनपा था। उन्होंने एक बाबा के श्रीमुख से जो कुछ भी सुना उसी पर अमल कर रहे थे। वह तथाकथित बाबा भारत भूमि के एक आदर्श बंदीगृह में जेब-कर्तन के फलस्वरूप जीवन के बीस आनंदमय वर्ष व्यतीत करने के उपरांत त्रिशंकु के राज्य में भी अपनी कर्म पताका फहराने आए थे। जब उन्होंने त्रिशंकु के राज्य में अपने कदम रखे तभी राजा का राजपाट उनसे छिन चुका था। वह भूतपूर्व हो गए थे और पुन: अपना राज्य हथियाने के लिए नई-नई जुगत भिड़ाने में ही अपना शातिर दिमाग खपा रहे थे।

बाबा ने त्रिशंकु को झांसा देते हुए समझाया कि यदि आपकी इससे भी बड़े राजयोग की इच्छा है तो सीधे इंद्र का सिंहासन हथियाइए। बाबा ने सतर्क भी किया था कि कि संभव है इसके लिए आपको उल्टा भी लटकना पड़ जाए। त्रिशंकु को कई बार सत्ता सुख मिल चुका था तो उस सुख के पुन: रसास्वादन के लिए भी उनकी लालसा हिलोरे मार रही थी। त्रिशंकु ने सुना था कि भारत में सरकारी बसों और रेलगाड़ियों में चलने वाले प्राण त्यागे बिना ही स्वर्ग सुख पा लेते हैं। उन्हें बस एक ही अनुलोम क्रिया करनी होती है। उन यात्रियों को बसों और ट्रेनों की भीड़ में उलटा लटकना पड़ता है। राजा ने सोचा, अगर इस पिद्दी से शीर्षासन से जन्नत नसीब होती है तो क्यों न वह उलटा लटक लें। उनकी यह कामना आज उनके ही गले की हड्डी बन चुकी है। वह विधिवत लटक चुके हैं और उनके गले की हड्डी के पीछे उनके ही दरबारी कुत्तों की मानिंद खौं-खौं मचाए पड़े हैं।

राजा अपने इन पुराने और घाघ दरबारियों के मनोरंजन की खातिर उन्हें एक पुरानी हिसाब-किताबनुमा कहानी सुनाते हैं। वह कहते हैं, ‘एक नदी है। नदी में एक नाव है। नाव पर एक खेवनहार है। तीन पैसेंजर शेर, बकरी और घास का गट्ठर उस पर जाने हैं, मगर उस नाव पर एक साथ दो से ज्यादा सवारियां उस पार नहीं जा सकती हैं। बकरी और घास का वजन मिलकर शेर के वजन से भारी है। शेर पहले से दुबला है और अकेले बैठेगा तो नाव डगमगाएगी। इधर खेवनहार परेशान है कि यदि वह शेर के साथ नाव में बैठा तो बीच मंझधार कहीं शेर महोदय उसी पर सवा सेर न पड़ जाएं। उधर शेर घास के गट्ठर के साथ नाव में बैठना अपनी तौहीन समझता है। घास कहती है, उसे गाय-भैंस कोई भी खा ले, मगर यह बकरी न खाने पाए। बकरी बोलती है, घास के इस ढेर में कुछ घासें विषैली भी हैं। अब समस्या यह है कि शेर और बकरी एक साथ जा नहीं सकते। बकरी यह जानती है कि शेर बातें तो बड़ी-बड़ी करता है। कहता है, रामराज्य आ चुका है इस नाते अब शेर और बकरी एक घाट पर पानी पी सकते हैं। लेकिन जब वह बकरी पानी पीने जाती है तो शेर उसे पानी में धकेल देता है। अब यक्ष प्रश्न यह है कि ये तीनों सवारियां पार लगें तो कैसे लगें?’

राजा ने अपनी यह कहानी कहते हुए नीचे लटके अपने दरबारियों पर प्रश्नवाचक दृष्टि डाली। लेकिन वह क्या देखते हैं कि उनकी कहानी का जैसे कोई चमत्कारी असर हुआ है। वह पूरी कथा कह पाते उससे पहले ही उनके दरबारी उनका हाथ छोड़कर आपस में भरत मिलाप करने लग गए हैं। राजा का हवाई आसन डगमगा उठा है। उनके लिए यह पहचानना कठिन हो गया है कि इन दरबारियों में से कौन घास है, कौन बकरी है और शेर खुद भी कहीं कागजी तो नहीं है! सबके सब दरबारी हवा में उड़ रहे हैं। गनीमत है कि आकाश में कोई हंडा नहीं है वरना वे सब उसी में अपने-अपने खयाली पुलाव पका रहे होते।

राजा अब तन और मन से हल्के हो चले थे। सहसा उन्होंने पाया कि वह आसमान से गिरकर एक खजूर पर अटक गए हैं। वह खजूर किसी अज्ञात प्रदेश की विधानसभा के ठीक बगल में है।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]