योगेंद्र नारायण। संविधान राष्ट्र का पवित्र दस्तावेज है। यह उस दर्शन और मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है जिस पर कोई राष्ट्र विकसित होता है और उन लक्ष्यों की पहचान करता है जिन पर देश के नागरिकों की ऊर्जा को निर्देशित किया जाना चाहिए। यद्यपि यह दुखद है कि संविधान को जितना सम्मान और आदर मिलना चाहिए उतना नहीं मिल पाता है। हर घर में धार्मिक पुस्तकें जैसे भगवदगीता, रामायण, बाइबिल, गुरु ग्रंथ साहिब या कुरान मिल सकती हैं। यह हर एक के धर्म पर निर्भर करता है, लेकिन यह बहुत कम घरों में होगा जहां पर रोजाना पढ़ने के लिए भारत का संविधान होगा। संविधान को वकील, जज जैसे संभ्रांत लोगों का दस्तावेज माना जाता है।

मीडिया में भी यदा-कदा ही चर्चा 

मीडिया और प्रेस में उस वक्त स्थान पाता है जब राष्ट्रीय राजनीतिक संकट पैदा होता है जैसा कि हाल ही में महाराष्ट्र के मामले में हुआ है। यह वो समय है जब हम अपने संविधान के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे नियमित हिसाब ले रहे हों कि हमारे कार्य उसके द्वारा प्रतिपादित आदर्शों के अनुरूप है या नहीं। संविधान हमारे मौलिक अधिकारों को दर्शाता है। लेकिन गरीब और अशिक्षित सभी प्रावधानों की अनदेखी करते हैं और पुलिस और अन्य अधिकारियों और यहां तक कि अपने शिक्षित भाइयों-बहनों द्वारा शोषण के शिकार होते हैं। यद्यपि यदि ये संवैधानिक प्रावधान हमारी प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा का हिस्सा व हर स्तर पर पाठ्यक्रम का हिस्सा थे, तो हर नागरिक को इनके बारे में जानना होगा। यह शोषण और उत्पीड़न को रोकने में मददगार होगा।

जीवन जीने के तरीके को बढ़ावा देता है संविधान

हमारा संविधान शिक्षित करता है और जीवन जीने के तरीके को बढ़ावा देता है जो कि हर भारतीय के लिए जरूरी है। यदि हम इन आदर्शों का अनुसरण करते हैं तो यह पूरे देश के लिए उपयोगी होगा। संविधान की प्रस्तावना के अंतर्गत उन आदर्शों को आत्मसात किया गया है जिनके लिए हम प्रयास कर रहे हैं और जिनके लिए एक नया मानसिक दृष्टिकोण आवश्यक है। जब यह सभी नागरिकों के लिए सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय या विचारों की अभिव्यक्ति के लिए स्वतंत्रता और विश्वास यहां तक की अवसर की स्थिति और समानता प्रदान करता है तो साथ ही नागरिकों के लिए आचार संहिता भी उपलब्ध कराता है। यदि हम प्रस्तावना के उद्देश्यों के प्रति अपनी मानसिक सोच को ध्यान में रखते हैं तो यह समाज के सभी वर्गों के लिए उपयोगी होगा।

भेदभाव को रोकता है संविधान 

जब संविधान रोजगार में अवसर की समानता की बात करता है और धर्म, वंश, जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव को रोकता है तो वह महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा दे रहा होता है और यहां तक की जातिगत बंधनों को तोड़ रहा होता है। संविधान के प्रावधानों से भारतीय समाज के चेहरे को बदला जा सकता है और योग्यता के पनपने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। सर्वश्रेष्ठ को नेतृत्व के शीर्ष पदों पर जाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।हमारी प्रस्तावना भारतीय संविधान को समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष गणराज्य के रूप में स्थापित करने के बारे में बात करती है।

संविधान का अनुच्छेद 21 

हम क्यों उम्मीद करते हैं कि सिर्फ सरकार को यह उद्देश्य लागू करना है। हर नागरिक, चाहे वह कोई छोटा व्यवसाय चला रहा हो या अंतरराष्ट्रीय कॉरपोरेशन, हर किसी को इन आदर्शों को सभी स्तर पर लागू करवाना है। केवल तभी हम एक ऐसे समाज का निर्माण कर सकेंगे जहां अल्पसंख्यकों सहित सभी लोग सुरक्षित महसूस कर सकें और अपना बेहतरीन दे सकें। लोग कानून अपने हाथों में अगर लेते रहेंगे तो समाज रसातल में चला जाएगा। संविधान के अनुच्छेद 21 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं रह सकता। यदि यह हमारे नागरिकों के दिमाग में शुरू से ही स्कूलों और घरों से ऐसी सोच हो, तो ऐसी घटनाएं नहीं घटेंगी।

राष्‍ट्र के प्रति कर्तव्‍य 

1976 में संसद ने पाया कि जब नागरिक संविधान में प्रदत्त सभी स्वतंत्रताओं का आनंद ले रहे थे उन्हें राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों के बारे में जानकारी नहीं थी। इसके बाद संविधान संशोधन के जरिए एक नए अनुच्छेद 51ए को जोड़ा गया। यह नागरिक के मौलिक कर्तव्यों की बात करता है। ये कर्तव्य संविधान के प्रति सम्मान, समग्र संस्कृति की समृद्ध विरासत को संरक्षित करना, पर्यावरण में सुधार और सुरक्षा, सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा और हिंसा को रोकना और व्यक्तिगत और सामाजिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में श्रेष्ठता हासिल करना है। यदि सभी व्यक्तिअपने कर्तव्यों का पालन करें तो यह सभी नागरिकों, सभी समुदायों, सभी सामाजिक और धार्मिक संगठनों और पूरे देश के लिए अच्छा कदम होगा। यह बेहतर जीवन और समावेशी विकास को सुनिश्चित करेगा।हालांकि यह तभी संभव है जब संविधान का प्रत्येक अनुच्छेद हमारे युवाओं के अंत:करण में समाहित हो। संविधान को सजावटी टुकड़े के रूप में रखी जाने वाली किताब के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। बल्कि इसे हर दिन पढ़ी जाने वाली पूजनीय और पवित्र पुस्तक के रूप में देखा जाना चाहिए।

(लेखक राज्‍य सभा के पूर्व महासचिव हैं)

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