विवेक देवराय/आदित्य सिन्हा। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में अक्सर आदर्शवाद एवं यथार्थवाद के बीच एक राह के चयन की दुविधा होती है। आदर्शवाद वस्तुत: नैतिक मूल्यों एवं नीतिपरक सिद्धांतों वाली राह है। आदर्शवाद में विश्वास करने वाले देश इसी राह पर चलकर वैश्विक शांति एवं समृद्धि के लिए मिल जुलकर काम करते हैं। दूसरी ओर, यथार्थवाद सिद्धांत से अधिक व्यावहारिक पक्ष पर जोर देता है। इसमें राष्ट्रीय हित, शक्ति संतुलन और अस्तित्व बचाने जैसे पहलू देशों के कार्य-व्यवहार को निर्धारित करते हैं।

ऐतिहासिक रूप से देखें तो भारत आदर्शवाद की धारा का ध्वजवाहक रहा है। शीत युद्ध के दौरान भारत ने गुटनिरपेक्षता जैसे आंदोलन का नेतृत्व करते हुए शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के सिद्धांत को प्राथमिकता दी। यह दृष्टिकोण भारत की दार्शनिक परंपराओं और प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व की देन था, जिन्होंने परस्पर सम्मान और सहयोग पर आधारित विश्व की संकल्पना की थी। हालांकि पिछले एक दशक के दौरान भारत के विदेश नीति परिदृश्य में व्यापक परिवर्तन आया है। देश अब अधिक व्यावहारिक विदेश नीति की ओर अग्रसर है।

व्यावहारिक विदेश नीति का यह अर्थ नहीं कि भारत अपनी आदर्शवादी जड़ों से पूरी तरह कट गया है। वास्तव में भारत ने चातुर्यपूर्ण रणनीति अपनाई है, जिसमें आदर्शवाद का व्यावहारिक नीतियों के साथ बखूबी मिश्रण किया है। यह दृष्टिकोण अंतरराष्ट्रीय राजनीति की कड़वी हकीकत को स्वीकार करता है, जिसमें सत्ता संघर्ष और रणनीतिक हित अक्सर आदर्शवादी सिद्धांतों पर हावी रहते हैं। इसके बावजूद सहयोग, संवाद और परस्पर लाभ की गुंजाइश सदैव विद्यमान रहती है। भारत ने अपनी कुशाग्र कूटनीति से इन संभावनाओं को बखूबी भुनाया है।

उदाहरण के तौर पर अमेरिका और रूस को ही लें, जो वैश्विक राजनीति में विपरीत ध्रुवों पर हैं, लेकिन भारत ने उनके साथ अपने संबंधों में संतुलन का भाव रखकर अपने हितों की पूर्ति की है। अमेरिका के साथ भारत ने तकनीकी हस्तांतरण, रक्षा सहयोग और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शांति एवं स्थायित्व बनाए रखने की प्रतिबद्धता पर कदम बढ़ाए हैं। इसके अंतर्गत साझा सैन्य अभ्यास, अंतरिक्ष अन्वेषण अभियान, स्वच्छ ऊर्जा संबंधी पहल और दोनों लोकतंत्रों के बीच रिश्तों को प्रगाढ़ बनाया जा रहा है। साथ ही साथ भारत ने अपने सदाबहार मित्र रूस को भी साधे रखा है।

समय की हर कसौटी पर खरा उतरने वाला मित्र रूस भारत का प्रमुख सामरिक आपूर्तिकर्ता बना हुआ है। भू-राजनीतिक परिवर्तन और दबावों के बावजूद रूस के साथ भारत के रिश्ते मजबूत बने हुए हैं। रक्षा एवं ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में करार के साथ ही कई क्षेत्रीय एवं वैश्विक मुद्दों पर भी दोनों देशों का एकसमान रुख है। रूस से भारी मात्रा में ऊर्जा संसाधनों का आयात भारत की आर्थिक व्यवहार्यता एवं ऊर्जा सुरक्षा की नीति के ही अनुरूप है। भारत ने अनुकूल कीमतों के आधार पर ही रूस से बड़े पैमाने पर तेल खरीदा। आर्थिक हितों की पूर्ति के साथ ही इससे कूटनीतिक हित भी पूरे हुए, क्योंकि इस कदम से पारंपरिक आपूर्तिकर्ताओं पर हमारी निर्भरता घटी। इस पर पश्चिमी देशों की टेढ़ी नजर रही, लेकिन उनकी परवाह न करते हुए भारत ने अपने हितों को प्राथमिकता दी।

भारत की कूटनीतिक सक्रियता-दक्षता उस भूमिका में भी दृष्टिगत होती है, जिसमें उसने ग्लोबल साउथ की आवाज उठाने का फैसला किया। विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत ने विकासशील देशों के समक्ष उत्पन्न होने वाली चुनौतियों को रेखांकित करते हुए समानता एवं न्याय की पैरवी की है। इस नैतिक नेतृत्व की जड़ें वैश्विक समीकरणों की व्यावहारिक समझ में निहित हैं। इससे विश्व स्तर पर भारत का कद एवं सम्मान बढ़ने के साथ ही उसके प्रभाव का विस्तार हुआ है। आर्थिक कूटनीति में भी भारत का व्यावहारिक रवैया उतने ही प्रभावी ढंग से प्रतिबिंबित होता है।

आर्थिक वृद्धि की आकांक्षाओं को सिरे चढ़ाने में व्यापार एवं निवेश के महत्व को समझते हुए भारत तेजी से व्यापार समझौतों और आर्थिक साझेदारियों में लगा है। संयुक्त अरब अमीरात और आस्ट्रेलिया के साथ व्यापार समझौते भारत की रणनीतिक दूरदर्शिता को ही दर्शाते हैं। इन समझौतों का उद्देश्य तेजी से बदलती दुनिया में अपने हित सुरक्षित करने के साथ ही आर्थिक संबंधों के दायरे को बढ़ाकर उनका विविधीकरण करना है। पश्चिम एशिया विशेषकर संयुक्त अरब अमीरात के साथ गहन होती साझेदारी भारत की व्यावहारिक विदेश नीति का प्रमाण है। विभिन्न क्षेत्रों में आकार ले रही इन साझेदारियों से न केवल भारत को आर्थिक लाभ पहुंच रहा है, बल्कि इनसे आकार ले रहा स्थिर, सुरक्षित एवं समृद्ध ढांचा भारत के व्यापक रणनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति कर रहा है।

अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में सुधार को लेकर भारत की हिमायत में भी उसका व्यावहारिक दृष्टिकोण झलकता है। इन संस्थानों में उचित प्रतिनिधित्व और सबके साथ एकसमान व्यवहार को लेकर दबाव बना रहा भारत न केवल ग्लोबल साउथ की आवाज बन रहा है, बल्कि इससे वैश्विक आर्थिक ढांचे में हितों की व्यापक सुरक्षा भी संभव लगती है, जिसे विकसित देश अपनी सुविधा के हिसाब से चलाते प्रतीत होते हैं। भारत की व्यावहारिक विदेश नीति में उसकी तेजी से वृद्धि करती आर्थिकी की अहम भूमिका है। आर्थिकी के आधारभूत स्तंभ भी मजबूत हैं। इस आधार पर भारत विश्व के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। संभावित लाभ की अपेक्षा में कई देश भारत की ओर निहार रहे हैं। दिग्गज अंतरराष्ट्रीय संस्थानों द्वारा भारत के आर्थिक भविष्य को लेकर आशाजनक अनुमान भी भारत की वैश्विक साझेदारियों को विस्तार दे रहे हैं।

कुल मिलाकर भारत की व्यावहारिक विदेश नीति में आदर्शवाद और यथार्थवाद का सही संतुलन है। यह नीति भारत के राष्ट्रीय हितों और शक्ति संतुलन के समीकरणों को समझते हुए उन आदर्शों से भी विमुख नहीं होती, जो लंबे अर्से से भारत की विशिष्ट पहचान रहे हैं। भारी अनिश्चितता से जूझ रही दुनिया में यह व्यावहारिक दृष्टिकोण न केवल भारत की सुरक्षा और समृद्धि को सुनिश्चित करता है, बल्कि एक संतुलित एवं समानता आधारित अंतरराष्ट्रीय ढांचे के निर्माण में योगदान करने वाला भी है।

(देवराय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के प्रमुख और सिन्हा परिषद में ओएसडी-अनुसंधान हैं)