हर्ष वी. पंत: वैश्विक ढांचे की दशा-दिशा को लेकर बचे-खुचे संदेह भी संभवतः इस साल दूर हो गए होंगे। विश्व में संघर्ष के नए-नए मोर्चों का खुलना निरंतर जारी है। हितों के टकराव से नया वैश्विक परिवेश आकार ले रहा है। महाशक्तियों के बीच विभाजक रेखाएं और चौड़ी हो रही हैं और अंतरराष्ट्रीय संस्थान अपनी आभा खो रहे हैं। वैश्विक आर्थिक ढांचे का विखंडन और तेज हो गया है, क्योंकि उभरती हुई नई तकनीकें अंतरराष्ट्रीय शक्ति संतुलन के निर्धारण में सबसे महत्वपूर्ण पहलू बन गई हैं। वैश्विक स्तर पर नेतृत्व शून्यता की स्थिति भी अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर बेहतर स्थितियां बनाने में अक्षमता के लिए कुछ हद तक जिम्मेदार हैं।

रूस-यूक्रेन युद्ध से लेकर इजरायल-हमास संघर्ष तक यह स्पष्ट है कि विभिन्न देशों के बीच रिश्तों के दृष्टिकोण से युद्ध एक अहम पहलू के रूप में वापस उभरा है। ताकत की भूमिका न केवल समकालीन वैश्विक ढांचे के एक मुख्य कारक के रूप में प्रत्यक्ष हो रही है, बल्कि इसकी क्षमताएं यह संकेत भी करती हैं कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति की अराजक प्रकृति देशों के व्यवहार पर निरंतर दबाव डाल रही है। संस्थान, बाजार या फिर स्थापित मानदंडों के माध्यम से भी कोई राहत नहीं। शक्तिशाली जो चाहता है, वह कर रहा है और कमजोर वैसे ही भुक्तभोगी बना हुआ है।

असल में आज दुनिया में वही सामान्य मान लिया गया है, जो सदियों पहले हुआ करता था। प्रतीत होता है कि अंतरराष्ट्रीय तंत्र उसे अपने ही जोखिम पर विस्मृत कर बैठा है। ये टकराव एक ऐसे दौर में हो रहे हैं, जब अमेरिका और चीन के बीच शक्ति को लेकर होड़ और तेज होनी शुरू हो गई है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र इस टकराव के सबसे बड़े केंद्र के रूप में उभरा है, जहां तनाव अपने चरम पर है। विश्व में कोई व्यवस्था न होकर अव्यवस्था का बोलबाला है, जिसे एक सामूहिक नेतृत्व की आवश्यकता है और ऐसा नेतृत्व कहीं आसपास भी नहीं दिखता। इसका अर्थ यही है कि हम साल 2024 का स्वागत ऐसे विशिष्ट भाव के साथ करने जा रहे हैं, जहां अतीत के रुख-रवैये और रुझान से भविष्य का अनुमान लगाना कठिन होगा।

हिंसा का भयावह साया हमेशा से देशों के बीच संबंधों को तय करने में प्रभावी भूमिका निभाता आया है। हालांकि समय के साथ इसका रूप-स्वरूप कुछ बदलता रहा है। जैसे चीन इस समय खुद को और ताकतवर बनाने के उपक्रम में लगा है तो यूरोप अपने सामरिक पंखों को कतरने में। भू-राजनीति में प्रासंगिक किरदार बने रहने के लिए यूरोप का संघर्ष असल में उसके हार्ड पावर को त्यागने की इच्छा का ही प्रतिबिंब है। दूसरी ओर, अमेरिका के प्रतिद्वंद्वी जिस प्रकार हाथ मिला रहे हैं, उसे देखते हुए दुर्जेय अमेरिकी सैन्य ढांचे के लिए भी विभिन्न मोर्चों पर संतुलन साधना मुश्किल होता जाएगा।

यह कोई हैरानी की बात नहीं कि आज अधिकांश देश अपनी क्षमताओं के आधार पर अपनी सुरक्षा को चाकचौबंद करने का प्रयास कर रहे हैं। समकालीन संघर्ष में हिंद-प्रशांत क्षेत्र सबसे प्रमुख अखाड़ा बना हुआ है। इसीलिए, वैश्विक राजनीति एवं आर्थिकी का केंद्र इसी क्षेत्र की ओर झुका है। परिस्थितियों को देखते हुए ही सैन्य खर्चों में भारी बढ़ोतरी हुई है और सेनाएं नई सामरिक वास्तविकताओं के अनुरूप खुद को ढालने की कोशिश में लगी हैं।

यही कारण है कि क्षेत्रीय एवं वैश्विक शक्ति संतुलन को आकार देने में अपनी सीमित क्षमताओं को देखते हुए यूरोपीय संघ को हालात के हिसाब से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में साथ आने को विवश होना पड़ा है। यहां तक कि जर्मनी और जापान ने अपनी हार्ड पावर क्षमताओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए अपने रणनीतिक विकल्पों का नए सिरे से मूल्यांकन करना शुरू कर दिया है। यह बड़े बदलाव का स्पष्ट प्रमाण है।

संकटों और संघर्ष के इस दौर में भारत को जी-20 की अध्यक्षता के माध्यम से अपनी नेतृत्व क्षमता दिखाने का अवसर मिला। इसने भारत को मुश्किलों से जूझ रहे वैश्विक ढांचे के शीर्ष पर सक्रियता की गुंजाइश दी कि वह बहुपक्षवाद के भारतीय प्रारूप को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुत करे। इसमें भारत का लक्ष्य मतभेदों से जूझ रही महाशक्तियों को वार्ता की मेज पर लाना और ऐसा करके वैश्विक स्तर पर एक प्रमुख शक्ति के रूप में अपनी साख को मजबूत करना था। भारत की जी-20 अध्यक्षता का उद्देश्य ध्रुवीकरण की ओर बढ़ रही दुनिया को एकजुटता की ओर उन्मुख करना रहा। चूंकि भारत स्वयं एक बहुसांस्कृतिक लोकतंत्र है तो उसकी यह विशेषता उसे वैश्विक चुनौतियों पर विचार करने के दृष्टिकोण से विभिन्न अंशभागियों को साथ लाने में भी सहायक रही।

भारत में आयोजित जी-20 की थीम-वसुधैव कुटुंबकम् : एक विश्व, एक परिवार, एक भविष्य में भी वैश्विक ढांचे को लेकर भारत की अवधारणा और उसमें अपनी भूमिका की छाप थी। नई दिल्ली ने यह सिद्ध भी किया कि उसकी ऐसी संकल्पना महज भाषणबाजी नहीं। कोविड महामारी के दौरान भारत ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से एकजुटता की अपील के साथ ही संसाधनों की दृष्टि से कमजोर देशों की मदद का आह्वान किया था, जबकि उसी दौर में विकसित देशों का पूरा ध्यान खुद पर लगा हुआ था। कुछ तो अपनी जरूरत से कई गुना ज्यादा वैक्सीन का भंडार जमा किए हुए थे।

एक विश्वव्यापी संकट के समय भारत ने अपने समक्ष उपलब्ध मंच और विकल्पों का हरसंभव उपयोग कर यह उदाहरण पेश किया कि देशों को अपनी आंतरिक स्थितियों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय वैश्विक सक्रियता को बढ़ावा देना चाहिए। साथ ही यह वैश्विक नेतृत्व की कमी को पूरा करने का भी एक प्रयास था। विशेषकर तब जब चीन और अमेरिका दोनों की कमजोरियां उजागर हो चुकी हैं।

भारत ने यह दर्शाया कि सीमित संसाधनों वाला देश भी समान सोच वाले देशों की चिंताओं का समाधान कर उनके साथ मिलकर छोटे देशों में क्षमताएं बढ़ाने के जरिये नेतृत्व प्रदान कर सकता है। जब दुनिया एक सुनियोजित ढांचे के लिए संघर्ष कर रही है, तब भारत विश्व को सार्थक रूप से दिशा देने में सक्षम दिखा तो यह गुजरते साल की एक बड़ी उपलब्धि कही जाएगी। भारत को अपनी इस भूमिका का निर्वाह करने के लिए आगे और भी तत्पर रहना होगा।

(लेखक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में उपाध्यक्ष हैं)