[ डॉ. एके वर्मा ]: स्वतंत्रता दिवस मात्र एक पर्व ही नहीं, वरन उन तमाम संघर्षों, कुर्बानियों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को याद करने का दिन है जिनके बिना हम यह दिन मना ही नहीं पाते। यह उन संकल्पों को भी दोहराने का दिन है जो हमने आजादी की लड़ाई के दौरान लिए थे। क्या हमें वे संघर्ष, वे सेनानी और वे संकल्प याद हैं? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि आज की युवा पीढ़ी अपने वर्तमान संघर्ष और भविष्य निर्माण में इस कदर मशगूल है कि उसे अपने अतीत और इतिहास का समुचित भान ही नहीं। कौन और कैसे कराएगा उसका अहसास? यह काम इसलिए बहुत जरूरी है, क्योंकि आज जिस खुली हवा में हम सांस ले पा रहे हैं उसे हमने केवल अपने हक की तरह देखा है। उसके पीछे के संघर्ष और बलिदान से नावाकिफ हम उसके मूल्य और उसे सहेजने के अपने दायित्व को ठीक से समझ नहीं पाए हैं।

आज हम जिस स्वतंत्रता और अधिकार का दावा करते हैं उसका एक सामाजिक और राष्ट्रीय पहलू भी है जिसे हम नजरंदाज कर देते हैं। इससे ही समाज में अनेक संघर्षों का जन्म होता है और उन उद्देश्यों को प्राप्त करने की गति धीमी पड़ती है जिनका संकल्प हमने लिया था। क्या थे वे संकल्प? एक संकल्प गांधी का था। वह समाज के सबसे अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के आंसू पोंछना चाहते थे। दूसरा संकल्प नेहरू का था जो उन्होंने 14 अगस्त 1947 की आधी रात को स्वतंत्रता के उद्घोष के समय ‘नियति-से-वादा’ करते हुए लिया था कि हम भारत की सेवा करेंगे। इसका अर्थ है लाखों-करोड़ों पीड़ितों की सेवा करना। इसका अर्थ है गरीबी, अज्ञानता और अवसर की असमानता मिटाना।

एक अन्य संकल्प हमने संविधान में लिया कि हम भारत के सभी नागरिकों को ‘न्याय, स्वतंत्रता, समानता के साथ-साथ गरिमापूर्ण और भाईचारे से परिपूर्ण जीवन’ सुनिश्चित करेंगे। ये ऐसे संकल्प हैं जो सर्वविदित और निर्विवाद हैं। क्या बीते सात दशकों में हमने इन संकल्पों को सिद्ध करने की दिशा में कोई गंभीर प्रयास किया है? हमें यह सवाल स्वयं से ही पूछना है। यह सवाल हम किसी सरकार पर नहीं दाग सकते, क्योंकि फिर आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो जाएंगे और मूल-प्रश्न उपेक्षित हो जाएगा। ध्यान रहे सरकारें देश नहीं होतीं। जनता देश होती है। जनता सरकार होती है और इसीलिए हमें-आपको आज की स्थिति का उत्तरदायित्व स्वीकार करना पड़ेगा।

आजादी के बाद से जितनी भी सरकारें केंद्र और राज्यों में आईं उन्होंने असंख्य संकल्प लिए। इसी तरह राजनीतिक दलों ने भी चुनावों के समय या सत्ता में आने पर अनेक संकल्प लिए, लेकिन क्या उन्हें प्राप्त करने की दिशा में उन्होंने ठोस प्रयास भी किए? क्या यही स्वतंत्रता है कि हम संकल्प लेते रहें, लेकिन उन्हें लागू करने के दायित्व से विमुख रहें? क्या स्वतंत्रता की अवधारणा में कर्तव्य-बोध का कोई स्थान नहीं? आज पूरे देश में असंख्य सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक और राजनीतिक समस्याएं हैं और आगे भी रहेंगी।

दुनिया का कोई भी देश समस्याओं से मुक्त नहीं हो सकता। महत्वपूर्ण यह है कि क्या हम समस्या समाधान के लिए कृतसंकल्प हैं? क्या अपने कर्तव्य बोध और उत्तरदायित्व को हम अपनी स्वतंत्रता का अभिन्न अंग बनाने का भी संकल्प लेंगे?

किसी भी समाज में तीन प्रमुख घटक होते हैं- राज्य एवं सरकार, संगठित गैर-सरकारी या निजी समूह और व्यक्ति। सरकारें और गैर-सरकारी समूह व्यक्तियों से ही बनते हैैं। इसलिए किसी समाज के वास्तविक उन्नयन के लिए व्यक्ति केसंकल्प सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। किसी के वैयक्तिक संकल्प से न केवल उस व्यक्ति का, वरन उसके परिवार, पड़ोस, शहर, समाज, देश और संपूर्ण मानवता का कल्याण संभव है। इस कारण स्वतंत्रता दिवस पर हमें न केवल पुराने संकल्पों का स्मरण करना चाहिए, वरन वैयक्तिक स्तर पर कुछ नए संकल्प भी लेने चाहिए और वह भी उन्हें पूरा करने के इरादे के साथ।

क्या हों हमारे नूतन संकल्प जो 21वीं शताब्दी की चुनौतियों के अनुरूप हमें अपनी स्वतंत्रता को सही ढंग से प्रयोग करने को प्रेरित करें और जिनसे हम अपने साथ-साथ अपने समाज और राष्ट का भी उन्नयन सुनिश्चित कर सकें? ज्यादा नहीं हम केवल ये तीन छोटे-छोटे संकल्प ले लें तो बदलाव की एक शुरुआत करते दिखने लगेंगे। एक, हम ज्यादा और बेहतर काम करेंगे। दो, अपना गुणात्मक उन्नयन करेंगे और इस क्रम में अपने हुनर में कुछ न कुछ बढ़ोतरी करते रहेंगे और अंतिम, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण, हम कोई ऐसा काम जरूर करेंगे जिससे समाज की कुछ-न-कुछ बेहतरी हो सके। अक्सर कहा जाता है कि स्वयं को बदलो, परंतु कोई यह नहीं बताता कि हम ऐसा करें कैसे? यदि हमने इन तीन संकल्पों को अमली जामा पहना दिया तो न केवल हम बदल जाएंगे, वरन समाज में भी गुणात्मक परिवर्तन हो सकेगा। इसी से भारत के सपनों को साकार करने में मदद मिलेगी।

स्वतंत्रता के 71 वर्षों में देश ने बहुत प्रगति और विकास किया है। वैश्विक स्तर पर आज भारत की एक विशेष पहचान है, लेकिन सामाजिक स्तर पर जो मजबूती और उन्नयन हो सकता था उसमें अभी काफी सुधार की गुंजाइश है। राजनीतिक दलों ने लोकतंत्र के प्रक्रियात्मक पक्ष अर्थात चुनावों और सत्ता-प्राप्ति के साधनों पर तो ध्यान दिया, लेकिन उसके साध्य अर्थात लोक-कल्याण, सामाजिक समरसता, न्याय, समानता और राष्ट्र की एकता एवं अखंडता बढ़ाने वाले भाईचारे आदि पर ध्यान नहीं दिया। राजनीतिक दलों ने सामाजिक विभिन्नता को एक शक्ति के रूप में विकसित करने के बजाय उसे सामाजिक विघटन और संघर्ष की दिशा में मोड़ दिया है ताकि उसका राजनीतिक लाभ लिया जा सके।

आज भी राष्ट्रीय विमर्श टुकड़ों में बंटा हुआ है। वह दलित, अनुसूचित-जनजाति, पिछड़ों और मुस्लिमों पर ठहरा हुआ है। भारतीय नागरिक की बात कोई करना ही नहीं चाहता। हाल में संसद द्वारा अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम को सर्वोच्च न्यायालय की आपत्तियों को दरकिनार कर सर्व-सम्मति से पारित करना इसका एक उदाहरण है। किसी भी नेता या राजनीतिक दल ने इसका संज्ञान नहीं लिया कि इसका दुरुपयोग कर किसी भी भारतीय नागरिक को बड़ी आसानी से परेशान किया जा सकता है।

क्या यह भेदभाव को कानूनी वैधता प्रदान करने जैसा नहीं? क्या यह लोगों की स्वतंत्रता को बंधक बनाने जैसा नहीं? क्या ऐसे ही स्थापित होगी व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की बंधुता? चूंकि राजनीतिक दलों का उद्देश्य सत्ता प्राप्त करना है, संकल्पों को लागू करना नहीं इसलिए वे राष्ट्रहित को प्राथमिकता देने से इन्कार करते हैैं। अनेकता में एकता वाले समाज को एक सूत्र में पिरोने का काम कठिन और जोखिम भरा होता है। चूंकि इसके लिए जो साहस, समर्पण और सद्बुद्धि चाहिए वह अभी भारतीय राजनीति में दिखाई नहीं देती इसलिए हम सभी को एक संकल्प यह भी लेना है कि भारतीय लोकतंत्र और राजनीति की रक्षा करते हुए उसे श्रेष्ठता की ओर ले जाना है।

[ लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैैं ]