[प्रो. लल्लन प्रसाद]। पिछले पांच वर्षो में भारतीय अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ़ी है। वर्ष 2013 में विश्व में यह 11वें स्थान पर थी, जो 2019 आते-आते पांचवें स्थान पर पहुंच गई है। इस दौरान देश भर में सड़कों समेत आधारभूत उद्योगों (इन्फ्रास्ट्रक्चर) का तेजी से विकास हुआ। बैंकों के अदेय ऋण पर लगाम लगाने में सरकार काफी हद तक कामयाब होती दिखी है।

वर्ष 2018 की अंतिम तिमाही में विकास दर 8.3 प्रतिशत थी, यानी भारत ने चीन को पीछे छोड़ दिया। किंतु विकास दर में अब कुछ कमी आई है। पिछली तिमाही में यह 6.6 प्रतिशत था। औद्योगिक उत्पादन में गिरावट हुई है, पिछले 21 महीनों का सबसे न्यूनतम औद्योगिक विकास दर 0.1 प्रतिशत था जो अर्थव्यवस्था के लिए चिंताजनक है। कृषि उत्पादन में वृद्धि का लाभ किसानों को नहीं मिला, क्योंकि कीमतों में गिरावट आ गई। आज हालात ऐसे हो चुके हैं कि किसान को अपनी लागत निकालना मुश्किल हो गया है। देश के कुछ हिस्सों में वर्षा औसत से कम हुई, कई इलाकों में सूखा पड़ा। अधिकांश राज्यों में सरकार द्वारा निर्धारित कीमत पर किसानों से उतनी खरीदारी नहीं हुई जितनी अपेक्षित थी। कई राज्यों में किसानों की कर्ज माफी के ऐलान कागजों पर रह गए, बहुत कम संख्या में किसान लाभान्वित हुए। छोटे-बड़े उद्योगों में उत्पादन वृद्धि न होने से नए रोजगार के अवसर बढ़ नहीं रहे हैं, जबकि आबादी तेजी से बढ़ रही है।

उपभोक्ता पदार्थो की मांग
उपभोक्ता पदार्थो की मांग में कमी होने से कारखानों में उत्पादन प्रभावित हुआ है, जिसका असर कच्चे माल, मशीनों आदि की मांग पर पड़ रहा है। उद्योगों में निवेश में भी कमी आई है, यद्यपि शेयर बाजार में उछाल ही अधिक था गिरावट कम। करीब 23 विनिर्माण उद्योगों में 12 उद्योग मांग में गिरावट से प्रभावित हुए। मार्च 2019 में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक 0.4 प्रतिशत नीचे गया। सबसे अधिक प्रभावित उद्योग थे- कार, दोपहिये और तिपहिये वाहन, ऑटोमोबाइल पार्ट्स और महंगे उपभोक्ता पदार्थ। इलेक्ट्रॉनिक उपभोक्ता पदार्थो की मांग पर असर नहीं पड़ा, स्टील और सीमेंट के उत्पादन में वृद्धि हुई। बिजली और ऊर्जा के अन्य साधनों का उत्पादन भी बढ़ा। कुल मिलाकर औद्योगिक विकास दर 3.6 प्रतिशत रहा जो पिछले वर्ष के 4.4 प्रतिशत से कम था। वित्त मंत्रलय की एक रिपोर्ट के अनुसार अर्थव्यवस्था में शिथिलता के मुख्य कारण थे उपभोक्ता पदार्थो की मांग में कमी और निवेश में गिरावट। देश के 60 प्रतिशत लोग खेती पर निर्भर हैं, उनकी आमदनी में कमी का सीधा प्रभाव उपभोक्ता पदार्थो की मांग पर पड़ता है। बढ़ती बेरोजगारी भी मांग की कमी का कारण बनती है। कीमतों को नियंत्रण में रखने में सरकार सफल रही, किंतु कृषि और आम उपभोक्ता पदार्थो की कीमतें कम होने से किसानों और छोटे-बड़े उत्पादकों को नुकसान हुआ। सब्जियों की कम कीमतों का खामियाजा किसानों को अक्सर भुगतना पड़ता है। सूखा, बाढ़ और प्राकृतिक प्रकोपों से किसान सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। विपत्तियों से जूझने के लिए उन्हें कर्ज लेना पड़ता है जिसे चुकाना मुश्किल हो जाता है। वर्ष 2016 के विमुद्रीकरण से लोगों के पास रुपये की जो कमी हुई उसका असर पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है।

खेती-किसानी में सुधार
किसानों को कर्ज से मुक्त करने और उनकी आमदनी बढ़ाने के जो प्रयास पिछले वर्षो में हुए हैं उनमें तेजी लाने की आवश्यकता है। देश के दो राज्यों- तेलंगाना और ओडिशा में इस दिशा में कुछ सफल प्रयोग हुए हैं। तेलंगाना में हर किसान को 4,000 रुपये प्रति एकड़ वर्ष में दो बार दिया जाता है जो सीधे उसके बैंक खाते में जाता है। राज्य सरकार पर इससे 12,000 करोड़ रुपये का बोझ पड़ता है, किंतु किसानों की माली हालत में इससे सुधार हुआ है। ओडिशा सरकार सतही और छोटे किसानों के बैंक खाते में 5,000 रुपये वर्ष में दो बार डालती है। राज्य सरकार पर इससे वर्ष में 3,400 करोड़ रुपये का बोझ पड़ता है। इससे बड़ी संख्या में किसान लाभान्वित हुए हैं। केंद्र सरकार ने किसान सम्मान निधि योजना लागू की है जिसके अंतर्गत छोटे किसानों, जिनके पास दो एकड़ या इससे कम कृषि योग्य भूमि है उन्हें 6,000 रुपये प्रति वर्ष बैंक खातों के जरिये दिया जाता है। भुगतान वर्ष में तीन बार 2,000 रुपये के हिसाब से देने का प्रावधान है जो फलसों की बुवाई के पूर्व किसान को मिलता है जिससे वह बीज, खाद आदि का प्रबंध कर सकें। करीब 12 करोड़ किसानों को इसका लाभ मिल रहा है। हालांकि यह रकम किसान की आवश्यकताओं को देखते हुए बहुत कम है, पर एक अच्छी शुरुआत है, रकम बढ़ाई जानी चाहिए। केंद्र सरकार पर इससे 75,000 करोड़ रुपये का वार्षिक बोझ पड़ेगा जिसे बहुत अधिक नहीं कहा जा सकता। 

पहले भी हुए कर्ज माफी के प्रयास
किसानों की कर्ज माफी के प्रयास बीते वर्षो के दौरान भी कुछ सरकारों ने की थी। वर्ष 1990 में वीपी सिंह ने किसानों के कर्ज माफी की घोषणा करते हुए 10,000 करोड़ रुपये के कर्ज माफ किए। वर्ष 2008 में मनमोहन सिंह ने 52,260 करोड़ रुपये के कर्ज माफ करने का वादा किया। वर्ष 2014-18 के बीच सात राज्यों में 1,82,802 करोड़ रुपये के कर्ज माफी के वादे किए। ये राज्य हैं- आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब, तमिलनाडु, राजस्थान, मध्य प्रदेश और कर्नाटक। मालूम हो कि कर्ज माफी का लाभ उन्हीं किसानों को मिलता है जो बैंकों से कर्ज लेते हैं। नाबार्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार सतही और छोटे किसानों में कुल 30 प्रतिशत ही बैंकों से ऋण लेते हैं। ऐसे में जब करीब 70 प्रतिशत किसान बैंकों से लोन लेते ही नहीं हैं, तो कर्ज माफी की सुविधा का उनके लिए कोई अर्थ नहीं रह जाता। अभी भी बड़ी संख्या में किसान साहूकारों और सूदखोरों के चंगुल में है। किसानों के लिए अनुदान को सीधे उनके खातों में जमा करा देना, कर्ज माफी की अपेक्षा कहीं अधिक लाभकर है। इसका लाभ उन सभी किसानों को मिलता है जिनके लिए यह योजना बनाई जाती है। 

किसान को मिले सही मूल्य
किसानों को उनकी पैदावार का सही मूल्य मिले, इसके लिए नियुक्त आयोग द्वारा निर्धारित कीमत पर राज्य सरकारें किसानों से जो अनाज खरीदती हैं उस योजना में भी सुधार की आवश्यकता है। अधिकांश राज्य उतनी मात्र में खरीद नहीं करते जितना किसान चाहते हैं। केंद्र सरकार की नई योजना किसानों को उनकी लागत का डेढ़ गुना देने का वादा करती है। सरकार अगले तीन वर्षो में किसानों की आदमनी दोगुनी करने को भी कृतसंकल्प है। सरकारी योजनाओं को मूर्त रूप देने की आवश्यकता है। पिछले वर्ष नवंबर में एक लाख किसान देश के विभिन्न भागों से राजधानी में एकत्रित हुए जिसे किसान मुक्ति मोर्चा की संज्ञा दी गई। किसानों की दो प्रमुख मांगे थीं- कर्ज से मुक्ति हो और उत्पाद की सही कीमत मिले। फरवरी 2019 में करीब पचास हजार किसान नासिक से पैदल चलकर मुंबई पहुंचे और वहां राज्य सरकार के सामने यही प्रतिवेदन किया। 

आजादी के सात दशक बाद भी किसानों की माली हालत में सुधार न होना अर्थव्यवस्था के लिए चिंता का विषय है। वर्षो से किसानों की आत्महत्या के समाचार आते रहे हैं और सिलसिला अब भी जारी है। किसान भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी हैं। पिछले पांच वर्षो में केंद्र सरकार के बजट में गांवों और किसानों के लिए आवंटित राशि में 100 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है, यानी स्थिति में परिवर्तन हुआ है, किंतु अभी बहुत कुछ करना बाकी है। विश्व व्यापार संगठन की रोक के बावजूद अमेरिका सहित कई विकसित देशों में भी किसानों को तरह-तरह की सब्सिडी दी जाती है। भारत का किसान तो विकसित देशों की तुलना में आर्थिक दृष्टि से बहुत कमजोर है, सरकार की जिम्मेदारी है उसकी माली हालत सुधारने की। 

उद्योगों में निवेश बढ़ाने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने पिछली दो तिमाहियों में रेपो रेट (जिस पर बैंक रिजर्व बैंक से कर्ज लेते हैं) में कमी की है, किंतु इसका उतना लाभ हुआ नहीं जितना अपेक्षित था। अधिकांश बैंकों ने कर्ज देने के ब्याज दर में उतनी कमी नहीं की जो कर्ज की मांग बढ़ा सके। बाजार में उपभोक्ता वस्तुओं की मांग में कमी के कारण निवेशकों की ओर से भी कर्ज की मांग में अपेक्षित तेजी नहीं आई। अर्थव्यवस्था के मूल में वस्तुओं और सेवाओं की मांग है, जब मांग में गिरावट आती है तो पूरी अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल असर पड़ता है।

सरकार ने कुछ कदम उठाए हैं जिनका प्रभाव मांग पर अनुकूल होना चाहिए। इनकम टैक्स में पांच लाख रुपये तक की आमदनी कर मुक्त करने और सरकारी कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि आदि ऐसे ही कदम हैं। छोटी बचत को बढ़ावा देने के लिए सरकारी योजनाएं भी आनी चाहिए। सेविंग्स और फिक्स डिपोजिट पर ब्याज दर इतने कम हो गए हैं कि उनमें धन जमा करना आकर्षक नहीं रहा गया है। शेयरों में निवेश से अभी भी बड़ी संख्या में लोग डरते हैं, क्योंकि कीमतों में इतने उतार-चढ़ाव होते हैं जो आम निवेशक सह नहीं सकते। म्यूचुअल फंड्स में बड़ी संख्या में लोग निवेश कर रहे हैं जो पूंजी बाजार के लिए शुभ संकेत हैं। 

औद्योगिक विकास के लिए बचत और निवेश दोनों में वृद्धि की आवश्यकता है। आर्थिक सुधारों को भी तेज करने की आवश्यकता है। जीएसटी में सरलीकरण की और आवश्यकता है। व्यापारियों को रिफंड समय से नहीं मिल रहा है, अफसरशाही अभी भी हावी है। लघु और मध्यम उद्योग और व्यापार इससे सबसे अधिक प्रभावित हैं। मुद्रा योजना में भी नए उद्योग/ व्यापार के लिए धन उतना आसानी से मिलता नहीं जितना प्रशासन दावा करती है।

रोजगार मुहैया करानी की दिशा में सबसे बड़ी समस्या है हमारी निरंतर बढ़ती हुई आबादी। आबादी पर नियंत्रण करके चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था को जो ऊंचाई दी है उससे हमें भी सीखने की आवश्यकता है। सकल उत्पाद की दृष्टि से हम विश्व की पांच महान आर्थिक शक्तियों में आ गए हैं, किंतु प्रति व्यक्ति आय में बहुत पीछे हैं, जिसका मुख्य कारण है बेलगाम बढ़ती जनसंख्या। 

विदेशी निवेश में भी पिछले कुछ महीनों में करीब एक फीसद की कमी आई है। बाजार में मंदी और चुनाव के परिणामों के बारे में आशंका इसके मुख्य कारण थे। केंद्र में फिर से एक स्थिर सरकार आ जाने पर यह स्थिति शीघ्र ही बदल जाएगी। औद्योगिक उत्पादन को पटरी पर लाना, किसानों की आमदनी और रोजगार के नए अवसर बढ़ाना सरकार की प्राथमिकताओं में होनी चाहिए। 
[पूर्व विभागाध्यक्ष, बिजनेस इकोनॉमिक्स विभाग, दिल्ली विवि]  

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