[ राधिका पांडेय ]: बीते कुछ महीने भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए खासे चुनौतीपूर्ण रहे हैं। इस दौरान कई ऐसे पहलू सामने आए हैं जो देश में ग्रोथ की गाड़ी की रफ्तार सुस्त करने पर आमादा हैं। इस दौरान अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें 80 डॉलर प्रति बैरल तक उछल गईं। इससे चालू खाते के घाटे यानी सीएडी पर दबाव बढ़ गया। उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं की मुद्रा पर पड़ती मार से रुपया भी अछूता नहीं रहा है। वैश्विक घटनाक्रम भी स्थिति को प्रभावित कर रहा है। मसलन अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने अपनी नीतिगत ब्याज दरों में इजाफा कर दिया है। वहीं अमेरिका अगले कुछ महीनों में ईरान पर कड़े प्रतिबंध लगाने की तैयारी कर रहा है। इस तरह आने वाले दिनों में ये मुश्किलें कुछ वक्त के लिए ऐसे ही कायम रहेंगी। इस बीच कच्चे तेल के बढ़ते दामों को देखते हुए सरकार पर इस बात के लिए दबाव बढ़ा है कि वह पेट्रोलियम उत्पादों पर उत्पाद शुल्क घटाकर आम लोगों को राहत दे, लेकिन अभी तक सरकार ने ऐसा कोई भी कदम न उठाकर यही संकेत दिया है कि वह राजकोषीय सुदृढ़ीकरण की राह से नहीं भटकने वाली।

पिछले वित्त वर्ष में सरकार राजकोषीय घाटे के अपने लक्ष्य से चूक गई थी। इस साल वह राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 3.3 प्रतिशत के दायरे में ही समेटने को लेकर प्रतिबद्ध है। सरकार का यह रवैया स्वागतयोग्य है। यह उल्लेखनीय है कि सरकार ने एनके सिंह समिति की रिपोर्ट के आधार पर एक नए राजकोषीय विधायी ढांचे का खाका तैयार किया है। इसमें नया लक्ष्य रखा गया है कि वर्ष 2024-25 तक ऋण-जीडीपी अनुपात को 40 प्रतिशत के स्तर पर लाया जाएगा। ऐसे में राजकोषीय सुदृढ़ीकरण की राह से तनिक भी विचलन ऋण के अंबार को बढ़ाएगा, जिससे ब्याज का बोझ बढ़ेगा।

चूंकि अगस्त तक ही राजकोषीय घाटे का आंकड़ा चालू वित्त वर्ष के कुल लक्ष्य के 94.7 प्रतिशत के स्तर को छू गया है, ऐसे में बजट लक्ष्य के अनुसार 3.3 प्रतिशत के लक्ष्य को हासिल करने की चुनौतियों को समझना होगा। जहां तेल की कीमतों का असर मुख्य रूप से चालू खाते के घाटे पर ही देखने को मिलेगा तो राजकोषीय मोर्चे पर इसके कुछ अल्पकालिक असर दिख सकते हैं। डीजल और पेट्रोल के दाम अब सरकार द्वारा नहीं तय किए जाते। इन्हें भले ही मूल्य नियंत्रण से मुक्त कर दिया गया है, लेकिन रसोई गैस और केरोसिन की कीमतें अभी भी नियंत्रित की जाती हैं, जिससे राजकोषीय गणित कुछ गड़बड़ा सकता है।

सार्वजनिक उपक्रमों में विनिवेश के जरिये 80,000 करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य भी फिलहाल दूर की कौड़ी ही लगता है। अगस्त तक विनिवेश के माध्यम से महज 9,424.22 करोड़ रुपये ही जुटाए गए हैं। कर मोर्चे पर भी कुछ चिंता बढ़ी हैं। चालू वित्त वर्ष में अगस्त तक अधिकांश महीनों में जीएसटी संग्र्रह प्रतिमाह एक लाख करोड़ रुपये के लक्ष्य से कम ही रहा। उपभोक्ता वस्तुओं में बड़े पैमाने पर हुई कटौती से भी जीएसटी से होने वाले राजस्व संग्र्रह में और कमी आने की आशंका है। हालांकि त्योहारी सीजन में उपभोग में इजाफे की उम्मीद से इस घाटे की कुछ हद तक भरपाई होने की संभावना जताई जा रही है। जहां तक व्यय की बात है तो 14 फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में हुई बढ़ोतरी राजकोषीय घाटे को बढ़ा सकती है।

ऐसे में आखिर क्या किया जाना चाहिए? सरकार को चाहिए कि वह नवरत्न कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी घटाने की योजना बनाए ताकि वह पर्याप्त संसाधन जुटाने में सफल हो सके। जीएसटी के मामले में अब जहां भी अड़चनें कायम हैं उन्हें सुलझाकर इसके सुगम और बेहतर अनुपालन को सुनिश्चित किया जाए। हालांकि केवल केंद्र के राजकोषीय घाटे को साधने से ही सभी समस्याएं नहीं सुलझ जाएंगी। अपने प्रतिस्पर्धी देशों में भारत उन देशों में से एक है जहां सरकारी घाटा काफी ऊंचा है। ऐसे में राज्यों की वित्तीय स्थिति की समीक्षा भी समीचीन हो जाती है।

नए विधायी ढांचे में 2024-25 तक सरकारी घाटे को 60 प्रतिशत के दायरे में लाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। इसका अर्थ यही है कि राज्यों का ऋण-जीडीपी अनुपात 20 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि राज्य भी राजकोषीय सुदृढ़ीकरण की राह पर मजबूती से टिके रहें। राज्यों की वित्तीय स्थिति को लेकर भारतीय रिजर्व बैंक यानी आरबीआइ की एक ताजा रिपोर्ट इस मोर्चे पर नई चिंताओं को रेखांकित करती है। किसानों की कर्ज माफी से लेकर वेतन आयोग की सिफारिशों ने राज्यों के खजाने में सेंध लगाई है। चालू वित्त वर्ष में राज्यों का राजकोषीय घाटा जीडीपी के 3.1 प्रतिशत के दायरे में रखने का अनुमान लगाया गया है।

यह लगातार तीसरा साल होगा जब राज्य राजकोषीय घाटे के उस तीन प्रतिशत की लक्ष्मण रेखा को लांघेंगे जो उनके राजकोषीय कानूनों में खिंची हुई है, जबकि चालू वित्त वर्ष में राज्यों ने अपने राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 2.6 प्रतिशत के दायरे में सीमित करने का लक्ष्य तय किया था। मगर इसके लिए किसानों की कर्ज माफी जैसी कवायदों पर विराम लगाना होगा, जो न केवल सरकारी खजाने की सेहत बिगाड़ती हैं, बल्कि बैंकों पर अनावश्यक दबाव बढ़ा देती हैं।

राज्यों की वित्तीय स्थिति से जुड़ी रिपोर्ट का एक और महत्वपूर्ण पहलू है और वह यह कि ज्यादा उधारी से ब्याज अदायगी पर बढ़ा खर्च कैसे राजस्व व्यय में इजाफा कर रहा है। राज्यों की उधारी 2014 में 66.2 प्रतिशत से ऊंची छलांग लगाकर 2017 में 76.2 फीसद हो गई। उधारी बढ़ने से राज्यों पर ब्याज का बोझ बढ़ता जा रहा है। यदि बांड बाजार से उधारी की अहमियत बढ़ती है तो फिर बांड बाजार की विसंगतियां दूर करना बेहद जरूरी हो जाता है। इसका एक तरीका तो यही है कि बांड बाजार में अधिक निवेशकों को प्रोत्साहित कर इसमें तरलता के स्तर को सुगम बनाया जाए। केंद्रीय बैंक ने एहतियात के साथ विदेशी निवेशकों को बांड बाजार में भागीदारी की अनुमति दी है। भारत में बांड बाजारों की दशा-दिशा सुधारने के लिए ऐसे सुधारों को बढ़ावा देने की दरकार है।

स्वतंत्र सार्वजनिक ऋण प्रबंधन एजेंसी की स्थापना के रूप में राजकोषीय मोर्चे पर एक और महत्वपूर्ण सुधार आकार लेने की बाट जोह रहा है। ऐसी संस्था के गठन का विचार आगे तो बढ़ा था, लेकिन 2015 के बजट में इसे जगह नहीं मिल पाई। स्वतंत्र ऋण प्रबंधन एजेंसी की भूमिका यही होगी कि वह कम से कम लागत में सरकारी ऋण का प्रबंधन करेगी। जब हम नए राजकोषीय ढांचे की ओर कदम बढ़ा रहे हैं तो इसका भी समय आ गया है कि राजकोषीय अनुशासन और उधारी की लागत घटाने के लिए संस्थागत उपाय भी किए जाएं।

[ लेखिका नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में वरिष्ठ अर्थशास्त्री हैं ]