नई दिल्ली [ बिंदू डालमिया ]। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अब अपने तुरुप के पत्ते तेज चलने होंगे, क्योंकि आम चुनाव करीब एक साल ही दूर है और यह तय है कि 2019 के चुनाव वैसे नहीं होंगे जैसे पिछले आम चुनाव हुए थे। वैसे भी हर चुनाव की प्रवृत्ति और प्रकृति अलग होती है। उनके मुद्दे भी अलग होते हैं। अगले लोकसभा चुनाव के मुद्दे अब सतह पर आने लगे हैं। 2014 केआम चुनाव में नरेंद्र मोदी भ्रष्टाचार और संप्रग सरकार की नीतिगत पंगुता को चुनौती दे रहे थे। 2014 के चुनावों में मोदी तमाम सवालों के जवाब मांग रहे थे, लेकिन 2019 के चुनावों में उन्हें तमाम सवालों के जवाब खुद देने होंगे।

2014 को 2019 में दोहराना भाजपा के लिए होगा कठिन

पिछले चार सालों में अनेक राज्यों में राजग सरकारों का विस्तार हो गया है और अब 20 राज्यों में भाजपा या उसके सहयोगी दलों की सरकारें हैं। कुछ समय पहले ही पूर्वोत्तर राज्यों के विधानसभा चुनावों में राजग को फिर अभूतपूर्व सफलता मिली, लेकिन उसके बाद उत्तर प्रदेश और बिहार की तीन सीटों पर हुए लोकसभा के उपचुनावों ने विपक्षी खेमे में उत्साह भर दिया। वे फिर कमर कसकर तैयार हो रहे हैं। हाल में तेलुगु देसम पार्टी के राजग से बाहर होने से विपक्ष को मोदी सरकार के खिलाफ माहौल बनाने में और मदद मिली है। इसके बावजूद यह साफ है कि आगामी आम चुनावों के वक्त एक ओर मोदी होंगे और दूसरी ओर अन्य विपक्षी दलों के नेता। विपक्षी दल चाहेंगे कि वे वोटरों को ज्यादा से ज्यादा सरकार के प्रति असंतोष से भर पाएं ताकि विपक्षी एकता मजबूत हो सके। 2014 के चुनावों में भाजपा ने जो माहौल बनाया था उसे दोहराना उसके लिए कठिन होगा। हिंदी भाषी राज्यों में हालात बदल रहे हैं तो दक्षिण और पश्चिम बंगाल में चुनावी संभावनाएं चुनौतीपूर्ण बनी हुई हैं। जो भी हो, आगामी आम चुनाव के बाद टीडीपी जैसे सहयोगी दल फिर भाजपा की ओर लौट सकते हैं। उनके राजग से हटने की वजह कोई सिद्धांत नहीं, बल्कि अवसरवादिता है।

पिछले तीन महीनों से अखबारों में बैंक घोटालों, किसान असंतोष और बेरोजगारी संबंधी खबरों ने तस्वीर को कुछ बदला है। छह महीने पहले तक कोई इस बारे में सोच भी नहीं रहा था, लेकिन अब तमाम सवाल उठाए जाने लगे हैं। चुनाव आने तक ये सवाल और बढ़ेंगे। यह संभव नहीं कि यह स्थिति भाजपा की चुनावी संभावनाओं पर असर न डाले, लेकिन यह भी सही है कि अगर आर्थिक और प्रशासनिक मोर्चे पर मोदी सरकार तेजी से कदम उठाए तो उसे इसका फायदा मिलेगा। मोदी सरकार ने पिछले चार सालों में कई अच्छी योजनाएं चलाई हैं। इनमें जनधन, स्वच्छ भारत, फसल बीमा योजना, सबके लिए मकान, ग्रामीण विद्युतीकरण और गरीबों के लिए स्वास्थ्य बीमा जैसी योजना शामिल हैं। हालांकि फील गुड फैक्टर आर्थिक संपन्नता के रूप में नहीं दिख रहा है, लेकिन अर्थशास्त्री भी मान रहे हैं कि 60 फीसदी अर्थव्यवस्था फिर से पटरी पर लौटने की ओर है। ऐसे दौर में अच्छी योजनाएं और बेहतर आर्थिक परिवेश भाजपा के लिए सफलता की कुंजी बन सकता है।

मोदी सरकार आर्थिक सुधार कार्यक्रम शुरु में ही ले आती

इसमें दो राय नहीं हो सकती कि आजादी के बाद लागू की गईं आर्थिक नीतियों ने देश को बदहाली के कगार पर पहुंचाया। विकास के मोर्चे पर खराब स्थिति ने भ्रष्टाचार को फलने-फूलने का मौका दिया और एक बड़ी आबादी निर्धनता में जकड़ी रही। मोदी सरकार गलत नीतियों और तौर-तरीकों को दुरुस्त कर रही है। उसके इरादे साफ हैं कि गलत तौर-तरीकों को रोका जाए और हर क्षेत्र में बिगड़ी हुई व्यवस्था को सुधारा जाए। क्या आप विश्वास करेंगे कि फिलहाल मुश्किल से तीन-चार फीसदी लोग ही टैक्स देते हैं। अच्छा होता कि मोदी सरकार आर्थिक सुधार के कार्यक्रम अपने कार्यकाल की शुरुआत में ही ले आती। इसमें जो देर हुई उसकी भरपाई की जानी चाहिए। शायद ऐसा ही किया जा रहा है।

नेशनल हेल्थ प्रोटेक्शन स्कीम यानी एनएचपीएस की शुरुआत यही बताती है। यह योजना करीब 50 करोड़ गरीबों के लिए लाई गई है। यह बाजी पलटने वाली साबित हो सकती है और शायद इसीलिए इसे मोदीकेयर कहा जा रहा है, लेकिन यह महत्वाकांक्षी योजना कारगर तभी साबित होगी जब उसे ज्यादा से ज्यादा पात्र लोगों तक पहुंचाया जा सके। बहुत कुछ इस पर भी निर्भर करेगा कि यह योजना कितनी तेजी से लागू होती है और राज्य सरकारें केंद्र की इस योजना में कितना सहयोग करती हैं?

कार्पोरेट, बैंकिंग और सरकार के सांठगांठ पर धारणा बदलने की जरुरत

मोदी सरकार के सामने कुछ चुनौतियां पुरानी हैं और कुछ नई भी। हाल में स्टेट बैंक ने कहा है कि नकदी के प्रवाह में फिर रुकावट आ रही है। इसकी वजह यह हो सकती है कि चुनावों के कारण सियासी दलों ने धन इकट्ठा करने का काम शुरू कर दिया होगा। चुनाव से पहले सभी राजनीतिक पार्टियां धन जुटाने में लग जाती हैं, लेकिन कैशलेस इकोनॉमी में इस पर रोक लगाने की जरूरत है। पीएनबी घोटाले ने बताया कि बैंकिंग सिस्टम में बड़े छेद हैं। इन्हें बंद करने के लिए न केवल कड़े कदम उठाने होंगे, बल्कि बैंकिंग सिस्टम को बदलना होगा। गहन निगरानी और उम्दा कारपोरेट प्रशासन की जरूरत है ताकि बैंकों का एनपीए कम हो सके। फिलहाल यह धारणा बलवती हो रही है कि एक ओर तो पैसे वाले बड़े कारोबारियों के कर्ज पर लचीला रुख अपनाया जाता है और दूसरी ओर कर्ज लेने वाले गरीब किसानों के साथ सख्ती होती है। इस धारणा को बदलने की जरूरत है।

नि:संदेह जीएसटी लाना उचित था, लेकिन उसके सही तरीके से लागू न हो पाने के कारण सरकार को व्यापारियों की नाराजगी का सामना करना पड़ रहा है। प्रत्यक्ष कर की दरों को तर्कसंगत बनाने की आवश्यकता भी है। मध्य वर्ग केलिए सरकार को कुछ न कुछ सोचना चाहिए, क्योंकि उससे केवल लिया ही गया है। इसी तरह बड़े स्तर पर नौकरियां देने और 250 करोड़ रुपये से ज्यादा टर्नओवर वाले उद्योगों या कारोबारी समूहों को भी राहत से बाहर रखा गया है। अमेरिका आदि देशों में ऐसा नहीं होता। वहां जो कंपनी ज्यादा लाभ और ज्यादा रोजगार देती है उसे टैक्स में भी रियायत मिलती है। टीम मोदी माहौल बनाने में सक्षम है। अगर वह थोड़े भी अनुकूल कदम तेजी के साथ उठाती है तो हवा उसके पक्ष में बह सकती है। वैसे भी जनता यह देख रही है कि मोदी के विकल्प के रूप में कोई एक नेता उसके सामने नहीं है और अलग-अलग नीति और विचारों वाले नेताओं का जमावड़ा कोई बहुत उम्मीद नहीं जगाता।

[ उपन्यासकार एवं स्तंभकार ]