संतोष त्रिवेदी: बजट का दिन था। सुबह से ही पेट में हलचल मची थी। कर्तव्य-पथ की झांकी देखने के बाद हमारा यह दूसरा कर्तव्य था, जब हम टीवी पर आंखें गड़ाए बैठे थे। साथ में दद्दू भी थे। वह बार-बार उचक रहे थे। हमसे ज्यादा उन्हें इस मौके का इंतजार था। आखिरकार सरकार ने अपनी पिटारी खोली। काफी देर तक बड़ी गंभीर किस्म की बातें होती रहीं, जो हमारे भेजे में जाने को तैयार ही नहीं थीं। हमें तब भी भरोसा था कि गंभीर-मंथन से कुछ न कुछ तो निकलेगा ही। बजट आने से पहले ही सरकार ने स्वयं हलवा चखा था। उसी हलवे का मजा अब हमें भी चखाएगी। यह सोच ही रहा था कि अचानक सत्ता-पक्ष की ओर से जोर-जोर से तालियां पीटी जाने लगीं। तभी सरकार जी ने घोषणा की कि हम अमृतकाल में प्रवेश कर चुके हैं और यह अमृतकाल का पहला बजट है। यह सुनकर हमारे साथ बैठे दद्दू का बचा-खुचा भरोसा भी उठ गया, जो यह समझे बैठे थे कि सरकार का यह आखिरी बजट है।

मैंने दद्दू की चिंता दूर करने के लिहाज से कहा, ‘आप तनिक भी मत घबराओ। विष-वर्षा का समय गया। अब केवल अमृत बरसेगा। देख लीजिएगा, इस अमृतकाल में महंगाई और बेरोजगारी को सिर छुपाने की जगह भी नहीं मिलेगी। अब आप जो भी ‘विष-वमन’ करेंगे, वह अमृत हो जाएगा।’ इस हौसला-अफजाई का दद्दू पर असर नहीं हुआ। हम चैनल-चैनल भटकने लगे। कहीं भी आत्मा को शांति नहीं मिल रही थी। अचानक एक चैनल पर हम दोनों की निगाहें बर्फ की तरह जम गईं। गजब दृश्य था। आसमान में एक मचान बंधा हुआ था। चार चैनल-चंचलाएं चर्चा को शिखर पर ले जाने को बेताब थीं। तीन विशेषज्ञ कमर में बजट को पेटी की तरह बांधे हुए दिख रहे थे। 10 कैमरे जमीन पर और 15 मचान पर तैनात थे। चैनल का दावा था कि 'उसकी सतर्क निगाह से अब कुछ नहीं बचेगा। बजट की क्या मजाल जो उससे रत्ती भर भी बच जाए! उनका चैनल हवा में बातें ही नहीं करता, देखता भी है। हवा से ही उनकी टीम जमीनी सच्चाई परख लेगी।' हमारी नजरें उसी चैनल पर टिकी रहीं।

एक समाचार-सुंदरी ने हमारा बजट-बोध कराते हुए कहा, अमृतकाल में पेश किया गया यह ऐतिहासिक बजट है। इसकी चर्चा के लिए हमारे पास अलग-अलग दृष्टि रखने वाले विशेषज्ञों का पैनल है। जो सबसे बाईं ओर बैठे हैं, उनके पास ‘विकट-दृष्टि’ है। इन्हें अपने आसपास विकट के सिवाय कुछ नहीं दिखता। जो सज्जन बीच में विराजमान हैं, उनके पास ‘गिद्ध-दृष्टि’ है। इनकी विशेषता है कि इन्हें बहुत दूर का दिखता है, पास का बिल्कुल नहीं। और आखिर में दाईं ओर जो महामना तनकर बैठे हैं, उन्हें ‘दिव्य-दृष्टि’ प्राप्त है। इनकी खासियत है कि इन्हें वह भी दिखता है, जो होता ही नहीं। यह जो दिखाते हैं, लोग वही देखने लगते हैं।

दूसरी चैनल-कन्या ने विमर्श को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘मेरा पहला प्रश्न विकट-दृष्टि जी से है। इस बजट को आप कैसे देखते हैं?’ उन्होंने अंगुली उठाते हुए कहा, ‘मैं इन लोगों से शुरू से ही कह रहा हूं, पर इन्हें कुछ नहीं दिखता। यह बजट गरीब-विरोधी है। अगर सरकारी दावे के हिसाब से गरीबी दूर होगी तो बताओ, गरीब कहां जाएगा? इसलिए यह बजट भी इनके वादों की तरह झूठा है।’ ‘और आपकी इस पर क्या राय है? आप अमृतकाल के आगमन पर क्या सोचते हैं?’ चैनल-चंचला ने ‘गिद्ध-दृष्टि’ वाले सज्जन की ओर ताकते हुए पूछा। ‘मुझे तो पिछले आठ वर्षों से दिख रहा है। चुनाव आता है। सरकार आती है। बजट आता है। इसमें नया क्या है? रही बात अमृतकाल की तो यह सरकार की साजिश है। वह इसी बहाने अमृत पीकर अमर होना चाहती है। मैं तो देख रहा हूं कि आगे चुनाव ही नहीं होंगे।’

यह सुनते ही ‘दिव्य-दृष्टि’ वाले सज्जन एकदम से उखड़ गए। मचान का एक पाया उखाड़कर वे कहने लगे, ‘यह बजट का घोर अपमान है। कोरोना-काल के बावजूद सरकार अमृतकाल खींच लाई है, यह कम उपलब्धि है?’ यह सुनते ही बाकी दोनों सज्जन पेटी खोलकर खड़े हो गए। इससे विमर्श में संतुलन बिगड़ गया। मचान टूट गया, पर बजट का तिलिस्म नहीं टूटा। गनीमत रही कि किसी की हड्डी नहीं टूटी। दद्दू बोले, ‘यह अवश्य ही अमृतकाल का प्रताप है।’