नई दिल्ली [ डॉ. एके वर्मा ]। लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के विचार को कुछ नेता और विद्वान सिरे से खारिज कर दे रहे हैं। आखिर उनकी चिंताए क्या हैं? चूंकि स्वतंत्रता के बाद चार बार अर्थात 1952, 1957, 1962, 1967 में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही हुए थे इसलिए एक साथ चुनाव का विचार कोई ऐसा क्रांतिकारी विचार नहीं जो लोकतंत्र या संघीय व्यवस्था के लिए खतरा हो। 1967 में चौथे आम-चुनावों के बाद आठ राज्यों-बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, तमिलनाडु और केरल की विधानसभाओं में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला और संयुक्त विधायक दलों (संविद) की गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं। यह भारतीय लोकतंत्र का एक नया स्वरूप था।

देश की सुरक्षा और विकास में कोई बाधा नहीं आएगी

इसने न केवल गैरकांग्रेसी दलों को विभिन्न राज्यों में राजनीतिक ‘स्पेस’ दिया वरन प्रतिस्पर्धात्मक संघवाद की शुरुआत भी की। इसने यह रेखांकित किया कि केंद्र में कांग्रेस और राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें होने से देश की सुरक्षा और विकास में कोई बाधा नहीं आएगी, लेकिन राज्यों में संविद सरकारों के घटक-दलों में कोई तालमेल न होने से वे सरकारें दलबदल और अस्थिरता का शिकार हो गईं।

इससे मध्यावधि चुनावों का दौर शुरू हो गया और लोकसभा एवं विधानसभाओं के चुनाव अलगअलग होने लगे। चंद दिनों पहले पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपने विचारों को बदलते हुए एक साथ चुनाव कराने की व्यावहारिकता के साथ-साथ उसके प्रतिनिध्यात्मक स्वरूप पर भी सवाल उठाए। देश ने जब 1950 में संवैधानिक लोकतंत्र में प्रवेश किया उस समय संसाधनों का अभाव था, फिर भी चुनाव आयोग ने सफलतापूर्वक एक साथ चुनाव कराए तो फिर आज व्यावहारिकता का प्रश्न उठाना कितना उचित है? आज तो चुनाव आयोग के पास अनुभव, संसाधन और टेक्नोलॉजी, तीनों की प्रचुरता है। प्रणब मुखर्जी ने यह भी स्पष्ट नहीं किया कि एक साथ चुनाव से बनी लोकसभा और विधानसभाएं कैसे कम प्रतिनिध्यात्मक होंगी? और क्या प्रथम चार लोकसभाएं कम प्रतिनिध्यात्मक थीं?

 कांग्रेस को लगता है एक साथ चुनाव भाजपा के पक्ष में चले जाएंगे

हालांकि एक साथ चुनाव कराने में आने वाली कठिनाइयों के कई राजनीतिक, संवैधानिक और प्रशासनिक पहलू है, लेकिन क्या वाकई कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों को यह लगता है कि एक साथ चुनाव भाजपा के पक्ष में चले जाएंगे? क्या शुरुआती चुनावों, जिनमें एक साथ चुनाव कांग्रेस के पक्ष में चले गए थे, के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना ठीक होगा? बदले हुए संदर्भ में इसका उलट भी तो हो सकता है? क्या पिछले सत्तर वर्षों में भारतीय मतदाता ने अपनी परिपक्वता प्रमाणित नहीं की है? यदि इस बार एक साथ चुनाव हो भी जाएं तो उसे आगे भी साथ-साथ करना कैसे सुनिश्चित किया जाए? इस सवाल का हल खोजना जरूरी है।

आखिर तब क्या होगा जब प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री पांच वर्ष के पहले ही त्यागपत्र दे दें या अविश्वास प्रस्ताव पर पराजित हो जाएं और लोकसभा या विधानसभा भंग करने की सलाह दें अथवा अनु.356 के तहत किसी राज्य में आपातकाल लागू होने पर राज्य सरकार को बर्खास्त कर विधानसभा भंग कर दी जाए? ऐसे में लोकसभा या विधानसभाओं को भंग करने का प्रावधान ही केंद्रीय है जो मध्यावधि चुनाव की ओर ले जाएगा और इससे एक साथ चुनावों का क्रम भंग हो जाएगा। इससे निपटने के लिए हमें संविधान के अनु 85(2)ख और अनु 174(2)ख में संशोधन कर ‘भंग’ की जगह निलंबन शब्द का प्रयोग करना होगा अर्थात राष्ट्रपति लोकसभा और राज्यपाल विधानसभा को भंग नहीं कर सकेंगे। वे उसे निलंबित रखेंगे। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब विधानसभाओं को निलंबित रखा गया है।

मध्यावधि चुनावों का कोई प्रश्न ही नहीं उठेगा 

हाल के समय में जनवरी 2010 में जम्मू- कश्मीर, दिसंबर 2013 में दिल्ली और जनवरी 2016 में अरुणाचल प्रदेश की विधानसभा को निलंबित रखा गया। इस संशोधन का परिणाम यह होगा कि सरकार त्यागपत्र देने या गिरने की स्थिति में विभिन्न दल आपसी तालमेल का पुन: प्रयास करेंगे और किसी समझौते पर पहुंच कर, बिना चुनावों के झंझट में पड़े, एक नई सरकार बना सकेंगे। राज्यपाल द्वारा अनु 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाने के साथ विधानसभा भंग करने के प्रतिवेदन पर केंद्र-राज्यों में हमेशा विवाद होते रहे हैं। उपरोक्त संशोधन से इन विवादों का भी पटाक्षेप हो सकेगा। जाहिर है इसके लिए उन सभी संवैधानिक प्रावधानों में भी संशोधन करना होगा जिनमें लोकसभा या विधानसभाओं को भंग करने का उल्लेख आया है। इससे लाभ यह होगा कि अपने पांच वर्ष के कार्यकाल के पहले लोकसभा या विधानसभाएं भंग ही नहीं हो सकेंगी। इससे मध्यावधि चुनावों का कोई प्रश्न ही नहीं उठेगा और तब एक साथ चुनावों का क्रम भी कभी नहीं टूटेगा।

रोज-रोज के चुनावों से मुक्ति मिलेगी

यह संसदात्मक लोकतंत्र में एक नया प्रयोग होगा जो विधायिका को स्थायित्व की ओर ले जाएगा और देश को रोज-रोज के चुनावों से मुक्ति दिलाएगा। चूंकि राज्यसभा और राज्यों में विधान परिषदों को पूर्ण स्थायित्व प्राप्त है इसलिए इन सदनों को भी स्थायित्व देना कोई गैर-संसदात्मक या गैर- लोकतांत्रिक कदम नहीं। संभवत: हमारे जन- प्रतिनिधियों को भी इससे कुछ राहत मिलेगी और वे भी चुनावों के बाद अपने निर्वाचन क्षेत्र के विकास पर ध्यान दे सकेंगे। अभी तो वे चुनाव की चिंता में लगे रहते हैं। यह आश्चर्य की बात है कि देश में जितने चुनाव होते हैं, सबकी अलगअलग मतदाता सूचियां हैं।

ऐसे ही अनेक चुनाव-सुधारों की देश को जरूरत

आखिर एक मतदाता सूची क्यों नहीं हो सकती जो सभी चुनावों का आधार बने? कई बार चुनाव आयोग द्वारा जारी मतदाता पहचान-पत्र और उसी के द्वारा बनाई मतदाता-सूची में अंतर्विरोध दिखता है। वोट देने में पहचान-पत्र बेकार हो जाता है, अगर मतदाता सूची में नाम नहीं है। ऐसे ही अनेक चुनाव-सुधारों की देश को जरूरत है, लेकिन बड़ा प्रश्न यह है कि हम अपने लोकतंत्र को कब तक चुनावतंत्र के पर्याय के रूप में पेश करते रहेंगे? चुनावों से आगे ‘सुशासन’ कब हमारे राष्ट्रीय विमर्श का केंद्रबिंदु बनेगा? देश में लोकसभा, विधानसभाओं, नगरपालिकाओं, पंचायतों के चुनाव होते ही रहते हैं। बीच-बीच में उप-चुनाव भी चलते रहते हैं। अखबार और टीवी पर बहसों में हर समय चुनाव-चर्चाएं उबाने लगीं हैं। हम शासन, प्रशासन, नीतियां, सरकारी निर्णय, विकास और लोक-कल्याण के कार्यों की समीक्षा पर कब ध्यान केंद्रित करेंगे?

सरकारों और दलों को अपने काम में मन लगाने का अवसर मिलेगा

यदि सभी चुनाव एक साथ या एक वर्ष में हो जाएं तो कम से कम अगले चार वर्ष तो सभी सरकारों और दलों को अपने काम में मन लगाने का अवसर मिलेगा। अगर हम अपने प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और जन-प्रतिनिधियों को हर समय यहां-वहां चुनावों में दौड़ाते रहेंगे तो वे स्थिर मन से जनता के लिए काम कब करेंगे? नौकरशाह चुनावों की दुहाई देकर उन कामों को भी नहीं करते जो आचार-संहिता के लागू होने से प्रतिबंधित नहीं होते। इस मुद्दे पर कोई अंतिम निर्णय लेने से पूर्व सभी प्रभावित पक्ष और विद्वान एक साथ चुनाव की चर्चा पर सहभागिता करें ताकि भारतीय लोकतंत्र और संघीय व्यवस्था और सशक्त एवं गतिमान हो सके।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं)