[गुरुप्रकाश]। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की ओर से उठाए गए इस सवाल का कोई संतोषजनक जवाब अभी तक सामने नहीं आ पाया है कि आखिर दलितों की चिंता करने वाले लोग अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में दलित छात्रों के लिए आरक्षण की पैरवी क्यों नहीं करते? ये दोनों केंद्रीय विश्वविद्यालय संसद की ओर से पारित कानून से बने हैं। उन्हें भारत सरकार से आर्थिक सहायता भी मिलती है। इस नाते इन दोनों शैक्षिक संस्थानों में अनुसूचित जाति और जनजाति के छात्रों को उतने प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए जितने प्रतिशत अन्य केंद्रीय विश्वविद्यालयों में मिलता है। आश्चर्यजनक यह है कि इसकी पहल और पैरवी वे लोग भी नहीं करते जो दलित-मुस्लिम एकता के हामी हैं। वैसे दलित-मुस्लिम एकता की पहल अव्यावहारिक है। इस अव्यावहारिकता से डॉ. भीमराव आंबेडकर भली तरह परिचित थे और उन्होंने यह लिखा भी है कि इस्लाम में भाईचारा का भाव केवल मुसलमानों के लिए है। यह उल्लेखनीय है कि आज जो दलित नेता दलित-मुस्लिम एकता की बातें करते हैं वे यह देखने से इन्कार कर रहे हैं कि आंबेडकर ने इन दोनों वर्र्गों की एकता के विचार को आगे नहीं बढ़ाया। दरअसल वे जानते थे कि यह संभव नहीं।

दलित-मुस्लिम एकता की बातें महज राजनीतिक जुमला हैं। दलित सदैव पीड़ित शोषित रहे हैं, लेकिन मुसलमानों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता। शायद यही कारण रहा कि उत्तर प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव में मायावती की ओर से दलित-मुस्लिम गठजोड़ बनाने की पहल नाकाम साबित हो गई। मायावती ने 90 सीटों पर मुसलमान उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन वे ज्यादातर पराजित हो गए। बसपा को कुल 19 सीटें ही हाथ लगीं। दलित- मुस्लिम एकता की बातें करने वाले यह भी रेखांकित करने की कोशिश कर रहे हैं कि दलिर्त हिंदू समाज से कोई अलग समुदाय है। यह पूरी तौर पर मिथ्या धारणा है। दलित कोर् हिंदूधर्म से अलग नहीं देखा जा सकता और न ही देखा जाना चाहिए, क्योंकि खुद दलित समुदाय की आस्र्था हिंदू देवी-देवताओं के साथ-साथ धार्मिक- सांस्कृतिक मान्यताओं में हैं। यह उतनी ही गहरी है जितनी अन्र्य समाजों की। स्पष्ट है कि यह विचार साकार नहीं होने वाला कि दलित हिंदू समाज से अलग वर्ग है। ध्यान रहे कि कांशीराम दलितों के धार्मिक समागम में हिस्सा लेते थे। वह जानते थे कि दलितों की धार्मिक भावनाओं को आदर सम्मान देकर ही उन्हें भरोसे में लिया जा सकता है। दलित-मुस्लिम एका के नाम पर ठीक इसका उलटा हो रहा है।

अगर दलित-मुस्लिम एका के पक्षधर अपने इस विचार के प्रति तनिक भी गंभीर होते तो वे एएमयू और जामिया मिलिया सरीखे शिक्षा संस्थानों में दलित वर्ग के छात्रों के साथ-साथ इस वर्ग के शिक्षकों के लिए भी आरक्षण की मांग करते। आश्चर्यजनक रूप से ऐसी कोई मांग करने के बजाय उसका विरोध किया जा रहा है। योगी आदित्यनाथ की ओर से उठाए गए सवाल पर यह एक तर्क आया है कि एएमयू और जामिया मिलिया अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान हैं, लेकिन यह तर्क देने वाले इसकी अनदेखी कर रहे हैं कि एक तो केंद्र सरकार ने इन संस्थानों को दिए गए अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान के दर्जे को चुनौती दी है और दूसरे, ऐसे संस्थानों का यह नैतिक दायित्व बनता है कि वे अपने यहां अनुसूचित जाति एवं जनजाति के छात्रों के लिए कोई आरक्षण सीमा तय करें। आखिर इस नैतिक दायित्व की पूर्ति क्यों नहीं हो रही है? इस दायित्व की पूर्ति तो हर समर्थ शिक्षा संस्थान को करनी चाहिए, भले ही वह अल्पसंख्यक दर्जे से ही लैस क्यों न हो?

योगी आदित्यनाथ का मूल सवाल यह था कि जब बनारस हिंदू विश्वविद्याल में दलित छात्रों को आरक्षण हासिल है तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया में उन्हें आरक्षण क्यों नहीं मिल सकता? इस पर यह एक दलील दी गई कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और ऐसे ही अन्य विश्वविद्यालयों में उतने दलित छात्र और शिक्षक नहीं हैं जितने होने चाहिए। यदि एक क्षण के लिए इस तर्क को सही मान लिया जाए तो क्या इसके आधार पर एएमयू और जामिया मिलिया में दलित छात्रों को आरक्षण देने से इन्कार करना न्यायसंगत हो जाता है? इस सवाल का जवाब खोजने के साथ ही यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या विश्वविद्यालयों और खासकर केंद्रीय विश्वविद्यालयों में तय संख्या में दलित छात्रों को प्रवेश और दलित शिक्षकों को नियुक्ति मिल पा रही है? अपेक्षित संख्या में दलित छात्रों को प्रवेश मिलने और दलित वर्ग के शिक्षकों की नियुक्ति के बाद ही समरस समाज की स्थापना की जा सकती है। कम से कम यह तो देखा ही जाना चाहिए कि बाबा साहब और ऐसे ही अन्य दलित प्रतीकों के नाम पर स्थापित विश्वविद्यालयों में दलित शिक्षकों के साथ कुलपति की नियुक्ति प्राथमिकता के आधार पर हो।

(लेखक पटना विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं)