पवन चौरसिया। USA Protest: आज अमेरिका के भीतर व्यापक अशांति कायम है। एक अश्वेत नागरिक की पुलिस हिंसा में मौत ऐसे समय में हुई है, जब आगामी कुछ माह बाद अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव होने वाले हैं और वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप स्वयं को रिपब्लिकन पार्टी का प्रत्याशी घोषित करवा कर दोबारा चुनाव जीतना चाहते हैं। दरअसल जॉर्ज फ्लॉयड की मृत्यु की घटना और उसके कारण अमेरिका के कई नगरों में उत्पन्न हुए प्रदर्शनों ने अमेरिकी समाज में मौजूद नस्लवाद की समस्या को एक बार फिर से केंद्र में ला दिया है।

‘दास प्रथा’ और ‘औपनिवेशवाद’ : ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ नाम से जारी प्रदर्शनों ने न केवल अमेरिकी श्वेत-सर्वोच्चतावादी राजनीति को खुली चुनौती दी है, बल्कि इस आंदोलन में ‘दास प्रथा’ और ‘औपनिवेशवाद’ का समर्थन करने वाले क्रिस्टोफर कोलंबस आदि की मूíतयों को नुकसान पहुंचा कर श्वेत-नजरिये वाले इतिहास को भी बदलने की मांग की जा रही है। यह आंदोलन अमेरिकी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन लाने की संभावना रखता है। यही कारण है कि बड़ी-बड़ी अमेरिकी कंपनियों एवं खेल जगत की लोकप्रिय हस्तियों आदि ने भी ट्विटर और अन्य माध्यमों से इस आंदोलन का समर्थन किया है। इस बीच अमेरिकी युवाओं में इस बात को लेकर एक राय बनती जा रही है कि नस्लवाद की विचारधारा अमेरिकी मूल्यों-उदारवाद, स्वतंत्रता और लोकतंत्र के विपरीत है। इस आंदोलन के अनेक पहलू हैं, लेकिन सबसे पहले हमें अफ्रीकी-अमेरिकी आंदोलन के इतिहास को जानना होगा जिसने वर्तमान के इस आंदोलन का खाका तैयार किया है।

अफ्रीकी अमेरिकी आंदोलन-एक ऐतिहासिक दृष्टिकोण : सत्रहवीं सदी की शुरुआत में व्यापार के जरिये अफ्रीकी देशों से दासों के रूप में अमेरिका लाए गए अश्वेतों के संघर्ष का इतिहास काफी लंबा है। वैसे अमेरिका में गृह युद्ध के बाद ही संविधान में तेरहवां संशोधन लाकर तब के अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने दास प्रथा को वर्ष 1865 में ही समाप्त कर दिया गया था, लेकिन अश्वेत, विशेष रूप से अफ्रीकी मूल के अमेरिकी नागरिकों को वहां पर अनेक प्रकार के भेद-भाव और यातनाओं को सहन करना पड़ता था। वर्ष 1868 में अमेरिकी संविधान के चौदहवें संशोधन ने अफ्रीकी-अमेरिकियों को कानून के तहत समान सुरक्षा प्रदान की, वहीं 1870 के पंद्रहवें संशोधन ने उन्हें वोट डालने का अधिकार प्रदान किया।

यूरोपीय मूल के श्वेत अमेरिकियों को ऐसा किया जाना रास नहीं आया और उन्होंने अमेरिका के दक्षिणी भाग में ‘जिम क्रो’ नामक कानून लागू कर दिया। दरअसल इस कानून के अंतर्गत अफ्रीकी-अमेरिकियों को श्वेत अमेरिकियों द्वारा प्रयोग की जा रहीं जन सुविधाओं, स्कूलों और कॉलोनियों आदि में वर्जति कर दिया गया। अंतर-नस्लीय विवाह पर प्रतिबंध लगाने के अलावा उनके मताधिकारों को भी सीमित कर दिया गया और उनके साथ भेद-भाव को आधिकारिक रूप से प्रोत्साहन दिया जाने लगा। वर्ष 1905 में डब्ल्यूईबी डू बॉइस ने कुछ अन्य अश्वेत बुद्धिजीवियों के साथ मिल कर नियाग्रा आंदोलन की शुरुआत की, जिसका मकसद अमेरिका में सामाजिक एवं राजनीतिक परिवर्तन लाने एवं शिक्षा, रोजगार तथा परिवहन जैसे क्षेत्रों में भेदभाव को समाप्त करना था।

अमेरिकी नस्लवादी मानसिकता : हालांकि ये अपने लक्ष्य को पूरी तरह से नहीं प्राप्त कर पाए, लेकिन इन्होंने आने वाले ‘नागरिक अधिकार’ आंदोलन की नींव रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। महात्मा गांधी की सत्य और अहिंसा की विचारधारा से प्रभावित होकर अमेरिकी बुद्धिजीवी एवं अश्वेत नेता मार्टनि लूथर किंग जूनियर ने वर्ष 1960 के बाद व्यापक स्तर पर नागरिक अधिकार आंदोलन का नेतृत्व किया जो अमेरिकी इतिहास का सबसे प्रभावशाली और क्रांतिकारी आंदोलन माना जाता है। इस आंदोलन ने अमेरिकी नस्लवादी मानसिकता को काफी हद तक बदला और इसी दबाव के चलते अमेरिकी सरकार को वर्ष 1964 में नागरिक अधिकार कानून पारित करना पड़ा जिसने वहां नस्लीय अलगाव और सार्वजनिक स्थानों पर भेद-भाव को कानूनी रूप से समाप्त किया।

इसी आंदोलन के दबाव के चलते ही अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ने नस्लीय भेद-भाव को समाप्त करने और सभी को समान अधिकार देने की दिशा में कई निर्णय दिए। वर्ष 1965 के आसपास मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी विचारधारा से प्रभावित अश्वेतों का आंदोलन हिंसक भी हो गया जो हथियारों के दम पर अश्वेतों की रक्षा करने एवं क्रांति लाने की वकालत करने लगा, जिसको ‘ब्लैक पावर’ और ‘ब्लैक पैंथर्स’ के नाम से जाना जाने लगा। ऐसा माना जाता है कि वर्तमान समय में चल रहे ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन की शुरुआत वर्ष 2013 में ही हुई थी जब एक अमेरिकी अदालत ने एक श्वेत अतिवादी को अश्वेत की हत्या के मामले में दोषमुक्त करार दिया था।

साहित्य से लेकर हॉलीवुड तक भेदभाव : नस्लवाद के खिलाफ लड़ाई में अश्वेत नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं के अलावा लेखकों, कवियों और साहित्यकारों का बहुत योगदान रहा जिन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से अश्वेतों की समस्याओं, उनकी दैनिक चुनौतियों, उनके नजरिये को दुनिया के सामने रखा। संसाधनों और प्रकाशकों के अभाव के बावजूद शुरुआत में उन्होंने दास-प्रथा के विरुद्ध लिखना चालू किया और साक्षरता को स्वतंत्रता से जोड़ने लगे। फिलिस व्हीटले और लूसी टेरी जैसे लेखक सबसे पहले प्रकाशित अश्वेत बने। इसी तरह उन्नीसवीं शताब्दी में फ्रेडरिक डगलस, हैरियट जेकब, ओलाउदा एकुआनो सरीखे लेखकों की आत्मकथा, जिसमें उन्होंने दास समुदाय के नजरिये को दर्शाया, साहित्य जगत में मील का पत्थर साबित हुई।

वर्ष 1903 में प्रकाशित डब्ल्यूईबी डू बॉइस की प्रसिद्ध किताब ‘द सोल ऑफ ब्लैक फोक’ ने अश्वेत लोक संस्कृति के मूल्यों को उजागर करते हुए अश्वेतों के स्वयं को हीन समझने के दर्द को साझा किया। रिचर्ड राइट द्वारा 1940 में लिखी गई ‘नेटिव सन’ ने भेदभाव, मजदूर और वर्ग-संघर्ष में फंसे हुए नगरीय अफ्रीकी-अमेरिकियों की वास्तविकताओं को जन-मानस तक पहुंचाया। अफ्रीकी-अमेरिकी साहित्य को सबसे बड़ी उपलब्धि 1993 में प्राप्त हुई जब अफ्रीकी-अमेरिकी लेखिका टोनी मॉरिसन को उनके ‘बीलव्ड’ और ‘जैज’ जैसे उपन्यासों के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। तत्कालीन समय में कोल्सोन व्हाइटहेड, जैकलीन वुडसन, जेसमीन वार्ड, मौरिस कालरेस रफीन आदि लेखक साहित्य जगत में अपनी नई पहचान बना रहे हैं।

कई वर्षो से अश्वेतों के भीतर दबी हुई चिंगारी : अमेरिकी संस्कृति को दुनिया तक पहुंचाने वाले हॉलीवुड के जन्म से ही उसमें नस्लवाद और अश्वेतों के प्रति भेदभाव का प्रचलन रहा है। यहां अलगाववाद इस हद तक था कि अश्वेत अमेरिकी के किरदार को भी फिल्मों में दिखाने के लिए श्वेत अमेरिकियों के चेहरे पर कालिख पोत कर उनको उस किरदार में दिखाया जाता था। हालांकि आज यह नहीं होता है, फिर भी अमेरिका की संस्कृति में अश्वेतों को अधिकतर गुस्सैल, खतरनाक और आपराधिक छवि वाला पेश किया जाता है। अमेरिका आज एक ऐसे दोराहे पर खड़ा है जहां एक ओर कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी के कारण वहां भारी संख्या में लोगों की मृत्यु हो रही है तो वहीं दूसरी ओर जॉर्ज फ्लॉयड नामक एक अफ्रीकी-अमेरिकी (अश्वेत) व्यक्ति की पुलिस हिंसा से हुई मौत के कारण वहां व्यापक अस्थिरता का माहौल कायम है। हालांकि अमेरिका में किसी अश्वेत के साथ इस तरह का बर्ताव पहली बार नहीं हुआ है, लेकिन बीते कई वर्षो से अश्वेतों के भीतर दबी हुई चिंगारी के इस बार भड़क उठने से हालात भयावह हो चुके हैं।

अश्वेत आंदोलन और मौजूदा राजनीति : अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पर भी समय-समय पर श्वेतवादी राजनीति को बढ़ावा देने और उसका समर्थन करने के आरोप लगते रहते हैं। वर्तमान आंदोलन के दौरान उनके रवैये से माहौल और बिगड़ने की संभावना बन रही है। वर्ष 2017 में श्वेत-सर्वोच्चतावादियों, अतिवादियों द्वारा आयोजित एक रैली और उसके विरोध में बुलाई गई एक अन्य रैली में ऐसा कह कर कि दोनों तरफ अच्छे लोग हैं, उन्होंने श्वेत-सर्वोच्चतावादियों को वैधानिकता दिलाने का काम किया है। उनकी राजनीतिक वाक्पटुता ने अमेरिकी समाज में श्वेत और अन्य सामाजिक समुदायों के बीच संबंध मधुर बनाने का काम किया है। लेकिन अमेरिका में नस्लीय भेदभाव वैचारिक और व्यक्तिगत से ज्यादा ढांचागत और संस्थागत है, जिसका सुबूत समय-समय पर जारी आंकड़े देते रहते हैं कि कैसे आपराधिक मामलों में तो अफ्रीकी-अमेरिकियों का प्रतिशत भारी है, वहीं रोजगार और आíथक अवसरों के मामले में काफी कम। यदि डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जो बिडेन इस मुद्दे को भुना पाते हैं तो आगामी चुनावों में इस समुदाय की नाराजगी ट्रंप को भारी पड़ सकती है।

आखिर क्यों खास है यह आंदोलन : वैसे तो अमेरिका में कई आंदोलन हुए हैं, लेकिन जानकार इसे थोड़ा अलग मान रहे हैं। इस आंदोलन के केंद्र में अमेरिकी पुलिस है जिस पर समय-समय पर अश्वेतों को बेवजह निशाना बनाने के आरोप लगते रहते हैं। विशेष बात यह है कि इस आंदोलन से जुड़ने वाला एक बड़ा वर्ग अमेरिकी श्वेत समुदाय और दक्षिणपंथी झुकाव रखने वालों में से आता है जो मानता है कि देश की मौजूदा समस्या कुछ पुलिस अधिकारियों की मानसिकता की नहीं, बल्कि उस नस्लवादी व्यवस्था की है जो न केवल ऐसे लोगों को बर्दाश्त करती और संरक्षण देती है, साथ ही उनको ऐसा करने पर प्रोत्साहित भी करती है।

इसी के चलते आज विभिन्न अमेरिकी राज्यों में पुलिस एवं कानूनी सुधारों को लागू किया जा रहा है, जिसको लेकर दोनों ही प्रमुख राजनीतिक दल लगभग एकमत हैं। अमेरिका के अलग-अलग राज्यों में संस्थाओं को और अधिक समावेशी, और समानाधिकारवादी बनाने का प्रयास चल रहा है। मिनियापोलिस, जहां जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या हुई, वहां तो नगरीय सरकार ने पुलिस विभाग को ही समाप्त करने की घोषणा कर दी है। मांग यह भी उठ रही है कि पुलिस का बजट कम करके उसे अन्य सामाजिक कार्यक्रमों में लगाया जाए। आंदोलन की सफलता इस बात से भी नापी जाएगी कि अमेरिकी समाज अपनी पूंजीवादी-उदारवादी विचारधारा को अश्वेतों के हित के साथ कैसे समावेशित करता है, ताकि यह परिवर्तन उनके लिए महज सांकेतिक ट्विटर ट्रेंड और प्रतीकात्मक बन कर न रह जाए।

[शोधार्थी, स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनयू]