नई दिल्ली, [डॉ. अरविंद विरमानी]। नरेंद्र मोदी सरकार का आखिरी पूर्णकालिक बजट कई मायों में खास रहा। पिछले साल वस्तु एवं सेवा कर याी जीएसटी लागू होे के बाद यह पहला बजट था। मौजूदा आर्थिक माहौल और वैश्विक परिस्थितियों को देखते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली के सामे चुौतियों का पहाड़ था। जब इस साल कुछ राज्यों में विधासभा चुनाव और अगले साल आम चुाव होे जा रहे हों तो यह चुनौती और बड़ी हो जाती है। ऐसे में सबसे बड़ी राहत यही कही जा सकती है कि राजनीतिक फायदे के लिए सरकार ने जरूरत से ज्यादा लोकलुभाववाद से परहेज किया। प्रधानमंत्री मोदी विश्व आर्थिक मंच की दावोस बैठक में इसके संकेत दे चुके थे कि सरकार के बजट पर आने वाले वाले चुनावों का कोई दबाव हीं दिखेगा।
हालांकि तमाम मुश्किल मोर्चो पर वित्त मंत्री जूझते भी जर आए, फिर भी बजट की कुछ चीजों ने प्रभावित किया, खासतौर से नीतिगत सुधारों को लेकर। कृषि, शिक्षा और स्वास्थ्य में सरकारी निवेश की मंशा बजट के खास पहलू हैं। ये मूल रूप से राज्यों के विषय हैं, फिर भी केंद्र ने अपनी ओर से कदम उठाने में कमी नहीं की। रोजगार के मामले में भी यही सोच अपाई गई। अगर बजट के सार की बात कहूं तो ती प्रमुख पहलुओं में इसका एक पहलू बेहद सकारात्मक है कि सरकार ने समझदारी से खर्च किया है। एक थोड़ा सकारात्मक है जो करों के मोर्चे पर है तो राजकोषीय स्थिति के मामले में कुछ सकारात्मक कहा जा सकता है।
वित्त मंत्री के सामने होती हैं तमाम चुनौतियां
बजट में वित्त मंत्री के समक्ष तमाम चुनौतियां होती हैं, लेकिन उनमें सबसे प्रमुख राजकोषीय संतुलन की होती है। इस पर देसी उद्योग जगत से लेकर अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं, वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों से लेकर निवेशकों तक की नजर होती है। वित्त वर्ष 2017-18 के संशोधित अनुमान में राजकोषीय घाटा जीडीपी के 3.5 फीसद के बराबर रहा जबकि वित्त वर्ष 2018-19 के लिए जीडीपी के 3.3 फीसद के बराबर राजकोषीय घाटे का लक्ष्य तय किया गया है, जबकि कायदे से इसे और कम स्तर पर तय किया जाा चाहिए था। वैसे इसकी आशंका पहले से जताई जा रही थी, क्योंकि जीएसटी लागू होने के बाद कर राजस्व में अनिश्चितता बढ़ी है।
चूंकि जीएसटी व्यवस्था अभी आकार ही ले रही है। ऐसे में यह असमान्य हीं है। वहीं स्पेक्ट्रम नीलामी टलने से गैर-कर राजस्व के मामले में भी सरकार को निराशा हाथ लगी। हालांकि निवेश से जरूर वित्त मंत्री झोली भरने में सफल रहे और कई वर्षो बाद निवेश लक्ष्य न केवल पूरा हुआ, बल्कि अनुमान के आंकड़े को भी पार कर गया। शायद इसी वजह से उन्होंने अगले वित्त वर्ष में निवेश के लिए 80,000 करोड़ रुपये का महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किया। हालांकि निवेश से हुई कमाई भी राजकोषीय नुकसान की भरपाई करने में नाकाम रही। इसमें और निराशाजक पहलू यह रहा कि ऊंचे घाटे के बावजूद पूंजीगत व्यय में उसी अनुपात में बढ़ोतरी हीं की गई है। वित्त वर्ष 2018-19 के दौरा पूंजीगत व्यय में महज 10 प्रतिशत बढ़ोतरी का अनुमान है। पूंजीगत खर्च असल में ऐसा खर्च होता है जो आर्थिक गतिविधियों को तेजी देता है।
कारपोरेट जगत की रखना होगा ध्यान
वहीं उद्योग जगत लंबे समय से मांग करता आया है कि कारपोरेट कर को 30 फीसद से घटाकर 25 फीसद कर दिया जाए। अपने शुरुआती बजट में वित्त मंत्री ने उसे चरणबद्ध तरीके से घटाकर 25 प्रतिशत करने का वादा भी किया था। इस वादे को पूरी तरह से तो नहीं, लेकिन आंशिक रूप से जरूर पूरा किया गया है। इसके तहत 250 करोड़ रुपये सालाना टर्नओवर वाली कंपियों को 25 फीसद की दर से कारपोरेट कर देना होगा। देश में अधिकांश कंपनियां इसी दायरे में आती हैं। जाहिर है कि कर के मोर्चे पर बचत से इन कंपियों के पास निवेश के लिए अतिरिक्त रकम जमा होगी जिससे आर्थिक गतिविधियां बढ़े और रोजगार के अवसर सृजित होने की उम्मीद है। हालांकि बड़ी कंपनियों के लिए उपकरों के चलते कारपोरेट कर की दर प्रभावी रूप से और ज्यादा हो जाएगी। बुनियादी ढांचे पर जोर देते हुए सरकार ने ग्रामीण भारत को केंद्र में रखा है। गांवों को सड़कों के माध्यम से बाजारों, स्कूलों और स्वास्थ्य केंद्रों से जोड़े का कदम स्वागतयोग्य है।
अगले वित्त वर्ष में बुनियादी ढांचे पर तकरीब छह लाख करोड़ रुपये की राशि खर्च की जाएगी। खेती की हालत सुधारे के लिए सरकार ने ई-मार्केट और स्थानीय बाजारों के साथ मिलकर एक समिति द्वारा बाहरी क्षेत्र के प्रबंध और घरेलू सुधारों को लागू करे की जिम्मेदारी सौंपी है। इससे किसानों के लिए केवल बाजार तक पहुंच बढ़ेगी, बल्कि उके लिए जोखिम भी कम होंगे। नीति आयोग द्वारा जिन कृषि सुधारों की बात की गई है उन्हें आयात-निर्यात नीति में सुधार के साथ सुसंगत कराना होगा। इसके साथ ही ई-मार्केट, और एपीएमसी, ग्रामीण बुियादी ढांचे में भी समय के साथ सुधार करा होगा।
इस क्षेत्र में सरकार ने दिखाई समझदारी
सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं के मामले में भी सरकार ने बड़ी समझदारी दिखाई है। चुनावी रेवड़ियां बांटने के बजाय बजट में शिक्षकों के प्रशिक्षण, डिजिटलीकरण और ई-लर्निंग, शोध एवं विकास और प्रशिक्षण शोध जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर ध्यान केंद्रित किया गया है। दीक्षा जैसे कार्यक्रम के माध्यम से शिक्षकों को प्रशिक्षित किए जाने की योजना है। वहीं स्वास्थ्य के मोर्चे पर सरकार ने पहले से अपनाई गई बीमा वाली रणनीति पर ही आगे बढ़े का फैसला किया। स्वास्थ्य बीमा और इस क्षेत्र में पहले से उठाए गए कदमों के दायरे को और व्यापक एवं विस्तृत बाकर उन्हें सही दिशा प्रदान की है। इसमें टीबी जैसी बीमारी से लड़ने और शौचालय बनाने की योजना है। जहां तक सुधारों की बात है तो निजी आयकर दरों को छोड़कर प्रत्येक क्षेत्र में ये नजर आते हैं। निजी आयकर दरों में सुधार के लिए भी अरविंद मोदी समिति की सिफारिशों का इंतजार है। रोजगार प्रदान करने वाले और श्रम खपत के लिहाज से संवदेशील क्षेत्रों के लिए प्रोत्साहन और सुधारों का सिलसिला जारी है। करों के मामले में उद्योगों की मांग लगभग मान ली गई है तो निजी आयकर को बड़ी सावधानी के साथ सकारात्मक और नकारात्मक बदलावों के साथ समायोजित किया गया है। इसको हल्का सकारात्मक पड़ाव ही कहा जाएगा।
बजट की खासियत पर गौर करूं तो इसे लोकलुभावन बजट की आशंका को धता बता दिया। वहीं कृषि, शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य और बीमा जैसे क्षेत्रों को पूरी तवज्जो दी गई। राजकोषीय घाटे के मामले में फिसलन और पूंजीगत व्यय में पर्याप्त बढ़ोतरी होना परेशान करते हैं। वित्त मंत्री की यह घोषणा सुकून देने वाली है कि ईज ऑफ डुइंग के साथ ही सरकार का मकसद ईज ऑफ लिविंग यानि आम आदमी का जीवन सरल बनाना भी है। चूंकि आगे चुनावी चुनौती भी है तो सरकार ने बड़ी समझदारी के साथ खर्च करते हुए अपने आधार बढ़ाने की कोशिश की है। चुनावी दबाव के दौर में यह उम्मीद से बेहतर बजट है, क्योंकि यह लोकलुभावनवाद की छाप से मुक्त है।

(लेखक फोरम फॉर स्ट्रेटेजिक इिशिएटिव एवं चिंत के अध्यक्ष और वित्त मंत्रलय के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं)