संजय गुप्त। तीन राज्यों के चुनाव में अपनी पार्टी की जीत के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी जिस तरह किसानों की कर्ज माफी को चुनावी मुद्दा बनाने में जुटे हैं, वह लोक-लुभावन राजनीति के एक और प्रमाण के अतिरिक्त और कुछ नहीं। कांग्रेस और विशेषकर राहुल गांधी को लग रहा है कि किसानों की कर्ज माफी पर जोर देकर वह ठीक उसी तरह अपनी पार्टी को केंद्र की सत्ता में भी लाने में सफल हो सकेंगे, जिस तरह 2009 के आम चुनाव में 70,000 करोड़ रुपये के कर्ज माफ कर संप्रग सरकार फिर से चुनाव जीतने में कामयाब हुई थी।

राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को घेरते हुए यह कहा भी है कि अगर वह किसानों की कर्जमाफी की घोषणा नहीं करते तो वह उन्हें चैन से सोने नहीं देंगे। अच्छा होता कि राहुल गांधी यह देखने की कोशिश करते कि 2009 में कर्ज माफी के बाद देश की क्या हालत बनी? तब देश आर्थिक ठहराव का शिकार हो गया और मनमोहन सरकार नीतिगत पंगुता से ग्रस्त हो गई। इस सबके बीच किसानों की हालत जस की तस बनी रही। बीते कुछ समय से राहुल गांधी यह भ्रम भी फैलाने में जुटे हुए हैं कि नरेंद्र मोदी ने अपने कथित मित्र उद्योगपतियों के तो हजारों करोड़ रुपये के कर्ज माफ कर दिए, लेकिन किसानों के नहीं कर रहे हैं। यह तथ्यों के खिलाफ है और किसानों को बरगलाने वाला भी। सच यह है कि मोदी सरकार उन उद्यमियों के फंसे कर्ज वापस लेने के जतन कर रही है जिन्हें मनमोहन सरकार के समय अनाप-शनाप तरीके से ऋण बांटे गए थे। इस कोशिश में दीवालिया कानून सहायक बन रहा है, जिसे इसके पहले किसी सरकार ने बनाने की जरूरत नहीं समझी। किसानों और उद्यमियों के कर्ज को एक जैसा बताने की राजनेताओं की होड़ एक तरह की सस्ती राजनीति है। यह राजनीति देश का भला नहीं कर सकती।

बेहतर होगा कि राजनीतिक दल राज्यों और साथ ही देश की वित्तीय सेहत को ध्यान में रखकर फैसले लें। अगर सरकारी खजाने का पैसा लोक-लुभावन योजनाओं में खर्च होगा तो फिर विकास कार्यो के लिए पैसा कहां से आएगा? ऐसे कामों से तो महंगाई भी बढ़ेगी और साथ ही राजकोषीय घाटा भी। कुछ राज्य सरकारें इस दावे के साथ कर्ज माफी के फैसलों को सही ठहरा रही हैं कि इसके लिए धन का प्रबंध वे अपने स्नोतों से कर रही हैं। किसी भी तरह की कर्ज माफी आर्थिक नियमों के विपरीत होती है। कांग्रेस की तरह भाजपा की कुछ राज्य सरकारों ने भी कर्ज माफी की घोषणाएं की हैं। उत्तर प्रदेश में किसानों के एक वर्ग के कर्ज माफ किए गए थे, जबकि हाल में असम सरकार ने भी ऐसी ही एक घोषणा की और गुजरात सरकार ने भी किसानों के बिजली बिल माफ करने का एलान किया। इसके पहले महाराष्ट्र सरकार भी किसानों के दबाव में कर्ज माफी की घोषणा कर चुकी है। पंजाब और कर्नाटक की सरकारों ने भी किसानों के कर्ज माफ किए हैं। एक अनुमान के अनुसार मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कर्ज माफी की घोषणाओं पर अमल के लिए लगभग 50 हजार करोड़ रुपये की जरूरत पड़ेगी। यदि उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, पंजाब आदि राज्यों की कर्ज माफी की घोषणाओं को शामिल कर लिया जाए तो यह राशि करीब एक लाख करोड़ रुपये हो जाएगी। राज्यों को अगले एक-दो साल में इस राशि का प्रबंध करना होगा। स्वाभाविक है कि इस राशि की भरपाई के लिए जिस तरह राजस्व जुटाया जाएगा उसका असर सभी वर्गो पर पड़ेगा, जिसमें किसान भी शामिल हैं।

समस्या यह है कि बदहाली से त्रस्त किसानों से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे आर्थिक मसलों की बारीकी को समझ कर वोट दें। इससे इन्कार नहीं कि किसान मुश्किल में हैं और उनके हित के लिए बहुत कुछ करने की जरूरत है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उस कर्ज माफी को अपनाया जाए जो न किसानों का भला कर पा रही है और न ही अर्थव्यवस्था का। देश के किसान बीते कई दशकों से बदहाली से ग्रस्त हैं। चूंकि हाल के समय में उनकी मुश्किलें बढ़ी हैं इसलिए उन्हें जहां से भी कोई वित्तीय लाभ मिलता है वे उधर ही आकर्षित हो जाते हैं। बीते कुछ समय से वे कर्ज माफी की घोषणा करने वाले दल के साथ हो जाते हैं। वे इस पर ध्यान नहीं देते कि कर्ज माफी उनका भला नहीं कर पा रही है। एक सच्चाई यह भी है कि ऐसे किसानों की संख्या बहुत कम है जो वास्तव में कृषि कार्यो के लिए कर्ज लेते हैं। आम तौर पर वे कर्ज लेते हैं मोटर साइकिल खरीदने, मकान बनवाने, बच्चों की शादी करने के लिए। जो दल किसानों के हितैषी दिखने की होड़ कर रहे हैं वे ही उनकी आदतें खराब करने के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। इसका एक प्रमाण इससे मिलता है कि मध्य प्रदेश में कर्ज माफी की घोषणा होते ही तमाम किसानों ने किस्त देनी बंद कर दीं।

मोदी सरकार ने किसानों की हालत सुधारने के लिए कई प्रयास किए हैं। नीम कोटेड यूरिया से लेकर किसानों को मृदा स्वास्थ्य परीक्षण कार्ड उपलब्ध कराने, फसल बीमा और न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि के रूप में किसानों की हालत बेहतर बनाने की कोशिश की गई है, लेकिन केवल इतने मात्र से किसानों की बुनियादी समस्याएं हल नहीं होने वालीं। आज यह कहना कठिन है कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो सकेगी। देश की लगभग साठ फीसद आबादी कृषि पर निर्भर है। इतनी बड़ी आबादी को आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी बनाने के लिए कृषि का जिस तरह विकास किया जाना चाहिए वैसा नहीं हो पा रहा है। एक ओर जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी घट रही है और दूसरी ओर उस पर निर्भर आबादी की संख्या जस की तस बनी हुई है। इसका सीधा अर्थ है कि कृषि का मौजूदा ढांचा उतने रोजगार सृजित करने की स्थिति में नहीं है जो साठ प्रतिशत आबादी के लिए आवश्यक हैं। यह सही है कि कृषि में सात-आठ फीसद की विकास दर लगातार हासिल करना आसान नहीं है, लेकिन उस पर आश्रित आबादी की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कृषि में रोजगार के नए अवसरों की तलाश तो की ही जानी चाहिए। रोजगार और बेहतर जीवन की तलाश के लिए ही कृषि से जुड़े लोग शहरों का रुख करते हैं, लेकिन वहां भी उनके लिए पर्याप्त अवसर नहीं हैं।

सरकारें अगर किसानों की हालत सुधारने के लिए वाकई गंभीर हैं तो उन्हें कृषि से संबंधित सुधारों को एक अभियान के रूप में लागू करना होगा। चूंकि न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि जैसे उपायों से उन्हें सीमित लाभ ही मिलता है इसलिए सरकार को किसानों को जीवन स्तर में सुधार के लिए किसी अन्य मद में सहायता उपलब्ध करानी चाहिए। यह भी आवश्यक है कि फूड प्रोसेसिंग जैसे उद्योगों का दायरा बढ़ाया जाए। इसी तरह फूड चेन और नकदी फसलों को भी हरसंभव तरीके से प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। दुग्ध उत्पादन और मीट कारोबार कृषि में रोजगार सृजन के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं। इनमें निवेश बढ़ाना समय की मांग है। आज जरूरत इस बात की है कि राज्य सरकारें आधुनिक खेती को बढ़ावा दें, न कि कर्ज माफी की दिशा में बढ़ें। यह ठीक नहीं कि जब कृषि अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के उपाय करने चाहिए तब नाकाम साबित होती कर्ज माफी की ओर जाया जा रहा है।

(लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं)