संभव है एमएसपी की गारंटी देना, किसानों की मांग सरकार को सभी फसलें खरीदने के लिए बाध्य करना नहीं
तीन वर्ष पूर्व तीन कृषि कानूनों के निरस्तीकरण और न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की गारंटी की मांगों को लेकर किसानों का बड़ा आंदोलन हुआ। लगभग 13 महीनों तक किसान दिल्ली की सीमाओं पर बैठे रहे। सरकार ने पांच फसलों-अरहर मसूर उड़द मक्का और कपास पर अगले पांच सालों तक एमएसपी पर खरीद का प्रस्ताव दिया जिसे किसान नेताओं ने खारिज कर दिया।
चौधरी पुष्पेंद्र सिंह। तीन वर्ष पूर्व तीन कृषि कानूनों के निरस्तीकरण और न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की गारंटी की मांगों को लेकर किसानों का बड़ा आंदोलन हुआ। लगभग 13 महीनों तक किसान दिल्ली की सीमाओं पर बैठे रहे। अंततः सरकार ने 19 नवंबर, 2021 को वे कानून वापस ले लिए। साथ ही सरकार ने एमएसपी समेत अन्य मांगों के क्रियान्वयन हेतु एक उच्चस्तरीय समिति बनाई, परंतु इस समिति ने कोई ठोस कार्रवाई नहीं की। सरकार के इस रवैये से निराश होकर किसान संगठनों ने 13 फरवरी को दिल्ली कूच का एलान किया। इसके बाद सरकार सक्रिय हुई और किसानों से दो बार वार्ता की, जो सफल नहीं हुई। अंततः पंजाब के किसान संगठनों ने दिल्ली कूच शुरू कर दिया और हरियाणा की सीमाओं पर आकर डट गए, जहां अवरोध लगाकर उन्हें रोक दिया गया। इसके बाद भी वार्ताओं के दौर हुए, जिसमें भी बात नहीं बनी।
सरकार ने पांच फसलों-अरहर, मसूर, उड़द, मक्का और कपास पर अगले पांच सालों तक एमएसपी पर खरीद का प्रस्ताव दिया, जिसे किसान नेताओं ने खारिज कर दिया। किसानों की मूल मांग यह है कि एमएसपी से कम फसलों की खरीद कानूनी रूप से वर्जित हो यानी कोई व्यापारी या संगठन जब फसल खरीदे तो एमएसपी वैधानिक रूप से 'आरक्षित मूल्य' हो। इससे कम मूल्य पर खरीद न हो। एमएसपी का निर्धारण भी कृषि लागत एवं मूल्य आयोग द्वारा संपूर्ण लागत यानी सी-2 पर 50 प्रतिशत मुनाफा जोड़कर हो, जैसा स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश थी और जैसा प्रधानमंत्री का वादा भी था।
एमएसपी की गारंटी की मांग किसानों विशेषकर छोटे किसानों के लिए महत्वपूर्ण है। इस मांग का गणित समझना आवश्यक है। अभी देश में 23 फसलों की एमएसपी घोषित होती है। इसमें मुख्य रूप से गेहूं, धान, मोटे अनाज, दालें, तिलहन, गन्ना और कपास जैसी फसलें शामिल हैं। 2023-24 में इन फसलों का एमएसपी पर कुल मूल्य लगभग 15 लाख करोड़ रुपये बनता है। किसान स्वयं भी बड़ी मात्रा में फसलों का उपभोक्ता है। वह लगभग एक तिहाई यानी पांच लाख करोड़ रुपये मूल्य की फसलें स्वयं के उपभोग, पशुओं के आहार, बीज, अन्न विनिमय आदि में इस्तेमाल करता है। कुछ हिस्सा कटाई, ढुलाई और भंडारण में खराब हो जाता है। एमएसपी वाली फसलों में से करीब 10 लाख करोड़ रुपये मूल्य की फसलें ही बाजार में बिक्री हेतु आती हैं। इसमें से गन्ने समेत सरकारी खरीद लगभग 4-5 लाख करोड़ रुपये मूल्य की है। बाकी लगभग 5-6 लाख करोड़ रुपये की फसलें ही निजी क्षेत्र द्वारा खरीदी जाती हैं।
एक अनुमान के अनुसार व्यापारी एमएसपी से औसतन 25 प्रतिशत कम पर फसलें खरीदते हैं। यदि एमएसपी की वैधानिक गारंटी हो तो व्यापारियों को अधिकतम 1.5 लाख करोड़ रुपये और अतिरिक्त भुगतान किसानों को करना होगा। यदि एमएसपी गारंटी के इस सारे खर्चे को सरकार उठा ले तो भी 1.5 लाख करोड़ रुपये का ही अधिकतम खर्च आएगा। यह राशि हमारी जीडीपी के आधे प्रतिशत से भी कम है। साफ है कि इससे महंगाई बढ़ने की आशंका भी निर्मूल दिखती है।
किसानों की मांग यह नहीं है कि सारी फसलें सरकार ही खरीदे। सरकार अपनी जरूरत भर ही खरीद करे। किसानों की मांग निजी क्षेत्र या सरकार को सारी फसलें खरीदने के लिए बाध्य करना भी नहीं है, पर यदि कोई व्यापारी अन्न बाजार में उतरता है तो वह किसान को एमएसपी वाली कीमत देने के लिए कानूनी रूप से बाध्य हो। इस मांग को मानने से केवल व्यापारियों पर अंकुश लगेगा। सरकार का एक रुपया भी अतिरिक्त खर्च नहीं होगा। उलटे अतिरिक्त धनराशि किसानों को मिलने से अर्थव्यवस्था में मांग के साथ रोजगार बढ़ेंगे और निवेश के साथ टैक्स बढ़ेगा। सरकार को व्यापारी हित से ज्यादा किसान हित को संरक्षण देना चाहिए।
कुछ अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि एमएसपी को निजी क्षेत्र पर बाध्यकारी नहीं किया जा सकता, पर कई बार सरकार जनहित या वर्गहित में वस्तुओं का मूल्य निर्धारित या नियंत्रित करती है। सरकार गन्ने का जो दाम घोषित करती है, उसी पर निजी चीनी मिलें गन्ना खरीदती हैं। इसी प्रकार मजदूरों का शोषण रोकने के लिए न्यूनतम मजदूरी दर और राजस्व की सुरक्षा हेतु जमीनों का न्यूनतम बिक्री मूल्य और सेक्टर रेट घोषित करती है। इसी तरह फसलों की एमएसपी खरीद की गारंटी क्यों नहीं हो सकती? एक तर्क यह भी दिया जा रहा कि यदि एमएसपी बाध्यकारी रहे तो व्यापारी फसलें नहीं खरीदेंगे और किसान बर्बाद हो जाएंगे और सरकार सारी फसल खरीदने को मजबूर होगी। क्या गन्ने का मूल्य घोषित करने से चीनी मिलें बर्बाद हो गईं? क्या सारा गन्ना सरकार खरीद रही है? क्या न्यूनतम मजदूरी कानून से कोई उद्योग मजदूरों को रोजगार नहीं दे रहा? चूंकि व्यापारी जिस मूल्य पर अनाज खरीदते हैं उस पर मुनाफा जोड़कर आगे बेचते हैं, अतः उन्हें कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। एमएसपी कानून के चलते जब सरकार और व्यापारी एक मूल्य पर ही खरीद करेंगे तो सरकार अधिक खरीद, भंडारण और वितरण की समस्या और इस कारण सरकारी खजाने पर पड़ रहे अतिरिक्त आर्थिक बोझ से भी बचेगी। जब सभी फसलें एमएसपी पर बिकेंगी तो किसान गेहूं-धान के फसल चक्र से भी निकलकर अन्य फसलों का उत्पादन बढ़ाएगा। इससे हम दलहन और तिलहन में भी आत्मनिर्भर हो जाएंगे। यहां यह ध्यान रहे कि 2019 में कंपनियों पर कारपोरेट टैक्स घटाने के निर्णय से ही सरकार को लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का घाटा प्रतिवर्ष हो रहा है। एमएसपी बाध्यकारी बनाने से सरकार को कोई घाटा नहीं होगा, क्योंकि एमएसपी कानून बनने से अतिरिक्त राशि सरकार को नहीं चुकानी। व्यापारियों और निजी क्षेत्र की कंपनियों के लिए भी यह बड़ी रकम नहीं।
(लेखक किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष हैं)