जगमोहन सिंह राजपूत। सर्वोच्च न्यायालय ने 29 अप्रैल को मेडिकल और डेंटल कॉलेजों में प्रवेश परीक्षा के संबंध में एक ऐसा निर्णय दिया जिससे यदि छेड़छाड़ न की गई और उसे सम्मानपूर्वक लागू किया जा सका तो उसका सकारात्मक प्रभाव न केवल शिक्षा की गुणवत्ता पर पड़ेगा, बल्कि उसका एक बड़ा योगदान भारत में सामाजिक सद्भाव और पंथिक सद्भावना को नई ऊंचाई देने में भी संभव होगा। संविधान के अनुच्छेद 30 में अल्पसंख्यकों के लिए विशेष प्रावधान हैं। इसके तहत वे अपने शैक्षिक संस्थान स्थापित कर उनका प्रबंधन कर सकते हैं।

भारत में मेडिकल शिक्षा को लेकर जो अस्वीकार्य स्थितियां उनमें सुधार लाने, भ्रष्टाचार समाप्त करने और पारदर्शिता लाने के लिए अनेक प्रयास किए गए। इसी के तहत एक नई स्वायत्त संस्था की स्थापना की गई और उसे नीट यानी नेशनल एलिजिबिलिटी एंड एंट्रेंस टेस्ट आयोजित करने का उत्तरदायित्व सौंपा गया। कुछ निजी अल्पसंख्यक संस्थान अनुच्छेद 30 का सहारा लेकर इस प्रवेश परीक्षा से बाहर रहना चाहते थे, जिसे सर्वोच्च न्यायलय ने इस बार स्वीकार नहीं किया, क्योंकि नीट का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सरकारी और गैरसरकारी संस्थानों में प्रवेर्शािथयों को प्रतिभा के आधार पर ही प्रवेश मिले। इस बारे में मैं अपने कुछ अनुभव साझा करना चाहूंगा। 1993 में संसद के अधिनियम द्वारा राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद यानी एनसीटीई की स्थापना शिक्षकों के प्रशिक्षण में गुणवत्ता लाने और उसके व्यापारीकरण को रोकने के उद्देश्य से की गई।

यह संस्था 1997-98 में अनेक कम गुणवत्ता वाले पत्राचार पाठ्यक्रम नियंत्रित करनें में सफल रही। उसी समय बंबई विश्वविद्यालय ने अपने से संबंद्ध कॉलेजों के लिए बीएड प्रवेश परीक्षा आयोजित की। कुछ संबंद्ध महाविद्यालय अनुच्छेद 30 के तहत यह आदेश ले आए कि अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों में प्रवेश के लिए सामान्य व्यवस्था लागू नहीं होगी। परिणाम यह हुआ कि जो विद्यार्थी प्रवेश परीक्षा में असफल हो गए उनमें से अधिकांश अल्पसंख्यक समुदाय के नहीं थे, लेकिन वे इन महाविद्यालयों में प्रवेश पा गए। एनसीटीई के पहले अध्यक्ष के रूप में मैंने जाना कि बिहार में अल्पसंख्यक संस्थान खोलना अत्यंत सरल व्यवसाय माना जाता है। तब बीएड की डिग्रियां बिकती थीं। एनसीटीई ने इसका संज्ञान लिया और विसंगतियों को दूर किया।

वास्तव में अनुच्छेद 30 के प्रावधान जिस ढंग से लागू किए गए उससे कम से कम मुस्लिम समुदाय को अपेक्षित लाभ नहीं हुआ। अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों में से अधिकांश कम पढ़ाई और अधिक अंक देने के लिए जाने जाते हैं। इन संस्थानों ने समय के साथ अपनी साख और स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए जरूरी प्रयास नहीं किए हैं। अल्पसंख्यक समुदाय की शिक्षा से जुड़ी अनेक समस्याएं हैं। उनके समाधान के प्रयास सरकारें करती रही हैं, मगर समाज का आवश्यक सहयोग नहीं मिल पाता।

मदरसों के आधुनिकीकरण को लेकर 2002-04 में केंद्रीय सरकार ने जो पहल की थी उसके अपेक्षित परिणाम नहीं मिल सके। बाद के प्रयासों का भी यही हाल है। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय मेडिकल और डेंटल कॉलेज की प्रवेश परीक्षाओं के लिए है, पर सभी अल्पसंख्यक संस्थाओं को उसमें निहित मूल भावना को स्वीकार करना चाहिए। मदरसों का माहौल सुधारा जाए, स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की जाए, बच्चों को वह सब शिक्षा दी जाए जो अन्य निजी और सरकारी संस्थान दे रहे हैं। दीनी तालीम उन्हें इसके साथ दी जा सकती है। अलग से मदरसा बोर्ड बनाने से कितना लाभ या हानि हुई, इस पर मुस्लिम समुदाय के प्रबुद्ध लोगों को पूर्वाग्रहों और राजनीतिक विचारधारा के बंधनों से मुक्त होकर विचार करना चाहिए। प्रवेश और नियुक्ति की प्रत्येक परीक्षा एक सी होनी चाहिए।

आज भी बीएड की जो प्रवेश परीक्षा राज्यस्तर पर आयोजित होती है उससे अल्पसंख्यक संस्थान अपने को अलग रखते हैं। अध्यापकों की नियुक्तियों और सेवा शर्तों में भी मनमानी चलती है। इस स्थिति को अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान स्थापित करने वाले ही सुधार सकते हैं, यदि वे सामान्य संस्थानों पर लागू नियमों

और अर्हताओं का पालन प्रारंभ कर दें। सर्वोच्च न्यायलय ने अपने निर्णय में स्पष्ट कहा है कि अलग-अलग प्रवेश परीक्षाओं का उचित प्रभाव नहीं पड़ता। उनसे मेरिट, पारदर्शिता और स्वस्थ प्रतिस्पद्र्धा की स्थिति र्नििमत नहीं होती। नीट के जरिये भ्रष्टाचार समाप्त करने का जो प्रयास किया जा रहा उसे किसी भी प्रकार से शिथिल नहीं होने देना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि प्रवेश परीक्षाओं के बाद मेरिट वाले विद्यार्थी बाहर रह जाएं और र्आिथक रूप से संपन्न परिवारों के छात्र कम मेरिट के बाद भी प्रवेश पा जाएं।

जब 2012 में केंद्र सरकार ने मेडिकल एवं डेंटल शिक्षा के सभी संस्थानों में प्रवेश के लिए एक राष्ट्रीय प्रवेश परीक्षा की व्यवस्था की थी तो उसे अल्पसंख्यक संस्थानों ने अपने अधिकारों पर आघात बताया था। उस समय जस्टिस अल्तमस कबीर की अध्यक्षता वाली बेंच ने यह दलील 2-1 के बहुमत से स्वीकार कर ली। यह फैसला 2016 में वापस ले लिया गया और नीट को परीक्षा आयोजन की अनुमति मिल गई। अब नियमित आदेश आ गया है। यह सभी शिक्षा संस्थानों के लिए एक अद्भुत अवसर है। वे मुख्यधारा में आकर अपने स्नातकों का आत्मविश्वास बढ़ा सकते हैं। इस प्रकार का परिवर्तन अन्य महत्वपूर्ण कारणों से भी जरूरी हो गया है।

पिछले चार महीनों में शाहीन बाग आंदोलन, दिल्ली के सांप्रदायिक दंगे और निजामुद्दीन में तब्लीगी जमात से जुड़ी चर्चाएं सकारात्मक नहीं रही हैं। देश के दो सबसे बड़े समुदायों के बीच अविश्वास और आशंका बढ़ना राष्ट्रहित में नहीं है। सबकी भलाई में हमारी भलाई निहित है, यह एक वाक्य देश का मार्गदर्शन कर सकता है। इसमें सर्वधर्म समभाव और हर प्रकार की विविधता की स्वीकार्यता निहित है। कोरोना के बाद देश का पुर्निनर्माण होना ही है। इसमें हर नागरिक को कंधे से कंधा मिलाकर भविष्य की पीढ़ियों के प्रति अपना कर्तव्य निर्वाह करना चाहिए। इसके लिए देश के सभी शिक्षा संस्थानों को सामाजिक सद्भाव और पंथिक समानता बढ़ाने के लिए एकजुट होकर कार्य करना होगा। इसमें अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान बहुत बड़ी हिस्सेदारी निभा सकते हैं।

(सामाजिक सद्भाव के लिए सक्रिय लेखक प्रख्यात शिक्षाविद् हैं)