[ सूर्यकुमार पांडेय ]: उनकी पार्टी तीन राज्यों में चुनाव जीत गई। वह कहीं पर पंद्रह वर्षों से सत्ता से बाहर थी तो कहीं पर पांच साल से। प्यास लंबी हो तो पानी पीने की तलब भी सामान्य से सौ गुना अधिक हुआ करती है। मात्र एक अदद मुख्यमंत्री पद की दावेदारी के लिए जैसी जोर-आजमाइश हुई उसे देखते हुए इसके प्रति निश्चिंत रह सकते हैैं कि जब विधायकगण मंत्री बनने के लिए लाइन लगाएंगे तो कुछ और दिलचस्प सीन नजर आएंगे। अब खबरों के लिए इधर-उधर भाग-दौड़ की कोई आवश्यकता नहीं रह गई है। प्रदेशों के पार्टी के मुख्यालयों की ओर भी रुख करने की जरूरत नहीं है। सिर्फ दिल्ली वाले घर और दफ्तर से ही इतना मसाला और नमकीन मिल जा रहे हैं कि टीवी चैनलों के ‘प्राइम टाइम’ का पेट भर जा रहा है। ‘राजनीति का ध्येय चुनाव जीतना और सत्ता पाना ही तो है। फिर इसमें बुराई क्या है कि जब हमारा नंबर आया है तो हम भी पद पाने की होड़ में एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं!’ हालांकि सबके लिए ही ये पुरानी और समझी-समझाई हुई बातें हैं, फिर भी एक नव निर्वाचित विधायक मीडिया और पार्टी के कार्यकर्ताओं के हुजूम को खरी-खरी समझा रहे हैं।

अब के समय में चुनाव चेहरे और चरित्र को सामने रखकर नहीं लड़े जाते हैं। चेहरे बाद में तय होते हैं और जहां तक चरित्र का प्रश्न है तो वह स्वयं पांच सालों तक उत्तर तलाशता फिरता है कि मैं हूं भी तो कहां हूं और कितनी मात्रा में हूं! चुनाव अब राजनीतिशास्त्र का विषय नहीं रह गए हैं। यह गणित के सिद्धांतों से परिचालित होने लगे हैं। चुनावों ने अंकगणित से जोड़, घटाना, गुणा, भाग सीख लिया है। बीजगणित से नए-नए समीकरण बनाने की चतुराई जान ली है और ज्यामिति से द्विकोणीय, त्रिकोणीय और बहुकोणीय मुकाबलों और वक्र रेखा पर चलने की कला प्राप्त कर ली है। चुनावी परिक्षेत्र में इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से बढ़ते हुए खतरों की चर्चाएं अभी थमी भी नहीं थीं कि ऊपर से इस बार चुनाव में आनुवांशिकी विज्ञान ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी। चुनाव में धर्म, जाति पहले से ही उपस्थित थे, अब कुल और गोत्र भी आ गए। कल को ‘जीन’ और ‘ब्लड ग्रुप’ की चर्चाएं भी चुनावी मुद्दे बन जाएं तो किसी को भी आश्चर्य नहीं होगा।

ओह हो, मैं भी लिखते-लिखते किस गंभीर विमर्श में उलझ गया! मेरा राजनीति से जो भी नाता है वह मात्र एक मतदाता होने तक सीमित है। अल्पज्ञान वाले का किसी पर कीचड़ उछालना जगहंसाई का कारण बन जाता है। परंतु क्या करूं? मैंने एक हास्य-व्यंग्यकार के तौर पर राजनीति को अपने मजाकिया रिश्ते की डोर में जो बांध रखा है। इसलिए तीन प्रदेशों के प्रसंग सुना रहा हूं। हो सकता है कि इससे जवानों को थोड़ा संतोष हो और राजनीति का ज्ञान भी मिले।

पहला प्रदेश: यहां मुख्यमंत्री तय होने के बाद इसी पद के दूसरे दावेदार ने आलाकमान से अपनी नाराजगी जताई तो जवाब मिला,‘आप क्या दस दिन तक भी प्रतीक्षा नहीं कर सकते हैं!’ पिछड़ गए दावेदार ने पूछा, ‘कहिए, भला दस दिन बाद ऐसा क्या चमत्कार हो जाएगा कि मैं मुख्यमंत्री बन जाऊंगा!’ आलाकमान धीरे से बोले, ‘भइया, मैं मतदाताओं से कहने जा रहा हूं कि दस दिन में अगर किसानों का कर्जा माफ नहीं हुआ तो मुख्यमंत्री ही बदल दूंगा।’ दावेदार खुश हैैं, क्योंकि उन्हें यह भरोसा है कि दस दिन में यह काम नहीं हो सकता।

दूसरा प्रदेश: ‘मेहनत करने वालों की हार नहीं होती! मैं नहीं मानता। जिसने भी कहा है, गलत कहा है। हमारे भैया ने चुनावों में सबसे ज्यादा मेहनत की। क्या नतीजा मिला? पार्टी जीत गई और वे मुख्यमंत्री नहीं हो पाए।’ भैया का घनघोर समर्थक खिसियाया हुआ है। ‘दोस्त, जवानी कभी हारती नहीं है। जिस ओर जवानी चलती है, उस ओर जमाना चलता है!’ समर्थक का दोस्त उसे सांत्वना देता है। ‘हां भाई, अब तक मैं भी यही जानता था कि जवानी कभी हारती नहीं है, लेकिन अब जान गया हूं कि जवानी यदि कहीं पर हारती है तो वह बुजुर्गों के आगे ही हारती है।’ घनघोर समर्थक अपनी नम आंखों को खिसियाहट के रूमाल से पोंछते हुए कहता है।

तीसरा प्रदेश: मुख्यमंत्री पद के एक दावेदार ने बताया कि जिसे सीएम बनाना था उससे पूछा गया कि प्रदेश में हमें कुल कितने प्रतिशत मत मिले। और जब मेरी बारी आई तो कहने लगे, ‘सूबे के कुल गांवों की संख्या बताओ।’ मैंने बता दी। वे बोले, ‘बिल्कुल सही।’ फिर मुझसे अगला सवाल पूछा, ‘अब उन सारे गांवों के नाम सुनाओ।’ मैंने दिमाग पर जोर डालकर यह भी कर दिया। वे बोले, ‘बिल्कुल सही।’ इसके बाद हर गांव की आबादी भी पूछने लगे। मैं बिना बताए लौट आया। ‘तो क्या आपको ग्रामवार जनसंख्या भी याद थी!’ उनके समर्थक ने पूछा। ‘अरे, याद तो मुझे गांवों के नाम भी नहीं थे।’ तो फिर बताया कैसे? ‘अरे मुन्ना, उन्हें ही कौन सा पता था!’

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]