[ डॉ. भरत झुनझुनवाला ]: वर्तमान में चुनाव धनवानों का दंगल बनकर रह गया है। विधायक के चुनाव मे पांच करोड़ और सांसद के चुनाव में पच्चीस करोड़ रुपये खर्च करना आम बात हो गई है। धन के अभाव में जनता के मुद्दे उठाने वाले स्वतंत्र प्रत्याशी चुनावी दंगल से बाहर हो रहे हैं। हमारे संविधान निर्माताओं को इसका भान था। उन्होंने इस समस्या के हल के लिए ही चुनाव आयोग की स्वतंत्रता बनाए रखने का प्रावधान किया, लेकिन आयोग धन के दुरुपयोग को रोकने में असमर्थ सिद्ध हुआ है। हमारे कानून में प्रत्याशियों द्वारा अधिकतम खर्च की सीमा बांध दी गई है, लेकिन विभिन्न तरीकों से इसका खुलेआम उल्लंघन किया जा रहा है। हमें विचार करना चाहिए कि अन्य देशों की तरह भारत में भी प्रत्याशियों को सरकारी अनुदान दिया जाए। ऐसा करने से आर्थिक दृष्टि से कमजोर व्यक्तियों के लिए चुनाव लड़ना कुछ आसान हो जाएगा। ऐसी व्यवस्था वर्तमान में करीब सौ देशों मे उपलब्ध है।

ऑस्ट्रेलिया में 1984 से प्रत्याशियों द्वारा हासिल किए गए वोट के अनुपात में सरकारी अनुदान दिया जाता है। शर्त है कि प्रत्याशी ने कम से कम चार प्रतिशत वोट हासिल किए हों। यदि यह भरोसा हो कि आप चार प्रतिशत वोट हासिल कर लेंगे तो आप कर्ज लेकर चुनाव लड़ सकते हैं, फिर अनुदान से मिली राशि से ऋण अदा कर सकते हैं। अमेरिका के एरिजोना प्रांत में व्यवस्था है कि यदि कोई प्रत्याशी 200 वोटरों से पांच-पांच डॉलर यानी कुल 1000 डॉलर एकत्रित कर ले तो उसे सरकार द्वारा 25 हजार डॉलर की रकम चुनाव लड़ने के लिए उपलब्ध कराई जाती है। 200 मतदाताओं की शर्त इसलिए तय की गई है कि फर्जी प्रत्याशी अनुदान की मांग न करें। ऐसे ही प्रावधान हवाई, मिनिसोटा, विस्कांसिन आदि प्रांतों में भी बनाए गए हैं। इन प्रावधानों का उद्देश्य है कि सामान्य व्यक्ति चुनाव लड़ सके और सच्चे मायनों में लोकतंत्र स्थापित हो। इस व्यवस्था के सार्थक परिणाम आए हैं।

यूनिवर्सिटी ऑफ विस्कांसिन द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि सरकारी अनुदान मिलने से तमाम ऐसे व्यक्ति जो चुनाव लड़ने के बारे में सोचते नहीं थे वे भी चुनाव लड़ने को तैयार हो जाते हैं। कमजोर प्रत्याशियों की अपने बल पर चुनाव लड़ने की क्षमता कम होती है। सरकारी अनुदान से उनका हौसला बढ़ जाता है। यह भी पाया गया कि सरकारी अनुदान से निवर्तमान प्रत्याशी के पुन: चुने जाने की संभावना कम हो जाती है, क्योंकि उन्हें नए प्रत्याशियों से प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है। इसी प्रकार ड्युक यूनिवर्सिटी द्वारा किए एक अध्ययन में पाया गया कि सरकारी अनुदान से नए प्रत्यशियों की संख्या में वृद्धि होती है। चुनाव में नए मुद्दे उठते हैं, भले ही प्रत्याशी जीते या हारे। चुनावी विमर्श बदलता है। इन अध्ययनों से पता लगता है कि सरकारी अनुदान से कमजोर व्यक्तियों को चुनावी दंगल में प्रवेश करने का अवसर मिलता है और लोकतांत्रिक व्यवस्था में विविधता बढ़ती है।

भारत में भी बार-बार यह सुझाव दिया गया है। 1998 में इंद्रजीत गुप्त समिति ने कहा था कि चुनाव में सरकारी अनुदान दिया जाना चाहिए। हालांकि उन्होंने केवल पंजीकृत पार्टियों को अनुदान देने की बात कही थी। निर्दलियों को अनुदान देने का उन्होंने समर्थन नहीं दिया था। 1999 की विधि आयोग की रपट में सुझाव दिया गया था कि चुनाव पूरी तरह सरकारी अनुदान से लड़ा जाए और पार्टियों द्वारा दूसरे स्नोतों से चंदा लेने पर प्रतिबंध लगाया जाए। 2001 की संविधान समीक्षा समिति ने विधि आयोग की रपट का समर्थन किया, लेकिन यह भी कहा था कि पहले पार्टियों के नियंत्रण का कानून बनना चाहिए। इसके बाद ही अनुदान देना चाहिए।

2008 में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने चुनाव में आंशिक सरकारी अनुदान देने की बात की थी। 2016 में संसद के शीतकालीन सत्र से पूर्व सर्वदलीय बैठक को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि चुनाव में सरकारी अनुदान पर खुली चर्चा होनी चाहिए। मोदी शायद पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने इसका समर्थन किया। इस सुझाव को लागू करने की दरकार है। वैश्विक अनुभवों और देश के विद्वानों के विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि चुनाव में सरकारी अनुदान के सार्थक परिणाम सामने आते हैं। यह अनुदान किन शर्तों पर दिया जाए, कितना दिया जाए और कब दिया जाए, इसके लिए विभिन्न विकल्प हो सकते हैं। मगर यह स्पष्ट है कि लोकतंत्र को प्रभावी बनाने के लिए जरूरी है कि सामान्य व्यक्ति को चुनाव लड़ने के लिए सक्षम बनाया जाए ताकि चुनाव केवल अमीरों का शगल बनकर न रह जाए।

यह कहा जा सकता है कि सरकारी अनुदान समृद्ध प्रत्याशियों को और समृद्ध बना देगा। ऐसा नहीं है। सरकारी अनुदान यदि वोट के अनुपात में दिया जाए तो जीतने वाले समृद्ध प्रत्याशियों को अधिक एवं हारने वाले कमजोर प्रत्याशियों को कम रकम मिलेगी। मान लीजिए कि जीतने वाले समृद्ध प्रत्याशी को 40 प्रतिशत वोट मिले और उसे 4,00,000 रुपये का अनुदान मिला। इसके उलट हारने वाले कमजोर प्रत्याशी को 10 प्रतिशत वोट और 1,00,000 रुपये का अनुदान मिला। मगर समृद्ध प्रत्याशी के लिए 4,00,000 रुपये की रकम ऊंट के मुंह में जीरा होगी, लेकिन कमजोर प्रत्याशी के लिए 1,00,000 रुपये की रकम बहुत उपयोगी सिद्ध होगी। लिहाजा चुनावी प्रक्रिया को समृद्ध प्रत्याशियों के एकाधिकार से निकालने में अनुदान कारगर रहेगा।

वर्तमान व्यवस्था में सांसद को सांसद निधि के अंतर्गत भी अप्रत्यक्ष अनुदान मिलता है जो नए प्रत्याशियों के लिए संकट पैदा करता है। प्रत्येक सांसद को पांच साल के कार्यकाल मे 25 करोड़ रुपये के कार्य कराने की छूट होती है। यह कार्य सरकारी विभागों द्वारा कराए जाते हैं, परंतु अक्सर देखा जाता है सांसद के संरक्षण में ठेकेदारों के माध्यम से इन कार्यों को संपादित किया जाता है। ठेकेदारों के माध्यम से सांसदों को इसमें कुछ रकम कमीशन के रूप में प्राप्त होती है। यह रकम भी चुनाव को प्रभावित करती है, लेकिन मेरी समझ से सांसद निधि को चुनावी दंगल की चपेट में नहीं लेना चाहिए।

सांसद को अपने क्षेत्र में काम कराने की छूट होनी ही चाहिए। समृद्ध सांसदों को छोटा बनाने के स्थान पर हमारा ध्यान छोटे प्रत्यशियों को बड़ा करने पर होना चाहिए। आर्थिक दृष्टि से कमजोर प्रत्याशियों को सरकारी अनुदान मिले तो वे चुनावी प्रक्रिया में धनबल के वर्चस्व को चुनौती दे सकते हैं। लोकतंत्र को सुदृढ़ करने के लिए हमें प्रत्याशियों को सरकारी अनुदान देने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए जैसा प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था।

( लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलूर के पूर्व प्रोफेसर हैं )