क्षमा शर्मा। हाल में बंबई उच्च न्यायालय ने उद्योगपति विजयपत सिंघानिया की आत्मकथा की बिक्री पर रोक लगा दी, क्योंकि उनके बेटे ने उस पर आपत्ति जताई थी। इससे आहत विजयपत सिंघानिया ने कहा कि जीते जी अपनी जायदाद कभी अपने बच्चों को न दें। आज उन्हें किराये के घर में रहना पड़ रहा है। कभी वह अपना हेलीकाप्टर खुद उड़ाते थे, लेकिन आज वह कहते हैं कि उनकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब है। सोचने की बात है कि यदि ऐसे साधन संपन्न व्यक्ति की अपने देश में ऐसी हालत हो सकती है, तो किसी गरीब बुजुर्ग की हालत कैसी होती होगी? सिंघानिया ने जैसी दुख भरी कहानी सुनाई, उस पर हिंदी में तमाम फिल्में भी बन चुकी हैं, जहां माता-पिता की सारी जमीन-जायदाद हथियाकर उन्हें बेघर कर दिया जाता है। ऐसी खबरें भी आए दिन छपती हैं, जहां कई बार पुलिस और न्यायालय को बुजुर्गों के पक्ष में हस्तक्षेप करना पड़ता है। अपने आसपास भी ऐसी घटनाएं रोज घटित होती हैं और हम इन लोगों की स्थिति पर सिवाय तरस खाने के और कुछ नहीं कर सकते।

वह कहानी तो याद ही होगी कि एक बुजुर्ग महिला अपने संदूक को ताला लगाकर, उसकी चाबी हमेशा अपने सिरहाने या साड़ी के पल्लू में बांधकर रखती थी। सभी बेटे, बहुएं और उनके बच्चे इसी आशा में उसकी सेवा करते थे कि इस भारी-भरकम संदूक में बंद धन उन्हें ही मिलेगा, मगर महिला की मृत्यु के बाद जब संदूक को खोला गया तो पता चला कि उसमें तो बड़े-बड़े पत्थर भरे थे। उस महिला को पता था कि सेवा तो मेवा के बदले ही की जाती है। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा ही है- स्वारथ लाग करें सब प्रीती। पंचतंत्र में भी कहा गया है कि यदि कंचन पास न हो तो कामिनी भी अपनी नहीं रहती। कुल मिलाकर सभी रिश्तों का सार यही है कि जिसके पास धन और संपदा हो तो सारे रिश्ते भी उसके अपने हैं। पराये भी अपने बन जाते हैं। यदि धन न हो तो अपने भी अपने नहीं रहते, लेकिन इन सब बातों से इतर एक बात पिछले दिनों से बहुत शिद्दत से महसूस हो रही है।

जर्मनी में रहने वाले एक मित्र ने बताया कि उसके पिता दिल्ली में अकेले रहते हैं। एक दिन उसने जब उन्हें फोन किया तो पिता ने उठाया नहीं। एक बार नहीं, दस बार करने पर भी उसे जवाब नहीं मिला तो चिंता हुई। संयोग से पड़ोस में रहने वाली एक महिला को फोन किया। उन्होंने सोसाइटी वालों को बुलाया। किसी ने खिड़की से झांककर देखा। बुजुर्ग बिस्तर पर पड़े थे। जैसे-तैसे दरवाजा खोला तो पता चला कि बेहोश हैं। पड़ोसी अच्छे थे, फौरन अस्पताल ले गए। पता चला कि बुजुर्ग डायबिटिक कोमा में चले गए थे। एक दूसरे साथी की मां बाथरूम में गिर पड़ीं। कूल्हे की हड्डियां टूट गईं। बेटा विदेश में। महिला के लिए उसने 24 घंटे देखभाल के लिए मेडिकल नर्स और एक सहायिका रखी। महिला कुछ ठीक हुईं। सहारे से चलने-फिरने भी लगीं, लेकिन एक दिन फिर गिर पड़ीं। इस बार गिरीं तो उठी ही नहीं। अंतिम वक्त उनके पास अपना कोई नहीं था। जब कोई अपना पास में न हो तो किसी पराये का क्या ही भरोसा। इन दिनों घर-घर में ऐसे बुजुर्गों की बड़ी संख्या है, जिनके पास साधनों की कोई कमी नहीं है। आय है। बचत है। अपना घर है। नहीं है, तो बस ऐसा कोई अपना जिन्हें खून का रिश्ता कहा जाता है। जिसे ह्यूमन रिसोर्स कहते हैं।

जिन बुजुर्गों के बच्चे उन्हें बेसहारा छोड़ देते हैं, वे तो हैं ही, ऐसे बुजुर्ग भी बढ़ते चले जा रहे हैं, जो जीवन के इस चौथेपन में अकेले हैं। बच्चे या तो विदेश में हैं या दूसरे शहरों में। पास-पड़ोस में भी ऐसा अब बहुत कम रह गया है कि पड़ोसी, पड़ोसी के काम आ जाए। वैसे भी सच यह है कि कोई किसी के काम एक दिन आ सकता है, चार दिन भाग-दौड़ कर सकता है, लेकिन महीनों कोई किसी की देखभाल नहीं कर सकता। सबके अपने दैनंदिन काम हैं, नौकरी है, पारिवारिक जिम्मेदारियां हैं। ऐसे में सब अपने परिवारों की तरफ देखते हैं। इसके अलावा अकेले बुजुर्गों के लिए असुरक्षा भी है। कितनी बार ऐसी घटनाएं होती हैं कि जिन्हें ये अपनी देखभाल के लिए रखते हैं, वे ही इनके प्रति भयंकर अपराधों को अंजाम देते हैं। इन अपराधों में लूटपाट और हत्या तक शामिल हैं। तिस पर यदि ये अकेले बुजुर्ग बीमार भी हैं, चल-फिर नहीं सकते, तो ऐसी घटनाओं की आशंका और बढ़ जाती है। वे अक्सर अपराधों के शिकार भी हो जाते हैं।

बहुत से लोग कहते हैं कि वे अपने पिता या मां को साथ ले जाना चाहते हैं, मगर वे उनके साथ जाना ही नहीं चाहते। पराये देश में उनका मन नहीं लगता। बच्चे तो काम पर चले जाते हैं, वे अकेले घर में रह जाते हैं। वहां न किसी से बात कर सकते हैं, न मिल सकते हैं, जबकि यहां अकेले होते हुए भी चार बातें करने वाला कोई न कोई मिल ही जाता है। ऐसे में हाल यह है कि न ये वहां जा सकते हैं, न बच्चे अपनी रोजी-रोजगार छोड़कर यहां आ सकते हैं। आखिर इस उम्र में अकेले इनका गुजारा कैसे हो? हम अक्सर पश्चिम को कोसते रहते हैं। स्वयं को उनसे महान बताते रहते हैं, लेकिन वहां यदि परिवार किसी बुजुर्ग की देखभाल नहीं कर रहा है तो वे ‘ओल्ड एज होम’ यानी वृद्धाश्रम में जा सकते हैं। अपने यहां अव्वल तो उस दर्जे की सुविधाएं ही नहीं हैं। जो हैं भी उनकी शर्ते ऐसी हैं कि हर कोई वहां नहीं जा सकता। वैसे भी गंभीर रूप से बीमार की देखभाल करने के लिए शायद ही कोई ओल्ड एज होम तैयार होता है। यों भी गाहे-बगाहे कुछ लोग यह कहते रहते हैं कि बुजुर्ग अर्थव्यवस्था पर बोझ होते हैं। साफ है कि बुजुर्गों की भलाई के लिए समाज और सरकार को कुछ करना होगा।

(लेखिका साहित्यकार हैं)