[हरेंद्र प्रताप]। राष्ट्रपति के पद पर एक जनजाति समाज की महिला द्रौपदी मुर्मु के निर्वाचन को भारतीय लोकतंत्र में सामाजिक सहभागिता के रूप में देखा जा रहा है, लेकिन आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर इसका एक और महत्व है। वह यह कि जनजाति समुदाय में से भी 'संताली' महिला का देश के सर्वोच्च पद पर निर्वाचित होना। वर्ष 1757 में प्लासी के युद्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने नवाब सिराजुद्दौला को हरा दिया और अपने शासन के विस्तार की योजना बनाई।

ईस्ट इंडिया कंपनी के विस्तार में उनका पहला संघर्ष संताल सुंदरा मुर्मु के पुत्र तिलका मांझी से हुआ। अंग्रेज जब जंगलों की मूल्यवान संपत्ति लूटने लगे तब उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष का आह्वान कर दिया। 1771 से 1784 यानी लगभग 13 वर्षों तक उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ चले युद्ध का नेतृत्व किया। अंतत: एक दिन ऐसा आया जब अंग्रेज तिलका मांझी तथा उनकी गुरिल्ला सेना पर आक्रमण कर उन्हें गिरफ्तार करने में सफल हो गए। फिर 1784 में भागलपुर में एक चौराहे पर उन्होंने तिलका मांझी को फांसी पर लटका दिया। अत: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पहले स्वतंत्रता सेनानी तिलका मांझी ही थे।

कहा जाता है कि उन्होंने ही सबसे पहले-'हांसी-हांसी चढ़बो फांसी' गीत गाया था, जो बाद में हमारे देश के क्रांतिकारियों का बलिदानी गीत बन गया। 'तिलका मांझी'- नाम उन्हें अंग्रेजों ने दिया। सच्चाई यह है कि उनका जन्म 'मुर्मु' परिवार में हुआ था।

अंग्रेज जनजाति/आदिवासी प्रतिरोध से इतना डर गए कि बाद के दिनों में उन्होंने उन्हें पहाड़, जंगल और खनिज संपदा से बेदखल करने के लिए इसे राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर दिया। उसके बाद वर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के पूर्व संताल परगना एक बार पुन: ईस्ट इंडिया कंपनी के विस्तारवाद के खिलाफ उठ खड़ा हुआ। वर्ष 1855-56 का संताल विद्रोह तथा उसके नेतृत्वकर्ता सिदो मुर्मु, कान्हू मुर्मु, चांद मुर्मु एवं भैरव मुर्मु चारों भाई थे। यह सशस्त्र विद्रोह ब्रिटिश शासन और उसके द्वारा थोपी गई जमींदारी प्रथा के खिलाफ था। इसे हूल आंदोलन कहा जाता है।

चूंकि आदिवासियों के पास उनका पारंपरिक तीर-धनुष था और अंग्रेज सेना आधुनिक हथियारों से लैस थी, अत: अंग्रेज युद्ध जीत गए। प्रति वर्ष 30 जून को झारखंड प्रांत के भोगनाडीह में हूल दिवस मनाया जाता है, क्योंकि इसी दिन कान्हू मुर्मु को फांसी दी गई थी। हूल दिवस का कार्यक्रम होने के कारण संतालियों की वर्तमान पीढ़ी अपने इतिहास से जुड़ जाती है।

जिस प्रकार 30 जून को हूल दिवस मनाया जाता है उसी प्रकार तिलका मांझी के संघर्ष से वर्तमान को जोड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए। आजाद भारत में भी तिलका मांझी उपेक्षा का दंश झेलते रहे। हालांकि वर्ष 1991 में भागलपुर विश्वविद्यालय का नाम बदल कर तिलका मांझी विश्वविद्यालय किया गया, पर स्वतंत्रता के इस प्रथम स्वतंत्रता सेनानी के ऊपर जितना शोध होना चाहिए, उतना न तो शोध हुआ और न ही उतना साहित्य उपलब्ध है।

संतालों पर अंग्रेजों और ईसाई मिशनरियों का दमन कैसा था यह समझने की आवश्यकता है। अंग्रेजों के उत्पीड़न से बचने के लिए संतालों को पलायन के लिए बाध्य होना पड़ा। संताल परगना से पलायन कर ये असम के बोडो क्षेत्र तक पहुंच गए। वहां भी वे सुरक्षित नहीं रहे। ईसाई मिशनरियों ने मतांतरित बोडो लोगों से उन ऊपर आक्रमण करवाया। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ओडिशा के मयूरभंज जिले के रायरंगपुर विधानसभा क्षेत्र से आती हैं।

इस जिले की आबादी में लगभग 59 प्रतिशत जनजाति/आदिवासी हैं। कुल जनजाति में से संताल जनजाति की आबादी 43 प्रतिशत से ऊपर है। अगर मतांतरण के हिसाब से देखें तो ईसाई मिशनरियां इनका मतांतरण कराने में असफल रही हैं। इस जिले में मात्र 0.69 प्रतिशत संताल ही ईसाई बन पाए हैं।

ओडिशा में 41.94 प्रतिशत उरांव, 39.07 प्रतिशत खड़िया और 31.16 प्रतिशत मुंडा जनजाति के लोग ईसाई बने हैं, पर संताल मात्र 0.84 प्रतिशत ही ईसाई बने हैं। ओडिशा से सटे बंगाल में कुल जनजाति जनसंख्या में 47.42 प्रतिशत संताल हैं। वहां इनका मतांतरण मात्र 3.62 प्रतिशत ही हुआ है। ओडिशा से सटे झारखंड में कुल जनजाति में 31.86 प्रतिशत संताली हैं। वहां 32.82 प्रतिशत मुंडा, 26.16 प्रतिशत उरांव ईसाई बन गए हैं, लेकिन मात्र 8.57 प्रतिशत संताल ही ईसाई बने हैं।

दरअसल जनजाति समाज के विभिन्न समुदायों में से संताल समाज को ईसाई पंथ में मतांतरण करने में अगर विदेशी मिशनरियां सफल नहीं हो पा रही हैं तो इसके पीछे उनकी अपनी संस्कृति, संघर्ष और परंपरा के प्रति श्रद्धा और स्वाभिमान है। मतांतरण का अर्थ है राष्ट्रांतरण।

जिस तरह से इस्लाम में मतांतरण का परिणाम 1947 में देश का विभाजन था वैसा ही ईसाई मतांतरण/पंथ परिवर्तन एक और विभाजन का संकेत दे रहा है। ईसाई मिशनरियां देश के जनजातियों/आदिवासियों का पंथ परिवर्तन करा रही हैं यह अब किसी से छिपा नहीं है। लगभग 250 वर्षों से अपनी परंपरा और पूजा पद्धति पर हो रहे ईसाई आक्रमण के खिलाफ संताल समाज आज भी संघर्षरत है।

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु भी संताली हैं। महामहिम के पद पर उनके निर्वाचन से पूरे आदिवासी विशेषकर संताली समाज में एक नए उत्साह एवं विश्वास का संचार हुआ है। आज संताल तो कल पूरा आदिवासी समाज ईसाई मिशनरियों के राष्ट्रघातक पंथ परिवर्तन के खिलाफ उठ खड़ा होने वाला है। इससे विदेश से आयातित इस्लाम, ईसाइयत और साम्यवादी विचार के प्रचार-प्रसार के लिए चल रहे हिंसक, राष्ट्रविरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी संगठनों में एक भय व्याप्त हुआ है। इनका नापाक गठजोड़ देश में असुरक्षा और अराजकता पैदा न करे-इस पर ध्यान रखना होगा।

(लेखक बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य हैं)