[ राजीव सचान ]: बीते वर्षों की तरह वर्ष 2019 भी तमाम अच्छी-बुरी बातों के लिए जाना जाएगा और स्वाभाविक रूप से यह उम्मीद की जाएगी कि नया वर्ष बुरे दिन न दिखाए, लेकिन केवल शुभ की इच्छा से ही सब कुछ सही नहीं होता। अगर शुभ की कामना भर की जाए और आचरण उसके उलट किया जाए तो अभीष्ट की पूर्ति संभव नहीं। नए वर्ष में कुछ बेहतर होने की आशा की ही जानी चाहिए, लेकिन इसी के साथ इस पर गौर भी किया जाना चाहिए कि नव वर्ष का आगमन एक ऐसे समय हो रहा है जब देश के विभिन्न हिस्सों में अज्ञानता के साथ अपरिपक्वता का भी प्रदर्शन हो रहा है। सैकड़ों लोग इसलिए सड़कों पर उतर रहे हैैं, क्योंकि उनके दिमाग में यह भर दिया गया अथवा उन्होंने स्वत: यह भर लिया कि नागरिकता संशोधन कानून के जरिये देश के मुस्लिम नागरिकों को बाहर निकाल दिया जाएगा या फिर एनआरसी का सहारा लेकर उन्हें डिंटेशन सेंटर भेज दिया जाएगा।

नागरिकता कानून के विरोध में साठ से ज्यादा लोगों ने खटखटाया सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा

भय के इस भूत को इतने जतन से खड़ा किया गया कि नागरिकता कानून का विरोध करने सड़कों पर उतर रहे लोगों को यह भी लगता है कि सरकार ने संविधान विरोधी कानून का निर्माण कर लिया है। जिन्हें ऐसा लगता है उनमें से कम से कम साठ लोग सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा भी खटखटा चुके हैैं। इनमें कई संसद सदस्य हैैं। इन याचिकाकर्ताओं के वकीलों में भी कई सांसद हैैं, जैसे कपिल सिब्बल। वह इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के वकील हैैं। शुद्ध मजहबी आधार पर राजनीति करने वाले इस दल ने अपनी याचिका में यह दलील दी है कि नागरिकता कानून धर्म के आधार पर भेद करता है।

इस कानून की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट को करनी पड़ सकती है अधिक माथापच्ची

पता नहीं सुप्रीम कोर्ट किस नतीजे पर पहुंचेगा, लेकिन कपिल सिब्बल तर्क दे रहे हैैं कि इस कानून की वैधता ही पर्याप्त नहीं। आखिर किसी कानून की संवैधानिकता सही साबित होने को अपर्याप्त बताने का क्या मतलब? क्या संविधान की व्याख्या करने का अंतिम अधिकार सुप्रीम कोर्ट के अलावा अन्य किसी के पास भी है? क्या इसमें उनकी भी कोई भूमिका होने वाली है जिन्होंने सड़कों पर उतर कर आगजनी और तोड़फोड़ की? अगर नहीं तो क्या इसके लिए कुतर्क तैयार किए जा रहे हैैं कि यदि सुप्रीम कोर्ट नागरिकता कानून कोे सही पाता है तो उसका विरोध कैसे किया जाए? नागरिकता कानून पर नेताओं के एक वर्ग की ओर से अपरिपक्वता का प्रदर्शन किया जाना कोई नई बात नहींं।

डंकल प्रस्ताव के विरोध में लालू खड़े हुए, तो बोफोर्स के विरोध में वीपी सिंह आगे आए

आखिर कोई यह कैसे भूल सकता है कि नेता और खासकर विपक्षी नेता झूठ का सहारा लेने की सुविधा का अतिरिक्त लाभ उठाते हैैं। एक समय था जब विश्व व्यापार समझौते के डंकल प्रस्ताव का विरोध करने के लिए लालू यादव जन सभाओं में कहते थे कि अगर भारत ने इस प्रस्ताव को मान लिया तो किसानों को ऐसे बीज बोने पड़ेंगे कि टमाटर होगा तो कद्दू जैसा, लेकिन उसके अंदर गोबर निकलेगा। जब बोफोर्स का मसला सतह पर था तो वीपी सिंह अपनी जेब से एक पर्ची निकाल कर कहते थे कि इसमें उन लोगों के नाम हैैं जिन्होंने दलाली की रकम ली है।

केजरीवाल ने शीला दीक्षित के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगाए, राहुल ने राफेल पर वाहवाही लूटी

यह तो सबको याद ही होगा कि कैसे अरविंद केजरीवाल यह दावा किया करते थे कि उनके पास शीला दीक्षित के भ्रष्टाचार को साबित करने वाले ऐसे दस्तावेज हैैं जो उन्हें जेल भेजने के लिए पर्याप्त होंगे। इसी तरह यह तो कल की ही बात है जब राहुल गांधी ऐसा दावा करने में लगे थे जिसका मतलब था कि राफेल सौदे की कुल रकम से अधिक राशि अनिल अंबानी की जेब में डाल दी गई।

भाजपा भी विपक्ष में रहते समय झूठ की राजनीति का हिस्सा रही

इसमें संदेह है कि नए वर्ष में राजनीति के इस चलन से छुटकारा मिलने जा रहा है। राजनीति के इस चलन से भाजपा अपरिचित नहीं हो सकती। विपक्ष में रहते समय वह खुद भी इसी तरह की राजनीति का हिस्सा रही है। उसे यह अहसास हो तो बेहतर कि नागरिकता कानून के विरोध में जो तूफान खड़ा हुआ उसके लिए एक हद तक वह भी जिम्मेदार है। आखिर वह यह क्यों नहीं भांप सकी कि इस कानून के खिलाफ किस तरह का दुष्प्रचार जारी है?

भाजपा ने सीएए के विरोध में आम लोगों को भरोसे में लेने का काम समय रहते नहीं किया

सवाल यह भी है कि उसने आम लोगों के बीच पहुंचने और उन्हें भरोसे में लेने का काम समय रहते क्यों नहीं किया? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि जब नागरिकता कानून के खिलाफ जनता को भ्रमित किया जा रहा था तब उस एनआरसी को लागू करने का संकल्प क्यों व्यक्त किया जा रहा था जिसके बारे में सरकार के स्तर पर कोई चर्चा ही नहीं हुई थी?

नागरिकता कानून में संशोधन के खिलाफ राग अलापता मीडिया का एक वर्ग

नि:संदेह यह भी कोई नई-अनोखी बात नहीं कि मीडिया का एक वर्ग अपनी वैचारिक जकड़न के तहत चीजों को सही संदर्भ और परिप्रेक्ष्य में देखने से इन्कार करने के साथ ही ऐसी रट लगाना पसंद करे कि नागरिकता कानून में संशोधन कर अनर्थ कर दिया गया है।

छात्र, शिक्षक, कलाकार, फिल्मकार जैसे लोगों ने निभाई विपक्षी नेताओं की भूमिका

इससे भी हैरानी नहीं कि जनता का एक वर्ग किसी मसले पर सही-गलत का आकलन करने से इन्कार करे और कागज नहीं दिखाने और अपना नाम रंगा-बिल्ला बताने सरीखे शरारत एवं मूर्खता भरे दुष्प्रचार का हिस्सा बने, क्योंकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इसकी इजाजत देती है कि कोई किसी सही बात को गलत समझकर उसका विरोध करे और ऐसा करते हुए कुतर्कों का भी सहारा ले, लेकिन यह चकित भी करता है और निराश भी कि जनता के इस वर्ग में छात्र, शिक्षक, कलाकार, फिल्मकार और ऐसे ही अन्य अनेक लोग भी शामिल हो जाएं। विपक्षी नेताओं की तरह इन्हें भी नागरिकता कानून के विरोध में हुए प्रदर्शनों में कहीं कोई अराजकता नहीं दिखाई दे रही।

पुलिस पर बेजा सख्ती के आरोप

शायद उनकी इसी अनदेखी के कारण ही पुलिस पर बेजा सख्ती के उनके आरोपों को दुष्प्रचार समझा जा रहा है। कहीं कोई अराजकता न होने के सनक भरे अभियान के बावजूद उचित यही होगा कि इन आरोपों की जांच हो। इसी के साथ उन कारणों की तह तक भी जाया जाना चाहिए जिनके चलते तमाम पढ़े-लिखे और समझदार समझे जाने वाले लोग उस कौए के पीछे भागते दिखे जिसके बारे में उन्होंने यह मान लिया कि वह उनका कान ले भागा है।

अपरिपक्वता का प्रदर्शन करने वाले लोग देश के उत्थान में सहायक नहीं हो सकते

क्या ऐसे अज्ञानता से भरे और घोर अपरिपक्वता का प्रदर्शन करने वाले लोग किसी भी समाज और देश के उत्थान में सहायक हो सकते हैैं? आखिर दुनिया इस पर हंसने या फिर हतप्रभ होने के अलावा और क्या कर सकती है कि जब 2019 समापन की ओर बढ़ रहा था तब सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में तमाम लोग उस कानून के खिलाफ सड़कों पर उतर कर हंगामा और हिंसा कर रहे थे जिसका उनसे कोई लेना-देना ही नहीं था।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं )