[प्रो. निरंजन कुमार]। देश के नीति निर्माण और प्रशासन के संचालन के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार सिविल सेवा में भर्ती को लेकर मोदी सरकार ने एक बड़ा कदम उठाया है। उसके कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग ने भारत सरकार में संयुक्त सचिव पद के स्तर पर सीधी भर्ती के लिए आवेदन आमंत्रित किए हैं। सरकार मेधावी एवं पेशेवर लोगों का योगदान लेने की दिशा में आगे बढ़ रही है। प्रयोग के तौर पर फिलहाल दस पदों पर भर्ती की जाएगी। ये आवेदन राजस्व, आर्थिक मामलों, कृषि, किसान कल्याण, सड़क परिवहन एवं राजमार्ग, जहाजरानी, पर्यावरण, अक्षय ऊर्जा, नागरिक उड्डयन और वाणिज्य जैसे विशेष क्षेत्रों में कार्य करने के लिए आमंत्रित किए गए हैं, लेकिन भारतीय नौकरशाही में सुधार से संबंधित यह कदम विवाद का भी कारण बन रहा है। सीधी भर्ती के इस कदम के खिलाफ विपक्षी दलों एवं अन्य लोगों की ओर से कई प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। पूरे प्रकरण को समझने के लिए पहले नौकरशाही में भर्ती और उसकी कार्यप्रणाली को समझना आवश्यक है।

संयुक्त सचिव या उपसचिव स्तर के वरिष्ठ प्रशासनिक पदों पर सीधे भर्ती की जो बात हो रही है उसमें आमतौर पर आइएएस, आइपीएस और अन्य केंद्रीय सेवाओं के लोग पदोन्नति के बाद पदस्थ होते हैं। इन लोगों की आरंभिक भर्ती संघ लोक सेवा आयोग द्वारा सिविल सेवा परीक्षा के जरिये की जाती है, लेकिन 21 वर्ष या कुछ ऊपर की उम्र में भर्ती हो जाने के बाद आगे चलकर इन सिविल सेवकों में एक शिथिलता आ जाती है। सिविल सेवा परीक्षा में योग्यता परीक्षण की सीमा है। आजादी के 70 साल में सामाजिक, आर्थिक, व्यावसायिक और तकनीकी परिस्थितियां काफी बदल चुकी है। आज का समय विशेषज्ञता यानी स्पेशलाइजेशन का है।

वर्तमान पैटर्न में विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक, तकनीकी और कानूनी-संवैधानिक बातों के ज्ञान का परीक्षण होता तो है, लेकिन यह ज्ञान विशेष न होकर सामान्यीकृत ही होता है। सिविल सेवा परीक्षा में एक ऐच्छिक विषय लेना पड़ता है और उसमें उम्मीदवार को निश्चित रूप से विशेष ज्ञान होना चाहिए, लेकिन आखिर दर्शनशास्त्र या पाली भाषा-साहित्य अथवा भौतिक विज्ञान आदि विषय से उत्तीर्ण व्यक्ति वाणिज्य विभाग के कामकाज में कैसे न्याय कर सकता है? उसकी कार्यसूची में विश्व व्यापार संगठन के प्रति दायित्वों को ध्यान में रखते हुए नियम बनाने से लेकर अंतरराष्ट्रीय व्यापार में देश के अधिकतम लाभ के लिए भविष्य की बातचीत भी शामिल होती है। इसके अतिरिक्त ऐसे अधिकारी को विश्व व्यापार संगठन के सदस्यों के साथ समझौतों, विश्व व्यापार संगठन में व्यापार भागीदारों के साथ विवाद निपटाने, चयनित भागीदार के साथ मुक्त व्यापार क्षेत्र संबंधी समझौते की बातचीत और उसे लागू करने, निर्यात और आयात नीति बनाने, डंपिंग रोधी कानून और विदेशी कंपनियों के खिलाफ भारत द्वारा की गई कार्रवाई का बचाव और भारतीय फर्मों के खिलाफ विदेशी सरकारों द्वारा उठाए गए कदमों के जवाब में कार्रवाई जैसी चीजों से भी जूझना पड़ता है। इनमें से अधिकांश के लिए कॉमर्स के साथ कानून के भी ज्ञान की आवश्यकता चाहिए होती है। यही बात राजस्व, शिक्षा, कृषि, नागर विमानन, विदेश आदि विभागों पर भी काफी हद तक लागू होती है।

सिविल सेवा परीक्षा द्वारा कई बार कॉमर्स, कृषि, कानून, अंतरराष्ट्रीय अध्ययन या अन्य तकनीकी विषयों के विशेषज्ञ चयनित भी होते हैं, लेकिन देखा गया है कि 18-20 साल की आरंभिक फील्ड पोस्टिंग के बाद उनकी विशेषज्ञता क्षरित हो जाती है। दरअसल यहीं लेटरल यानी सीधे भर्ती की परिकल्पना सामने आती है। इसके तहत सरकारी क्षेत्र के बाहर कार्यरत विभिन्न अनुभवी विशेषज्ञों को राष्ट्रहित के लिए सरकारी नीति निर्माण और शासन में शामिल किया जाता है। दो-ढाई दशक पहले एक महत्वपूर्ण परीक्षा में कुछ लोग सफलतापूर्वक चयनित हुए थे, सिर्फ इसी एक आधार पर उच्च पदों पर उनकी नियुक्ति को उचित नही ठहराया जा सकता। इसके बजाय आइएएस, आइपीएस और अन्य केंद्रीय सेवाओं के भीतर और बाहर के सबसे अच्छे उपलब्ध उम्मीदवारों में खुली प्रतियोगिता के जरिये उनकी सीधी भर्ती भी होनी चाहिए। इसमें मुश्किल है तो यही कि पेशवेर एवं अनुभवी लोगों की सीधी भर्ती की इस योजना के खिलाफ विरोध की राजनीतिक तलवार लहरा दी गई है। कांग्रेस, सीपीएम, राजद आदि राजनीतिक दलों के नेताओं ने इसे असंवैधानिक, मनुवादी या फिर आरएसएस के लोगों को भर्ती करने की साजिश करार दिया है। कुछ ने तो इसे औद्योगिक घरानों के चहेतों को प्रशासनिक तंत्र में घुसाने की जुगत करार दिया है। कुछ ऐसा ही रवैया कई बुद्धिजीवियों ने भी अपनाया है। इन सभी को यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रशासन में दक्ष एवं अनुभवी लोगों की सीधी भर्ती की अवधारणा नई नहीं है। 2003 में सिविल सेवा से संबंधित सुरिंदरनाथ कमेटी और 2004 में पीसी होता कमेटी, दोनों ही ने सीधी भर्ती की सिफारिश की थी।

यही नही कांग्रेस के वरिष्ठ नेता वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में गठित दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी 2005 में इस आशय की सिफारिश की थी। सच तो यह है कि अपने देश में सीधी भर्ती के उदाहरण भी मौजूद हैं। 1959 में पंडित नेहरू की सरकार ने एक इंडस्ट्रियल मैनेजमेंट पूल बनाया था। इसके तहत सरकार निजी क्षेत्र के योग्य अधिकारियों की भर्ती करती थी। बाद में नौकरशाही के विरोध की वजह से यह योजना बंद हो गई। नेहरू युग में ही हरिवंश राय बच्चन की नियुक्ति विदेश मंत्रालय में उपसचिव स्तर के अधिकारी के रूप में की गई थी। हालिया उदाहरणों में मनमोहन सिंह सरकार के समय नंदन निलेकणी, मोंटेक सिंह अहलुवालिया, रघुराम राजन आदि एक तरह से सीधी भर्ती के उदाहरण कहे जा सकते हैं। सिविल सेवा परीक्षा न देने वाले काबिल लोगों की नौकरशाह के रूप में सीधी भर्ती कोई असंवैधानिक कार्य नहीं है।

सीधी भर्ती के तहत दस विज्ञापित पद सिर्फ निजी क्षेत्र के ही नहीं खोले गए हैं, बल्कि राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों में कार्यरत अधिकारियों के साथ-साथ विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों एवं सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के पेशेवर भी इसके लिए आवेदन कर सकते हैं। उनकी नियुक्ति स्थायी न होकर तीन साल के लिए होगी और अच्छे प्रदर्शन पर इसे पांच साल के लिए बढ़ाया भी जा सकता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें तो सीधी भर्ती यानी लेटरल एंट्री की प्रणाली न्यूजीलैंड, ब्रिटेन, अमेरिका जैसे कई देशों में मौजूद है। अमेरिका में अनेक पद जहां कंपटिटिव सर्विस कही जाने वाली प्रतियोगी परीक्षा के आधार पर भरे जाते हैं वहीं ऐसे अनेक पद और विभाग हैं जिसमें नियुक्तियां परीक्षा के माध्यम से नहीं होती। इन नियुक्तियों को अतिरिक्त सिविल सेवा की संज्ञा दी जाती है। सीआइए, विदेश सेवा, आंतरिक सुरक्षा, विमानन विभाग आदि में तमाम पद ऐसे हैं जहां विशेषज्ञों को नियुक्त किया जाता है ताकि वे संबंधित विभागों को कार्यकुशल बना सकें। पेशेवरों की नौकरशाहों के रूप में सीधी भर्ती एक सही कदम है, लेकिन सरकार को ऐसी भर्ती में पक्षपात की आशंका को दूर करना होगा। इसके लिए एक संस्थागत और पारदर्शी प्रक्रिया अपनाए जाने की जरूरत है। विवाद से बचने के लिए सरकार सिविल सेवा परीक्षा आयोजित करने वाले यूपीएससी को ही सीधी भर्ती के साक्षात्कार की जिम्मेदारी सौंप सकती है।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर है)